-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
जून, 2001 की तपती गर्मियों में जब ‘गदर-एक प्रेमकथा’ (रिव्यू-मनोरंजक और दमदार ‘गदर-एक प्रेम कथा’) आई थी तब किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि अपने बेटे के साथ पाकिस्तान में घुस कर वहां का हैंडपंप उखाड़ कर अपने बेटे की मां सकीना को वापस हिन्दुस्तान लाने वाला ट्रक ड्राइवर तारा सिंह एक दिन वापस पाकिस्तान जाएगा और इस बार बिना हैंडपंप उखाड़े वहां वालों की ईंटें बजा देगा। दरअसल हमारे यहां तय कर के सीक्वेल तो बनते नहीं हैं। अब चूंकि पिछली वाली ‘गदर’ हिट हो गई थी और डायरेक्टर अनिल शर्मा का बेटा उत्कर्ष शर्मा (जो ‘गदर’ में सनी-अमीषा का बेटा बना था) बतौर हीरो आई अपनी पहली फिल्म ‘जीनियस’ (2018) में फ्लॉप हो चुका था, सो यह तय किया गया कि इस बार उत्कर्ष को सनी पा’जी के चौड़े कंधों और ‘गदर’ के रॉकेट पर बिठा कर री-लांच किया जाए, भले ही इसके लिए 2001 की फिल्म का सीक्वेल 22 साल बाद बनाना पड़े। वैसे लगे हाथ यह भी बता दूं कि अपने यहां दो सीक्वेल के बीच का सबसे लंबा फासला देव आनंद साहब की ‘ज्वैल थीफ’ (1967) के 29 साल बाद 1996 में आई ‘रिर्टन ऑफ ज्वैल थीफ’ में था। खैर, आइए नज़ारा-ए-गदर देखते हैं जिसका ऑफिशियल नाम ‘गदर 2-द कथा कन्टिन्यूज़’ है और जिसके अंत में अगले भाग की संभावना भी छोड़ी गई है।
1971 का समय है। अमृतसर छोड़ कर तारा सिंह अब पठानकोट में बस चुका है। बड़ा घर है, अभी भी सुंदर दिखती सकीना मैडम है, बड़ा हो चुका बेटा है जो पढ़ाई से ज़्यादा नाटक-एक्टिंग का शौक रखता है। लेकिन तारा अभी भी ट्रक ही चलाता है। पंजाबी वह पहले से ज़्यादा बोलने लगा है। हां, है वह फिट और हैंडसम। तो एक दिन नज़दीकी चौकी पर हुए पाकिस्तानी हमले में हिन्दुस्तानी फौजियों को सामान पहुंचाते हुए कुछ फौजी और ट्रक ड्राइवरों को पाकिस्तान वाले कैद कर लेते हैं। तारा सिंह भी गायब है। उसकी तलाश में उसका बेटा फर्ज़ी तरीके से पाकिस्तान में जा पहुंचता है लेकिन पकड़ा जाता है। अब तारा सिंह कैसे उसे और खुद को पाकिस्तान से वापस लाता है, यह पता तो हम सब को है, लेकिन इसे देखने का मज़ा पर्दे पर ही है।
पिछली वाली ‘गदर’ में लेखक शक्तिमान ने रोचकता, भावुकता और मनोरंजन का संतुलित संगम परोसा था। वहीं बतौर निर्देशक अनिल शर्मा ने सिनेमाई कलात्मकता और मसालों का एक बढ़िया मिश्रण तैयार था। वह फिल्म कहने भर को भी कहीं से कमज़ोर नहीं थी। लेकिन इस बार चूंकि फिल्म बनाने वालों का मकसद सीधे-सीधे ‘गदर’ और सनी के जलवे को भुना कर उत्कर्ष को लोगों की नज़रों में चढ़ाना था सो शक्तिमान ने ‘गदर’ के सारे मसालों को लेते हुए उनकी खुराक बढ़ा दी और अनिल शर्मा ने उन मसालों की खुराक से एक ऐसा चटपटा घोल तैयार कर दिया जिसे किसी को भी पिला दो तो वह दो-चार दिन तक तो ‘हिन्दुस्तान-पाकिस्तान’ ही करता रहेगा। लेकिन इस चक्कर में इन लोगों ने न तो संतुलन पर ध्यान दिया और न ही कलात्मकता पर। और इसीलिए यह एक ऐसी ‘ऐलान-ए-जंग’ टाइप फिल्म बन कर रह गई है जैसी सनी देओल के पिता धरम पा’जी ने अपने कैरियर के उतार पर ढेरों की तादाद में की थीं। सनी उस राह पर न ही चलें तो बेहतर होगा।
