-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
2012 में रिलीज़ हुई इस सीरिज़ की पहली फिल्म का नाम ‘ओएमजी-ओह माई गॉड’ था जिसमें धर्म के नाम पर खुली दुकानों और लोगों की आस्थाओं का कारोबार करने वालों पर तीखी टिप्पणियां थीं। उस फिल्म में अक्षय कुमार वासुदेव कृष्ण की भूमिका में थे। विरोध के छुटपुट स्वर उस फिल्म को लेकर भी उठे थे लेकिन समझदार लोगों ने उस फिल्म को पसंद किया था, सही बताया था। (रिव्यू-सोच बदलेगी…? ओह माई गॉड…!) वक्त बदला। आज माहौल थोड़ा अलग है। इसीलिए इस फिल्म को सिर्फ ‘ओएमजी 2’ नाम दिया गया है। अक्षय कुमार भी इसमें शिव नहीं बल्कि शिव के भेजे एक गण बने हैं।
महाकाल की नगरी उज्जैन में मंदिर के बाहर पूजा सामग्री की दुकान चलाने वाले शिव के अनन्य भक्त कांति शरण मुद्गल का किशोर उम्र बेटा विवेक सैक्स को लेकर उपजी उत्सुकता और भ्रांतियों के चलते स्कूल के टॉयलेट में जो हरकत करता है, कुछ लड़के उसका वीडियो बना कर वायरल कर देते हैं। उसकी इस ‘गलत’ हरकत के कारण उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। अब शिव का भक्त मदद के लिए पुकारेगा तो शिव को ही। और महादेव अपने एक गण को उसकी मदद के लिए भेज देते हैं जिसकी सलाह पर कांति भाई उस स्कूल, सड़क छाप हकीमों, दवा की दुकान के मालिक और खुद अपने पर भी इस बात के लिए केस कर देता है कि समाज के जिन लोगों (अध्यापक, पेरेंट्स आदि) पर बच्चों को सही ज्ञान देने का ज़िम्मा था, यदि उन्होंने उस ज़िम्मेदारी को निभाया होता तो उसका बेटा गलत कदम नहीं उठाता।
यौन-शिक्षा यानी सैक्स-एजुकेशन पर हमारे समाज में बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन कितने पेरेंट्स या टीचर्स हैं जो इस पर खुल कर अपने बच्चों या छात्रों से बात कर पाते हैं? हमारी फिल्मों ने भी इस मुद्दे को गाहे-बगाहे उठाया है कि बच्चों के पास जब सही और गलत का ज्ञान होगा तभी तो उनमें यह विवेक आएगा कि सही को चुनना है और गलत व गलती, दोनों से बचना है। हाल-फिलहाल में ही देखें तो ज़ी-5 पर आई ‘छतरीवाली’ में यह मुद्दा भी था। लेकिन वह फिल्म कमज़ोर लेखन का शिकार होकर क्रांति और भ्रांति के बीच फंस गई थी। (रिव्यू-क्रांति और भ्रांति के बीच फंसी ‘छतरीवाली’) इस नज़र से देखें तो ‘ओएमजी 2’ हिन्दी सिनेमा के इतिहास में सैक्स-एजुकेशन पर बनी अब तक की सबसे साहसिक, ज़रूरी और सधी हुई फिल्म है जो बिना किसी फूहड़ता के बता जाती है कि जिस ‘काम’ को हमारी संस्कृति के चार प्रमुख स्तंभों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में गिना गया है उस पर न तो बात करना गलत है और न ही उसके बारे में नई पीढ़ी को ज्ञान देना। क्योंकि जो सत्य है, वही सुंदर और शिव भी है। उससे मुंह भले ही मोड़ लिया जाए, उसे नकारा तो नहीं जा सकता न।
हर माता-पिता अपने बच्चों से हर विषय, खासतौर से यौन-शिक्षा पर बात कर नहीं कर पाता। यहीं से स्कूल की, अध्यापकों की भूमिका सामने आती है। लेकिन यदि वही अध्यापक उनकी इस ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा को ‘अश्लील’ और स्कूल उसे ‘अपराध’ करार दे दे तो…? कांति भाई का यह केस इसी के खिलाफ है। अपने इस कार्य को अंजाम देते हुए कांति भाई कई जगह अटकता है लेकिन हर बार महादेव का भेजा वह गण आकर उसे कोई न कोई ऐसी सीख दे जाता है कि कांति की राह रोशन हो उठती है।
