-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक हीरो-दिल का सच्चा, कर्मों का अच्छा, हर किसी की मदद करने वाला, निर्बलों का रखवाला, बड़े दिलवाला। एक विलेन-ताकतवर मंत्री, पैसे वाला, कानून को जेब में रखने वाला, पुलिस को इशारों पर नचाने वाला, गुंडों को पालने वाला। इन दोनों में किसी तरह से दुश्मनी हो जाए तो क्या ज़बर्दस्त एक्शन देखने को मिलेगा न…!
वाह-वाह बहुत बढ़िया, लेकिन कैसे कराओगे इनकी दुश्मनी? वह सब आप हम पर छोड़ दीजिए भाई जान, हमारे स्क्रिप्ट राइटर जान लगा देंगे। कहानी में चाहे कोई लॉजिक न डालें, किरदारों में चाहे कोई दम न डालें, फिल्म में एंटरटेनमैंट के नाम पर भले ही फलूदा डालना पड़े, पब्लिक चाहे अपनी छाती के बाल नोच ले लेकिन पर्दे पर होगा तो सिर्फ-तेरा ही जलवा, जलवा, जलवा…!
यह हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि यहां के अधिकांश बड़े सितारे या तो देसी-विदेशी फिल्मों के रीमेक में काम कर रहे हैं या फिर दक्षिण भारतीय निर्देशकों की इडली-डोसा स्टाइल में बनाई ऐसी फिल्मों में जिनमें कथ्य से ज़्यादा ज़ोर स्टाइल पर रहता है। फिल्म वालों ने दशकों पहले जिन बेसिर-पैर की एक्शन फिल्मों की अफीम चटा-चटा कर हिन्दी के दर्शकों की बुद्धि खराब की थी, अब फिर से वही सब परोस कर इन्हें मूर्ख बनाया जा रहा है और अफसोस इस बात पर ज़्यादा किया जाना चाहिए कि आज के दर्शक भी हंसी-खुशी मूर्ख बन रहे हैं। ‘सिकंदर’ (Sikandar) भी यही करने आई है। जाइए, देखिए, बनिए, हमें क्या…!
यह सही है कि ईद पर सलमान खान की फिल्म आए तो उसमें मीनमेख निकालना गुनाह-ए-अज़ीम हो जाता है। सलमान खान के अंधभक्तों की भेड़ सरीखी भीड़ इतनी विशाल है कि इस मौके पर आई सलमान की ‘कैसी भी’ फिल्म को वह पार लगा ही देती है। लेकिन क्या खुद सलमान या उनके सो-कॉल्ड ‘शुभचिंतक’ कभी यह आकलन नहीं करते होंगे कि भाईजान की फिल्मों का कंटेंट लगातार कचरात्मक होता जा रहा है और उन्हें अब संभल कर कदम रखना चाहिए? इस फिल्म (Sikandar) में कहानी के नाम पर जो नमक का घोल परोसा गया है और स्क्रिप्ट के नाम पर जो कच्ची लस्सी बिलोई गई है, क्या उसे किसी ने भी पहले नहीं चखा होगा? तुर्रा यह कि भाईजान उन सलीम साहब के बेटे हैं जिनकी लिखी कई स्क्रिप्टें दूसरे लेखकों के लिए सबक बन चुकी हैं। खैर, जब हीरो और उसके करीबियों को ही अपनी इज़्ज़त की फिक्र नहीं तो दूर दिल्ली में बैठा एक क्रिटिक इनकी चिंता में क्यों दुबला हो…!
