-दीपक दुआ…
काफी दिन पहले ही यह मन बना लिया था कि 13 जनवरी, 2025 से 26 फरवरी, 2025 तक चलने वाले महाकुंभ में पत्नी के साथ जाकर स्नान करना है। 2013 के कुंभ में एक मित्र के साथ गया था। तब रात की ट्रेन से चल कर सुबह प्रयागराज (तब यह इलाहाबाद हुआ करता था) पहुंचे थे। मित्र के एक स्थानीय परिचित की तरफ से मोटर साईकिल व ड्राईवर सहित कार की व्यवस्था हो गई थी। सुबह-सुबह त्रिवेणी संगम में नाव से जाकर स्नान करने, मेला क्षेत्र देखने, उसके बाद शहर के कई सारे स्थल घूमने और शाम को एक बार फिर मेला क्षेत्र में जाने के बाद हम रात की गाड़ी से दिल्ली लौट आए थे। इस बार भी यही करता यदि अकेला या किसी मित्र के साथ जाता। लेकिन पत्नी के घुटनों की समस्या और थकान से बचने के लिए वहां दो रात रुकने का इरादा किया और एक ऐसा प्लान बनाया जिससे बिना दिक्कत के हम लोग वहां घूम सकें। क्या था वह प्लान…?

सबसे पहले तो कैलेंडर देख कर ऐसी तारीखें तय कीं जब न तो कोई शाही स्नान हो और न ही शनिवार, रविवार या कोई छुट्टी। ज़्यादा भीड़ होगी तो दिक्कत भी ज़्यादा होगी, फिर हम इंतज़ाम को कोसते फिरेंगे। सो, काफी पहले ही जाने और आने का दिन तय कर के वंदे भारत ट्रेन की टिकटें बुक करवा लीं। अब सवाल था वहां ठहरने का। मालूम था कि मेला-क्षेत्र में मुफ्त रहा जा सकता है, लेकिन वहां के लिए खूब पैदल चलना होगा और दिक्कत भी होगी ही। यह भी पता ही था कि संगम के चाहे जितने नज़दीक रुका जाए, पैदल तो चलना ही होगा। तो क्यों न रेलवे स्टेशन के नज़दीक कमरा लिया जाए, कम से कम आने-जाने में तो सुविधा होगी। यही सोच कर गूगल मैप का सहारा लिया और देखा कि प्रयागराज जंक्शन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 यानी सिटी साइड (सिविल लाईन्स की ओर नहीं) की तरफ कई सारे होटल, लॉज आदि हैं। आम दिनों में 200 रुपए से एक हज़ार रुपए तक के ये कमरे महाकुंभ के दिनों में कई गुना महंगे दामों में मिल रहे थे। प्रयागराज के एक मित्र की सहायता ली जिन्होंने रेलवे स्टेशन के आसपास स्थित उन ढेरों होटलों में से दो-चार में जाकर मुझ से वीडियो कॉल पर बात कर के एक होटल में छोटा, मगर बढ़िया कमरा बुक करवा दिया।
22 जनवरी 2025, बुधवार को हम दोनों ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से दोपहर 3 बजे चलने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस के बेहद आरामदायक, सुविधाजनक, शानदार, साफ-सुथरे माहौल में अपनी यात्रा शुरू की। यह ट्रेन पिछले दो दिन से धुंध के चलते ढाई-तीन घंटे देर से जा रही थी लेकिन 22 जनवरी को बढ़िया धूप होने के कारण यह सही समय यानी 2 बज कर 5 मिनट पर नई दिल्ली के प्लेटफॉर्म नंबर 5 आ लगी और आधे घंटे में सफाई आदि से निबट कर चल पड़ी। एक सूटकेस में हमारा सामान आ गया था। एक बड़ा हैंडबैग रखा और एक खाली बैग भी फोल्ड कर के डाल लिया ताकि वापसी में प्रसाद, शॉपिंग-वॉपिंग का सामान आदि उसमें आ जाए। सही समय पर हम प्रयागराज पहुंचे। डिनर ट्रेन में हो ही गया था, सो रात सवा नौ बजे प्रयागराज जंक्शन स्टेशन के चकाचौंध माहौल, सुविधाजनक रैंप, साफ-सफाई, सुरक्षा के इंतज़ाम देखते, अचंभित होते, फोटो आदि खींचते, टहलते हुए अपने होटल जा पहुंचे और अगले दिन सुबह के लिए बैग लगा कर सो गए।
23 जनवरी 2025, गुरुवार की सुबह होटल से अपना हैंडबैग लेकर हम बाहर आ गए। जूतों की बजाय चप्पलें पहनीं, घर से लाए दो बड़े और हल्के तौलिए, गीले कपड़ों के लिए पॉलिथिन आदि याद से रख लिए। कपड़े वह पहने जिनमें हमें स्नान करना था। स्नान के बाद पहनने के लिए अंडर गारमेंट्स और ऐसे कम्फर्टेबल कपड़े बैग में रख लिए जिन्हें स्नान के बाद तुरंत चेंज किया जा सके। स्टेशन के निकट पूरी-सब्जी, समोसे-जलेबी और चाय का पैट्रोल भर के एक ई-रिक्शा रिज़र्व किया कि वह हमें कीड गंज स्थित बोट-क्लब ले चले। बोट-क्लब ही क्यों…?
