-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
कोलकाता के एक हॉस्पिटल में एक अफसर एडमिट है। आत्महत्या करते हुए बच गया था वह। अब उसे कुछ बातें याद हैं और कुछ नहीं। उसकी बेटी, महिला-मित्र, ऑफिस के लोग वहां आ-आकर उसे उसकी पिछली ज़िंदगी की बातें बताते हैं कि कैसे वह करोड़ों के एक घोटाले की तफ्तीश कर रहा था और कैसे उसने आत्महत्या करने की कोशिश की, ताकि उसे कुछ याद आ सके। इन्हीं में से कुछ का मानना है कि उस जैसा परफैक्ट इंसान आत्महत्या कर ही नहीं सकता, करता तो बचता नहीं। अपनी सीमित याद्दाश्त के बावजूद वह धीरे-धीरे इन सब लोगों की सुनाई कहानियों के तार जोड़ते हुए एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचता है जिससे उस घोटाले का पर्दाफाश होता है।
कोलकाता का बैकग्राउंड और एक केस का रहस्य-अपने कलेवर में यह फिल्म विद्या बालन वाली ‘कहानी’ सरीखी लगती है। ‘कहानी’ वाले रितेश शाह ने ही लिखा भी है इसे। लेकिन यह उसके आसपास भी नहीं है। असल में इस किस्म की फिल्म में जिस स्तर का रहस्य-रोमांच होना चाहिए था, वह इसमें से लापता है। जिस केस की तफ्तीश हो रही है, उसे लेकर फिल्म के अंदर भले ही शोर मच रहा हो, उसे देखते हुए दर्शक को सिहरन नहीं होती। केस के मोड़ों का अंदाज़ा पहले होने लगता है और फिल्म अपनी कसावट में कमी व भटकाव में अति के चलते बांध नहीं पाती। कहानी कहने का जो तरीका इसमें अपनाया गया है उससे यह बार-बार आगे-पीछे जाकर कन्फ्यूज़न पैदा करती है, सो अलग।
(रिव्यू-उलझे ताने-बाने सुलझाती ‘कहानी’)
निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी इससे पहले हिन्दी में ‘पिंक’ व ‘लॉस्ट’ जैसी फिल्में दे चुके हैं लेकिन जहां ‘पिंक’ उनकी एक बेहतरीन कृति थी और ‘लॉस्ट’ उलझे हुए कथानक के बावजूद असरदार थी वहीं ‘कड़क सिंह’ अपने रूखेपन और उलझाव के चलते कमज़ोर रह गई है। निर्देशक ने घटनाओं की बजाय बातों का सहारा ज़्यादा लिया और कहानी कहने के तरीके में उलझन लाकर इसे हल्का बना दिया। केस और हत्या-आत्महत्या के थ्रिल की बजाय कहानी को परिवार में ज़्यादा घुमाया गया। कोलकाता शहर जहां ‘कहानी’ में एक किरदार की भांति था वहीं इस फिल्म में कोलकाता की महक महसूस ही नहीं होती। किरदारों को भी मजबूती से खड़ा नहीं किया गया जिससे अधिकांश चरित्र पराए-से लगते हैं।
(रिव्यू-यह ‘पिंक’ गुलाबी नहीं है)
(रिव्यू-उलझे हुए सच की तलाश में खोई ‘लॉस्ट’)
पंकज त्रिपाठी सध कर काम करते हैं, इस बार भी किया है। एक्शन से अधिक अपने चेहरे के भावों से उन्होंने अपने किरदार को उठाया है। उनकी बेटी के किरदार में संजना सांघी प्यारी तो लगीं लेकिन प्रभावी नहीं। संजना भाव-प्रदर्शन के मामले में अभी कच्ची हैं। जया अहसान, पार्वती तिरुवोथु, परेश आहूजा, वरुण बुद्धदेव, दिलीप शंकर जैसे कलाकार ठीक-ठाक रहे। कुछ ज़्यादा दमदार कलाकार इस फिल्म को अधिक वजनी बना सकते थे। गीत-संगीत हल्का रहा।
फिल्म के अंत में कड़क सिंह सभी को बुला कर एक कहानी सुनाने लगता है तो उसकी नर्स कहती है-सीधे प्वाईंट पर आओ न। ज़ी-5 पर आई यह फिल्म भी इसी भटकाव का शिकार हुई है। दो घंटे की फिल्म सवा घंटे बाद प्वाईंट पर आती है। कुछ और कड़कपन के साथ इस फिल्म की स्क्रिप्ट और किरदारों पर काम किया जाता तो ‘कड़क सिंह’ कुछ ज़्यादा कड़क मनोरंजन दे पाती।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-08 December, 2023 on Zee-5
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Bhut hi badia kadak singh
Ek bar kadak singh ko bhi ye review bhej dena
नाम बड़े और दर्शन छोटे…. इस फ़िल्म क़े लिए यही जुमला काफी है….जहाँ त्रिपाठी जी अपने ‘काम ‘ कि वजह से जाने जाते हैँ…वहीँ इस फ़िल्म में फीके लगे… फ़िल्म निर्माताओं को देखना चाहिए कि फ़िल्म नाम से नहीं… काम से चलती है…