कई सारे लोगों की ‘मेहनत’ से लिखी गई इस फिल्म (Sikandar) की स्क्रिप्ट में इतने सारे झोल, इतना सारा बनावटीपन और इतनी सारी नासमझियां हैं कि हल्का-सा दिमाग लगाते ही इनकी चड्डी के छेद दिखने लगते हैं। घटनाओं का प्रवाह हो या चरित्रों की बुनावट, फिल्म बेहद उथली है, थोथी है, नकली है। कहीं-कहीं दो-एक पल को हौले-से इमोशनल करती इस फिल्म में रोमांस, रिश्तों की गर्माहट, कॉमेडी जैसे भाव नदारद हैं। कुछ देखने को है तो सिर्फ ऐसा फिल्मी एक्शन जिसमें एक घूंसे से आदमी फिज़िक्स-कैमिस्ट्री-बायोलॉजी भूल कर यहां-वहां गिरता-पड़ता रहता है। संवाद जबरन बनाए गए हैं ताकि ट्रेलर में बजाए जा सकें। किरदार और घटनाएं कुछ इस तरह से आगे-पीछे आते-जाते रहते हैं कि न तो टाइमलाइन से मैच करते हैं और न ही फिल्म की रफ्तार से। पर्दे पर कभी भी कुछ भी हो रहा है और इधर थिएटर में बैठा दर्शक अपनी टिकट के पैसे को रो रहा है। ए. मुरुगादोस जी, यह क्या हो रहा है…? क्या आपके भीतर का काबिल निर्देशक सो रहा है…!
एक्टिंग के नाम पर सलमान जो ‘करते’ हैं, उनसे वही करवाया गया है। ज़्यादा हिलना-डुलना उन्हें पसंद नहीं (या शायद अब उनके बस में नहीं रहा), ज़्यादा लंबे संवाद वह बोल नहीं पाते और देर तक उनके चेहरे पर कैमरा रहे तो एक्सप्रैशन्स की पोल खुलने लगती है। बाकी के कलाकारों की बात करें तो जिस फिल्म के पहले सीन में प्रतीक बब्बर जैसा लकड़ी का फट्टा दिखाई दे, उससे आप क्या ही उम्मीद लगाएंगे? संजय कपूर, नवाब शाह, जतिन सरना और शरमन जोशी तक को जूनियर आर्टिस्ट वाला काम मिला है। ‘बाहुबली’ वाले कटप्पा यानी सत्यराज और ‘कांतारा’ वाले फॉरेस्ट अफसर यानी किशोर को इस किस्म के किरदारों के लिए अपनी साख दांव पर नहीं लगानी चाहिए। रश्मिका मंदाना, काजल अग्रवाल आदि के चेहरे राहत देते हैं, भले ही इनके किरदार फीके हों।
लोकेशंस और सैट्स का बनावटीपन साफ दिखता है। गीत-संगीत फिल्म (Sikandar) की ही तरह चलताऊ है। गुजरात के राजकोट का राजा उर्दू गाने गा रहा है। बॉडीगार्ड्स की फौज लेकर चलने के बावजूद हर जगह अकेले भिड़े जा रहा है। हवाई जहाज के बिज़नेस क्लास में सफर करने वाला बंदा ट्रेन की सैकिंड क्लास में जा रहा है। डायरेक्टर पूरी फिल्म में भगवान के नाम पर सिर्फ साईं बाबा दिखा रहा है। सिर्फ गरीब लोग शरीफ हैं, बाकी अमीर-पुलिस-राजनेता सब बदमाश। आखिर यह कैसा एजेंडा परोसा जा रहा है? क्या आपको भी इसमें कुछ बू आ रहा है…!
