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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-आशा और निराशा के बीच झूलती ‘अटकन चटकन’

Deepak Dua by Deepak Dua
2020/09/05
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-आशा और निराशा के बीच झूलती ‘अटकन चटकन’
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-दीपक दुआ… (Featured in IMDb Critics Reviews)

झांसी के पास जमुनिया नाम के एक गांव का 11 बरस का लड़का गुड्डू। उसे हर चीज़ में संगीत सुनाई देता है। मां नहीं है और बाप शराबी। झांसी में एक चाय की दुकान पर काम करते-करते वह तानसेन संगीत महाविद्यालय में शिक्षा पाने का सपना देखता है। लेकिन उसकी प्रतिभा देख कर तानसेन वाले ही इसकी शरण में चले आते हैं। अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर वह एक कंपीटिशन में तानसेन वालों को जितवा देता है।

समाज के हाशिये पर बैठे किसी प्रतिभाशाली मगर वंचित वर्ग के बच्चे या शख्स के यूं अंडरडॉग बन कर उभरने और जीत हासिल करने की कहानियां पूरे विश्व के सिनेमा में दिखाई जाती हैं और आमतौर पर इन्हें हमदर्दी व तारीफें मिलती भी हैं। इस फिल्म के निर्माताओं में अभिनेत्री विशाखा सिंह (‘फुकरे’ वाली) के साथ प्रस्तोता के तौर पर संगीतकार ए.आर. रहमान और बतौर संगीतकार रहमान के ही साथी शिवामणि का नाम देख कर इस फिल्म के प्रति उत्सुकता जगती है। फिर पता चलता है कि गुड्डू की भूमिका निभाने वाला लायडियान नादस्वरम असल में रहमान के स्कूल का काबिल छात्र है, तमाम वाद्य बजा लेता है, दुनिया का सबसे तेज पियानो वादक है, एक नामी संगीतकार का बेटा है, तो उम्मीदें व उत्सुकताएं और बढ़ जाती हैं। लेकिन क्या ज़ी5 पर मौजूद यह फिल्म इन उत्सुकताओं को शांत और उम्मीदों को पूरा कर पाती है?

दिक्कत कहानी के साथ नहीं है। इस किस्म की कहानियां तो होती ही ऐसी हैं जिनमें किसी कम साधनसंपन्न को दूसरों के ऊपर जीतते हुए दिखाया जाता है। दिक्कत इसकी स्क्रिप्ट के साथ है। कहानी को विस्तार देने के लिए गढ़े गए चरित्रों के चित्रण के साथ है और काफी हद तक उन किरदारों को निभाने के लिए चुने गए कलाकारों के साथ भी है। फिल्म की स्क्रिप्ट के घुमाव कच्चापन लिए हुए हैं। इन्हें और कसा जाना चाहिए था, और पकाना चाहिए था। पटकथा गाढ़ी हो तो अक्सर दूसरी कमियां ढक लेती है। लेकिन यहां पटकथा का हल्कापन इसकी दूसरी कमियों को भी उजागर करने लगता है। मसलन किरदार उतने सधे हुए नहीं हैं जो इस कहानी के कहन को, उसके संदेश को कायदे से अपने कंधों पर उठा पाएं। तानसेन संगीत महाविद्यालय जैसा नामी संस्थान और निर्भर है कुछ भटकते बच्चों की प्रतिभा पर। बच्चे भी कैसे, जिनकी प्रतिभा को खुल कर दिखाया ही नहीं गया। इनकी दो-तीन ज़ोरदार परफॉर्मेंस दिखा दी जाती तो इनके किए पर ज़्यादा विश्वास होता। अंत में ‘नर हो न निराश करो मन को’ गाने वाला बच्चे का ही सबसे पहले निराश होकर स्टेज छोड़ना तो जैसे सारी कहानी का सार भुला देता है।

फिल्म की शूटिंग झांसी, ओरछा और आसपास की है। लेकिन इसके मुख्य कलाकार या तो दक्षिण भारत से लिए गए हैं या दक्षिण भारतीय दिखते हैं। चाय वाले अजय सिंह पाल और मंगू बने बनवारी लाल झोल के अलावा बाकी सब बनावटी दिखते हैं। गुड्डू बने लायडियान की मेहनत और समर्पण को सलाम किया जा सकता है लेकिन वह इस कहानी की पृष्ठभूमि में मिसफिट लगते हैं। उन जैसे बेहद प्रतिभाशाली बच्चे की प्रतिभा का पूरी तरह से प्रदर्शन न दिखा पाना भी इस फिल्म की विफलता है। निर्देशक शिव हरे के प्रयास नेक हैं मगर उन्हें अभी अपने काम में और गहरे तक पैठना होगा। इस किस्म की फिल्म का गीत-संगीत जिस ऊंचे स्तर का होना चाहिए, वह भी इसमें नहीं है।

इस फिल्म के नाम से ही लगता है कि यह बच्चों के लिए बनी है। बच्चों को इसे देखना भी चाहिए। अपने कलेवर से थोड़ा निराश करती यह फिल्म अपने फ्लेवर से आशाएं जगाती है। जीवटता, समर्पण, जूझने की शक्ति और जीतने की ललक के लिए इसे देखा जा सकता है।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-05 September, 2020

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: A.R. Rehmanajay singh palAtkan Chatkan reviewbanwari lal jholLydian Nadhaswaramsaumya shivhareshiv hareshivamanivishakha singhyash raneZEE5
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