फिल्म यह भी बताती है कि कैसे एक ऐसा ज़रूरी विषय हमारी शिक्षा पद्धति से दूर कर दिया गया जो सदियों से इस देश की ज्ञान-प्रक्रिया का अंग रहा है। यह बताते हुए फिल्म का कहीं भी फूहड़ न होना और बार-बार तालियां बजवा ले जाना असल में बतौर लेखक अमित राय की सफलता है। वही अमित राय जिन्होंने 2009 में आई ‘रोड टू संगम’ से अपने कौशल का लोहा मनवाया था। इस फिल्म में अमित ने बतौर निर्देशक भी बेहद सधा हुआ काम किया है। दो दर्जन से भी ज़्यादा कट लगने के बावजूद इसे देखते हुए कोई अटकन-खटकन नहीं होती। और कई दृश्य तो अमित ने ऐसे बनाए हैं कि आंखें नम हो उठती हैं और मन वाह-वाह कर उठता है। खासतौर से भरी अदालत में एक सैक्स-वर्कर को कांति भाई का नतमस्तक होकर प्रणाम करना हमारी सभ्यता के उस चरम को दिखाता है जिसे बचाने के लिए इन दिनों कई लोगों ने झंडे और डंडे उठा रखे हैं।
अक्षय कुमार हालांकि ‘अक्षय कुमार’ ही लगे हैं लेकिन इस छोटी-सी भूमिका में वह बेहद जंचे हैं। अभिनय के लिहाज़ से यह फिल्म पंकज त्रिपाठी और यामी गौतम की है। पंकज कुछ एक जगह साधारण रहने के बाद कई सारे दृश्यों में अपनी प्रतिभा का बेहद प्रभावी प्रदर्शन कर गए। लेकिन उन्हें उज्जैन में राजस्थानी उच्चारण वाली बोली क्यों दी गई, यह समझ से परे है। और पूरी फिल्म में एक वही है जो इस उच्चारण में बोल रहे है। बेहतर होता कि बाकी सब की तरह उनसे भी सीधी हिन्दी बुलवाई जाती। यामी गौतम के अभिनय में आया निखार महसूस होता है। अंग्रेज़ी के आदी रहे जज के किरदार में पवन मल्होत्रा एक अलग ही अंदाज़ में दिखे और जंचे। अरुण गोविल, गोविंद नामदेव, पराग छापेकर, बृजेंद्र काला व अन्य सहायक कलाकारों का काम सराहनीय रहा। पंकज त्रिपाठी के बेटे विवेक की भूमिका के हावभाव आरुष वर्मा ने बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रदर्शित किए। गीत-संगीत औसत रहा। ‘ऊंची-ऊंची वादी में बसते हैं भोले शंकर…’ की धुन में ‘पहाड़ी’ टच है, बेहतर होता कि फिल्म के माहौल के मुताबिक उज्जैन के आसपास का संगीत पकड़ा जाता।
सैंसर बोर्ड की बलिहारी कि जिस फिल्म को किशोरों को दिखाए जाने की वकालत होनी चाहिए, उसे ‘ए’ सर्टिफिकेट देकर बांध दिया गया है। अब होना यह चाहिए कि (1) इस फिल्म का विरोध करने वाले सैंसर सदस्यों की ससम्मान विदाई कर दी जाए (2) हो सके तो इसे ‘यू-ए’ सर्टिफिकेट दिया जाए (3) फिलहाल पेरेंट्स व टीचर्स इसे ज़रूर देखें और कुछ समय बाद जब यह जियो सिनेमा पर आए तो इसे बढ़ती उम्र के बच्चों को भी दिखाया जाए क्योंकि जो बातें कई बार पेरेंट्स, टीचर्स, स्कूल या किताबें नहीं कह पातीं, उन्हें सिनेमा कह जाता है-बड़े कायदे से, बड़े असरदार ढंग से। और हां, अगर इस फिल्म का ट्रेलर देख कर किसी की भावनाएं आहत हुई हों तो उन्हें सलाह है कि जाकर इस पूरी फिल्म को देखें। आपको अपनी आस्था पर, अपने विश्वास पर गर्व होगा। बाकी, बचकानी मानसिकता वालों के लिए बाज़ार में बचकानी फिल्मों की कोई कमी तो है नहीं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 August, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
apne bhut hi bari ki se review kia h
👏👏👏👏
धन्यवाद…
एक बेहतरीन रिव्यु और जिस टॉपिक पर ये फ़िल्म बनाई गयी है वो जबरदस्त है…वाकई काबिले तारीफ….
धन्यवाद…