-दीपक दुआ…
सीमा कपूर के नाम से वाकिफ हैं आप…? क्या आप सीमा कपूर की आत्मकथा ‘यूं गुज़री है अब तलक’ पढ़ना चाहेंगे…? मुमकिन है कि आप में से अधिकांश पाठक इन सवालों के जवाब देने की बजाय उलटा पूछ बैठें-कौन सीमा कपूर…? सीमा कपूर वरिष्ठ रंगकर्मी रंजीत कपूर और लोकप्रिय अभिनेता अन्नू कपूर की छोटी बहन हैं। स्वर्गीय अभिनेता ओम पुरी की पहली पत्नी हैं जिनके साथ करीब दस साल तक उनका नज़दीकी रिश्ता रहा लेकिन जब दोनों की शादी हुई तो कुछ ही महीनों में टूट गई। मगर ओम पुरी उनके पास लौट कर आए और करीब 25 साल बाद हुई ओम पुरी की मृत्यु तक इन दोनों के बीच कभी पास-कभी दूर वाला नाता बना रहा। खुद सीमा कपूर ने भी कुछ टी.वी. धारावाहिक, फिल्में आदि बनाईं और लिखीं। उन्हीं सीमा कपूर की यह आत्मकथा राजकमल पेपरबैक्स से आई है जो उनके जीवन के संघर्ष को करीब से दिखाते हुए असल में इंसानी फितरतों की ढेरों अजब-गजब कहानियों को सामने लाती है।
करीब चार सौ पन्नों की इस किताब में सीमा ने एक लंबा हिस्सा अपने बचपन की यादों को दिया है जिसमें उनके पिता की घुमंतू नाटक कंपनी, उस कंपनी के कभी चलने और कभी न चलने पर घर में कभी ईद तो कभी रोज़े का सजीव चित्रण है। इस हिस्से में सीमा ने घर चलाने के अपनी मां के लंबे संघर्ष को उकेरा है। साथ ही काका जी यानी रंजीत कपूर और अन्नू (कपूर) भैया के साथ उनके संबंधों की भी बानगी है। इसके अलावा इस हिस्से में वे ढेरों किरदार भी हैं जो इस परिवार के दायरे में आते और छूटते चले गए। इन किरदारों में वह रघुबीर यादव भी हैं जिन्हें उनके पिता ‘कंपनी’ में लेकर आए और जहां से उन्हें नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में जाने का हौसला मिला। इसी हिस्से में सीमा बचपन में अपने साथ हुए यौन शोषण का ज़िक्र भी करती हैं। यह हिस्सा आपको अतीत के सफर पर ले जाता है। एक ऐसा अतीत जिसमें फाके थे लेकिन कुछ हासिल करने का जज़्बा था। सीमा का यह सफर उनके भाइयों के संघर्ष की तस्वीर भी दिखाता है। लेकिन कुछ जगहों पर लगता है कि उन्होंने अपनी बातें ज़रूरत से ज़्यादा लंबी खींच दीं जिन्हें समेटा जा सकता था।
अभिनेता ओम पुरी से मिलना, उनसे हुई अंतरंगता, फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा से प्रेम संबंध, ओम पुरी का अपनी कामवाली बाई से संबंध, ओम पुरी से सीमा की शादी और तलाक, तलाक के बाद उनके पास वापस आना जैसी सीमा के जीवन की ढेरों बातें पढ़ते हुए यह विचार मन में आता है कि किसी की ज़िंदगी में आखिर इतने उतार-चढ़ाव कैसे हो सकते हैं और यदि हैं तो कितना जीवट होगा उस इंसान के भीतर जिसने ऐसी ज़िंदगी जी होगी। साथ ही सीमा की जिं़दगी में आए अन्य किरदारों की विशेषताओं, खासकर उनकी कमियों-कमज़ोरियों के बारे में भी पता चलता है। ऐसा भी लगता है जैसे एक आत्मकथा नहीं बल्कि कोई उपन्यास हाथों में हो, जैसे सामने पर्दे पर कोई फिल्म चल रही हो और आप कुर्सी का कोना पकड़े, दम साधे, बस उसे देखे जा रहे हों।
सीमा के लेखन में अधिकांश जगह सहजता, स्वाभाविकता है जो आपको कमोबेश बांधे रखती है। उनकी बताई बातों से फिल्मी दुनिया के कथित ‘बड़े’ और ‘नामी’ लोगों के भीतर का खोखलापन, उनकी कमज़ोरियां और काम के प्रति उनका समर्पण भी सामने आता है। यह भी पता चलता है कि कैसे कोई नास्तिक होने के बावजूद हर मुश्किल में ईश्वर को पुकारता है और एक दिन आस्तिक हो जाता है, कैसे कोई खुद को साम्यवादी, समाजवादी कहते हुए असल में पूंजीवादी ही होता है। ज़िंदगी के खोखलेपन के अलावा विचारों के खोखलेपन को भी बयान करती इस आत्मकथा को पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि ऐसी कहानियां ‘बेचने’ के लिए नहीं, ‘कहने’ के लिए कही जाती हैं।
(नोट-इस पुस्तक की एक छोटी-सी समीक्षा भास्कर ग्रुप की मासिक पत्रिका ‘अहा ज़िंदगी’ के जून, 2025 अंक में प्रकाशित हुई है।)
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ-साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब-पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)