-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
शुरुआती दृश्य देखिए। वन में नौका विहार कर रहे राम अपनी पत्नी सीता से कहते हैं कि तुम राजकुमारी हो, तुम्हें महलों में रहना चाहिए, कहां तुम मेरे साथ जंगलों में भटक रही हो। गौर कीजिए, कि यह बात राम तब कहते हैं जब इन्हें जंगलों में रहते हुए बरसों बीत चुके हैं और सीता-हरण बस होने ही वाला है। क्या सीता के महलों में न रहने और जंगलों में राम के साथ भटकने के बारे में पति-पत्नी में पहले बात नहीं हो चुकी होगी? यहीं से साफ हो जाता है कि इस फिल्म को लिखने-बनाने वाले आगे चल कर अपनी मनमर्ज़ियां करने वाले हैं। ये लोग वे नहीं दिखाने वाले हैं जिसे आप देखना चाहते हैं, बल्कि ये लोग वे दिखाएंगे जिसे ये दिखाना चाहते हैं। कह सकते हैं कि हर लेखक-रचनाकार को यह स्वतंत्रता है कि वह अपनी कृति के प्रवाह को जिस तरफ चाहे मोड़े, अपनी रची कहानी को जैसे चाहे दिखाए, तो फिर हाय-तौबा क्यों? आइए जानते हैं।
लेकिन उससे पहले एक सवाल। जब एक आम दर्शक को रामकथा और रामायण के बारे में सब पता है, मोटे तौर पर बुजुर्गों से, मध्यम तौर पर फिल्मों व टी.वी. धारावाहिकों से और बारीक तौर पर सीधे धर्मग्रंथों से सब जानने के बावजूद राम पर आधारित किसी फिल्म में हमारी दिलचस्पी आखिर हो भी तो क्यों? जवाब सीधा और सरल है कि राम और उनकी कथा के प्रति हमारी आसक्ति है। जानते हुए भी हम उसे बार-बार देखना चाहते हैं, समझते हुए भी हम उसे बार-बार समझना चाहते हैं। और यदि कोई फिल्मकार उस कथा को एक नएपन, उसके किरदारों को एक नई नजर और उसके रूपांतरण को एक नई तकनीक के ज़रिए हमें दिखाना चाहता है तो हम उसका भी स्वागत करेंगे, बशर्ते कि उसकी यह फिल्म हमारे मन में बसी राम की छवि और उनकी कथा के भावों के अनुरूप हो। मगर क्या यह फिल्म ऐसा कर पाई? आइए जानते हैं।
पहले तो यही जान लीजिए कि लेखक ओम राउत ने पूरी रामकथा नहीं कही है, उन्होंने मोटे तौर पर सीता के रावण द्वारा हरण से लेकर रावण के मारे जाने तक को ही अपनी कहानी में समेटा है। इस दौरान आए चरित्रों को उन्होंने एक अलग नज़र से देखने और दिखाने का प्रयास किया है। मसलन, इस फिल्म में राम नहीं राघव हैं, सीता नहीं जानकी हैं और लक्ष्मण को शेष कहा गया है। सही है कि इन तीनों के ये भी नाम हैं लेकिन राम की कथा में इन नामों को कभी प्रमुखता नहीं दी गई और यह फिल्म भी इन नामों पर कोई कारण या तर्क नहीं देती है। इस किस्म की मनमानियां ओम राउत ने पूरी फिल्म में की हैं। वानर सेना व सुग्रीव, अंगद आदि को वानर जाति का नहीं बल्कि सचमुच के बंदर-लंगूर के तौर पर दिखाना, उनके राज्य को गुफाओं का समूह दिखाना, रावण की लंका को स्याह रंग में दिखाना, चमगादड़ों की सेना, सांपों से मालिश जैसी चीज़ें उन दर्शकों को नहीं जंच सकतीं जिनके मन में रामायण की एक छवि सदियों से बसी चली आ रही है। तो फिर ये नए प्रयोग क्यों? आइए जानते हैं।
मुमकिन है इन सब के द्वारा लेखक-निर्देशक एक नए किस्म का नैरेटिव तय करने में जुटे हों। जहां अधर्म का वास हो, उस लंका को स्याह दिखाना एक रूपक हो सकता है। सीता का हरण करके एक विशाल भयावह पक्षी की पीठ पर ले जाना और रावण के मरने के बाद उजले पुष्पक विमान का प्रकट होना एक रचनाकार की स्वंतत्र अभिव्यक्ति का परिचायक हो सकता है। लेकिन यह रचनाकार अपने इस करतब के बारे में दर्शकों को कुछ समझाए तो सही, कुछ बताए तो सही कि जो हो रहा है, उसके पीछे की सोच क्या हैं। और इसके चलताऊ संवाद, उनके लिए भला क्या कारण हो सकते हैं? आइए जानते हैं।