‘सिकंदर’ (Sikandar) जैसी फिल्में हिन्दी सिनेमा की कब्र खोदने का काम करती हैं। आने दीजिए ऐसी फिल्मों को। जिस सिनेमा को बनाने वाले ही उसकी परवाह न करते हों, उसे बर्बाद हो ही जाना चाहिए। मुमकिन है उस बर्बादी के बाद कुछ ऐसा उपजे जो हिन्दी के सिनेमा को नव गति, नव लय, ताल, नव छंद दे सके…!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-30 March, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
हालांकि गूगल बाबा यह बता रहे है कि फिल्म की कहानी लिखते समय सलीम साहब से भी परामर्श लिए गए है। लेकिन कहानी देख कर ऐसा लगता नहीं है।
बहरहाल, आज समझ आता है कि मेरे पिता आज कल की मूवी को देख कर क्यों कहते थे कि यह भी भला कोई मूवी है, हालांकि देखते वह भी घातक जैसी मूवी ही थे
मगर मज़ा तो आता था जब काशी चिल्लाता था
“कसम गंगा मइय्या की, घर में घुस कर मारूंगा, सातों को साथ मारूंगा, एक साथ मारूंगा”
टीवी के सामने बैठे बैठे रौद्र रस की अनुभूति हो जाती थी
👏👏👏🙏
Bahut hi sahi baat boli h sir ji Aapne padh kar maza Aya ..Really suchi baat kahne ke liye jigra cahiye
One of the finest review for the worst movie 👍
धन्यवाद
Subash Ghai ji ka ek interview suna jisme woh bol rhe they ki humari Generation cinema ko maa samjhti thi.lekin ab cinema ko Draupadi samhja jata hai jiska jab chahe cheerharan kar dalo.aur audience ne najane kitne baras ish cheerharan ka maza liya.lekin ab jab unhe pta chalta hai k cheerharan draupadi ka nhi unka hota hai.to thoda change dikhne lga hai.lekin ab bhi Bollywood and Punjabi cinema me kuch ese kathith Guru Dutt baithe hain jo unh logon ko cinema me ghusne hi nhi dete jo acchi kahaniyan likh skate ho,bna sakte ho.lekin kab tak sirf stars ke naam par filme bikengi?
सर आपने बिल्कुल ही ठीक लिखा अपने तो फिर भी अच्छे शब्दों का चयन किया है मैं होता तो ना बहन से नीचे बात ही नहीं करता पागल हो गए हैं ये लोग कुछ भी बना रहे हैं
Achi h
One word और वह है महा बकवास बेवकूफी की इंतहा रियलिटी से कोई संतान संबंध नहीं दिन में दिमाग नहीं है वही देख सकता है 3 घंटे वीडियो में मार्क देने की बात हो तो माइंस में n नंबर है
धनिया बो दिए।
Mujhe movie dekhne k baad aisa laga Salman Khan , musalmano ko eid ki sevaiyan khilane ki mood me nahi balki hum hinduon ko holi ki badhaiyan dene aaye the
Probably a honest review
धन्यवाद
एक बिल्कुल घटिया स्तर की फिल्म है। मतलब क्या भाई। आप कुछ भी परोस दोगे और हम एक्सेप्ट कर लेंगे। आज के दौर में जब टिकट इतना महंगा है ऐसे घटिया मनोरंजन पर लानत भेजिए जनाब। आप सलमान है तो पब्लिक समझदार है। इससे तो अच्छा है कि डिप्लोमेट दुबारा देख ली होती। फिर भी अगर पैसे बर्बाद ही करने है तो हम कौन होते हैं आप को रोकने वाले।
Bakwas movie hai bilkul hi, inki akl ghutno me aa chuki hai
Deepak sahab apke sahas aur sachhai ko dhanyawad, gazab ki bat bahut hi achha nichod nikala hai apne poori movie ka. Salman khn ki movie aur vo bhi name sikander aur rileege eid par. Matalab muslimo ka tyohar, muslim actor, muslim name movie ka aur film dekhana hai sabhi ko, aur kuchh special ho to dekhe bhi , Sub kuchh har kuchh. Deepak ji isi tarah se review karte rahiye, apka experience gazab ka hai, apki bhasha se lagta hai, aap bahut achhe writter hain.
धन्यवाद
आपने सिकंदर को आईना दिखा कर अपने ईमानदार
लेखक और आपने हर कदम पर फिल्म के हर कोने पर
सही विश्लेषण किया है साधुवाद आपको
कपिल कुमार
बेल्जियम
धन्यवाद…