फिल्म की स्क्रिप्ट में ढेर सारा ‘गदर-इफैक्ट’ है। पुरानी बातों से नाता जोड़ा गया है। पुराने पात्रों से रिश्ता कायम किया गया है। पुराने गीत-संगीत का बार-बार इस्तेमाल किया गया है। और जब तक यह होता रहता है, फिल्म अच्छी भी लगती रहती है। लेकिन जब-जब फिल्म में कुछ नया करने की कोशिश होती है, कोई नया गीत लाया जाता है या जब इसे उत्कर्ष के हवाले किया जाता है, यह फिसल कर फैल जाती है।
हाल के बरसों में हिन्दी सिनेमा में स्क्रिप्ट लेखन और निर्देशन, दोनों की शैलियों में बदलाव आया है। लेकिन इस फिल्म का अंदाज़-ए-बयां वहीं पुराने किस्म का है। यह तो शुक्र है कि हमारे दिलों में पाकिस्तान के प्रति नफरतें और बढ़ चली हैं और इसलिए यह फिल्म देखते हुए मज़ा आता है। लेकिन यह मज़ा तब-तब ही आता है जब-जब पर्दे पर तारा सिंह और उसके ढाई-ढाई किलों के हाथों के कारनामे दिखते हैं। सनी असरदार भी रहे हैं। पूरी फिल्म उन्हीं के कंधों पर है। अमीषा खूबसरत लगीं। उत्कर्ष शर्मा को अभी और मैच्योर होना है। नई लड़की सिमरत कौर भी कच्ची हैं। मनीष वधवा ने बतौर खलनायक अमरीश पुरी सरीखा तो नहीं, लेकिन असर छोड़ा है। राकेश बेदी, मुश्ताक खान, डॉली बिंद्रा, गौरव चोपड़ा, अनिल जॉर्ज, मनोज बक्षी आदि जंचे। शत्रुघ्न सिन्हा जैसे स्टार के बेटे और सोनाक्षी सिन्हा जैसी स्टार के भाई लव सिन्हा भी हैं फिल्म में। पहचान सकें तो बताइएगा। पुराने गाने तो शानदार हैं ही, नए गानों में से सईद कादरी की गज़ल ‘चल तेरे इश्क में…’ उम्दा है। फिल्म की लंबाई कुछ जगह अखरती है।
इस फिल्म में पुराने ज़माने वाला धमाकेदार एक्शन है। चीख-चिल्लाहट, शोर-शराबा, गोली-धमाका है। सनी देओल का जलवा है। पाकिस्तान विरोध की हवा है। बीच-बीच में गीता के श्लोक और वंदे मातरम का तड़का है। पुरानी ‘गदर’ की गहरी छाया तो है ही जिसे नई पीढ़ी के साथ-साथ पुरानी पीढ़ी भी एन्जॉय करेगी। और जब इतने सारे मसाले हों तो देर किस बात की। चलिए चटखारे लेते हैं, उंगलियां चाटते हैं। कभी-कभी जंक भी खाना चाहिए, हाजमा दुरुस्त रहता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 August, 2023 on theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
मतलब समीक्षकों वाली नहीं जनता जनार्दन की फिल्म है 😜
कुछ भी हो अंदाज ए बयां तो गजब ही है पा ‘जी आपका 😍
धन्यवाद…
Movie me dum hai
Bhut hi shandar h apki baten sidhe man me utarti hai esa lg rha hai mano sunny paji story bta rhe hai thank u deepak paji
धन्यवाद, आभार…
एकदम सटीक एवं कम्पलीट रिव्यु…
फ़िल्म देखी और मज़ा भी आया…. और मनोरंजन के हिसाब से पाकिस्तान से तारा सिंह जी को अपने बेटे को बचा कर लाना हमारी तय शुदा मन में पैदा हुई अनूठी कहानी का अंत अच्छा है…शर्मा जी कुछ करेंगे तो तभी तो निखरेंगे…कोई उनको मौका ही नहीं देता….
सही कहा आपने, वाकई ये पुराने ग़दर की आगे की कहानी है जिसे सनी पाजी अपने बल पर खींच ले गए. ऐसा लग रहा था जैसे 90 का दशक वापस आ गया हो वही दर्शकों का उत्साह और सीटियां बजाते लोग हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे मज़ा आ गया.