मनोज मुंतशिर शुक्ला के लिखे संवादों की प्रशंसा हम लोग ‘बाहुबली’ देखते समय कर चुके हैं। तो क्या कारण हो सकता है कि वह राम जैसे नायक की कहानी में सड़कछाप भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं? मुमकिन है कि ‘हमारी बहनों को उठाने वाले’, ‘भारत की बेटी पर बुरी नज़र डालने वाले’ जैसे संवादों से वह भी अपना कोई एजेंडा तय कर रहे हों। मुमकिन है इन बचकाने संवादों से उनका इरादा बचकानों (या बच्चों) को लुभाने का रहा हो। लेकिन फिल्म ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं देती और इसीलिए इस फिल्म के संवाद राम की कथा के गाढ़ेपन को हल्का करते हुए दर्शक को चुभते हैं, पीड़ा देते हैं। और यह चुभन, यह पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब दर्शक को सामने पर्दे पर दिख रहे किरदारों से भी वह जुड़ाव महसूस नहीं हो पाता जिसकी उसे आस थी। जिस राम को देख कर श्रद्धा उत्पन्न हो, जिस लक्ष्मण को देख कर भ्रातृ-प्रेम की अनुभूति हो, जिस हनुमान को देख कर मन में भक्ति का सागर हिलोरे ले, वह इस फिल्म को देखते हुए महसूस नहीं होता। उस पर से कलाकारों ने इन चरित्रों को उठाने का कितना प्रयास किया? आइए जानते हैं।
प्रभास को हमने बाहुबली के तौर पर प्यार किया है, मान दिया है। उन्हें हम राम की प्रचलित छवि से अलग मूंछों वाले राम के तौर पर भी सह लें लेकिन वह दृश्यों की मांग के अनुसार आवश्यक भाव दिखा पाने में कई जगह नाकाम रहे। उन्हें देख कर मस्तक नत नहीं होता। सीता बनीं कृति सैनन फिर भी सही रहीं लेकिन लक्ष्मण के रोल में सन्नी सिंह उतने ही बचकाने लगे जितने मेघनाद के किरदार में वत्सल शेठ। रावण बने सैफ अली खान या हनुमान बने देवदत्ता नागे भी बस चल गए, जमे नहीं। ऊपर से जिन कम्प्यूटर ग्राफिक्स और वी.एफ.एक्स की खूब चर्चा थी और जिन पर करोड़ों का खर्चा भी किया गया वे अच्छे होने के बावजूद कथ्य व किरदारों की कमज़ोरी के चलते बचकाने लगते रहे। गीत-संगीत कहीं अच्छा तो कहीं कमज़ोर की श्रेणी में रहा। ज़्यादातर स्याह रंग में रंगी फिल्म उदास-निराश करती रही, सो अलग। तो फिर यह फिल्म देखी जाए या नहीं? आइए जानते हैं।
इस किस्म की फिल्म बनाना असल में उस पैसे और उन संसाधनों की बर्बादी तो है ही जो एक निर्माता किसी रचनाकार को मुहैया कराता है, साथ ही यह उन दर्शकों से भी विश्वासघात है जो आप पर भरोसा करते हैं कि आप ‘उनके’ राम की कथा के साथ न्याय करेंगे। तो, इस फिल्म को या तो पूरी तरह से राम-भक्त बन कर देखें-बिना कोई मीनमेख निकाले, राममय हो कर। या फिर इस फिल्म को दुत्कार दें ताकि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता’ की आड़ लेकर फिर कभी कोई ओम राउत या मनोज मुंतशिर शुक्ला हमारी भावनाओं को न कुचल सके क्योंकि यह फिल्म जो दिखाती है, वह और कुछ भले ही हो, राम की कथा नहीं है। और हां, इस फिल्म का नाम भी इस पर फिट नहीं बैठ रहा है। राम ‘मर्यादा पुरुष’ अवश्य थे, ‘आदिपुरुष’ नहीं थे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-16 June, 2023 on theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Director ne ye movie sirf business ke purpose se bnai h
Aisi movies business bhut accha krti h
बहुत ही उम्दाह किस्म का रिव्यु…और इसी तरह के रिव्यु की आपसे अपेक्षा भी थी..
आपके रिव्यु का “शीर्षक ” ही इस फ़िल्म की सम्पूर्ण पटकथा का निचोड़ है….
फ़िल्म श्री राम मर्यादा पुरषोत्तम पर कम बल्कि एक राजनैतिक स्वार्थ को सिद्ध करने हेतु बनाई गयी है… श्री हनुमान जी के मुख से “तेल…. तेरा बाप…. इत्यादि छिछोरे और असामाजिक शब्दों को बुलवाना ये दर्शाता है कि कोई फ़िल्म निर्देशक और लिखने वाले अपने निनी राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध हेतु किस हद तक गिर सकते है….
डायलॉग लिखने वाले को ये नहीं मालूम की ये मूवी एक धार्मिक प्रवृति की है न कि टपोरी और छपरी डायलॉग बाजी की….
रिव्यु ******* 7 स्टार केटेगरी का है..
धन्यवाद