दरअसल स्नान करने के लिए या तो आपको रेलवे स्टेशन से बाईं तरफ 7 किलोमीटर दूर ‘चुंगी’ नामक स्थान पर जाकर वहां से 4 किलोमीटर पैदल चल कर नदी किनारे पहुंचना होगा जिसके बाद या तो आप किनारे स्थित घाट पर स्नान करें या फिर नाव मिल जाए तो संगम के मध्य में जाकर। दूसरा रास्ता यह है कि आप स्टेशन से दाईं तरफ काटजू मार्ग से सीधे साढ़े चार किलोमीटर रिक्शा या ऑटो से कीडगंज बोट क्लब पर चले जाएं, नाव लें और सीधे संगम जाकर, स्नान करके, वापस बोट क्लब आ जाएं। इस तरीके से आपको बिल्कुल भी पैदल नहीं चलना होगा। हमने यही सोचा हुआ था और यही किया। 200 रुपए और 20 मिनट में ई-रिक्शा हमें कीड गंज में नए पुल के पास यमुना नदी स्थित बोट-क्लब ले गया। वहां बहुत सारी छोटी-बड़ी नावें थीं। बड़ी नाव वाले 200 से 800 के दाम में सवारियों को ले जा रहे थे। हमने एक छोटी नाव वाले से भाव-ताव किया और 1200 रुपए में ऐसी नाव रिज़र्व कर ली जिसमें सिर्फ हम दोनों पति-पत्नी और दो नाव चलाने वाले ही थे।
चप्पू वाली उस नाव पर आसपास के नज़ारे देखते हुए हम करीब 40 मिनट में त्रिवेणी संगम के मध्य में जा पहुंचे। रास्ते में पक्षियों के लिए दाना और जल भरने के लिए प्लास्टिक की कैन बेचने वाली नावें भी हमारे पास आती रहीं। यह सब और बिछाने के लिए प्लास्टिक की बड़ी शीट बेचने वाले बोट-क्लब पर भी बैठे होते हैं। ऑनलाइन पेमेंट कम लोग ले रहे थे, सो कैश और खासकर छोटे-बड़े, सभी तरह के नोट, सिक्के पास होने से हमें दिक्कत नहीं हुई। पक्षियों को दाना फेंकिए तो वह आपकी नाव के आसपास उड़ते रहते हैं। यमुना जी का साफ और बहता हुआ पानी देख हम दिल्ली वालों का हैरान होना स्वाभाविक था। देखा कि एक बड़ी मशीन नदी में घूम कर नदी को लगातार साफ कर रही है। कई नावों पर सुरक्षा गार्ड, पुलिस आदि भी थी। हर नाव पर हर यात्री को लाइफ-जैकेट पहनना अनिवार्य है। संगम के मध्य में कई बड़ी नावें आपस में बंधी हुई थीं। यह उन पुरोहितों की नावें थीं जो वहां पूजा-अर्चना करवाते हैं। इन नावों के पास मचान बंधे हुए थे जिनसे आप स्नान के लिए पानी में उतर सकते हैं। प्रशासन की ओर से भी यहां चेंजिंग रूम वाली तैरती हुई नावों का प्रबंध था। हमारे नाव वाले ने अपनी नाव वहां की बाकी नावों से सटा दी और नाव वाले के सहायक ने हमें एक नाव से दूसरी, दूसरी से तीसरी पर ले जाते हुए एक पुरोहित की नाव पर पहुंचा दिया। बैग और कपड़े नाव वाले भैया को पकड़ा कर पहले मैं पानी में उतरा। पानी घुटनों तक ही था, नीचे रेत का मैदान। खूब डुबकियां लगाईं, इस दौरान पत्नी ने फोटो, वीडियो शूट करने का काम संभाला। आसपास हज़ारों लोग अकेले या अपने-अपने परिवार के साथ हर्ष-उल्लास के माहौल में नहाते हुए दिखे, कुछ लोग जल भर रहे थे तो कुछ नीचे से गीली रेत को किसी डिब्बे या बोतल में भर रहे थे। कुछ देर बाद मैंने वापस उस मचान पर आकर तौलिया बांधा और अपने कपड़े पहन लिए जिसके बाद पत्नी पानी में उतर गईं। नहाने से पहले और बाद में महिलाएं या तो प्रशासन की नाव पर जाकर कपड़े बदल रही थीं, या फिर पुरोहितों की नावों पर बंधे हुए प्लास्टिक के तरपाल के अंदर। कहीं परिवार के सदस्य अपने परिवार की महिलाओं के इर्द-गिर्द चादर पकड़ कर उन्हें कपड़े बदलने में सहायता कर रहे थे, यह देख कर बाकी लोग उनकी तरफ पीठ कर लेते थे। वहां कुछ लोग स्नान से पहले और बाद में पुरोहितों से पूजा-अर्चना आदि भी करवा रहे थे।
(पक्षियों वाला वीडियो इस लिंक पर क्लिक कर के देखें)
स्नान करने के बाद हम वापस अपनी नाव पर थे। हमने अपनी कैन में संगम का जल भरा और लगभग 40 मिनट बाद सुबह 11.30 बजे हम वापस बोट-क्लब पहुंच चुके थे। यहां गोलगप्पे, चाय-पकौड़े आदि लेने के बाद ई-रिक्शा से होटल लौटे। गीले कपड़े बाथरूम में टांगे और अपने कपड़े बदल, जूते पहन बाहर आ गए। दोपहर के ठीक 1 बजे थे। एक रेस्टोरेंट में लंच किया और एक ई-रिक्शा वाले से ‘चुंगी’ चलने को कहा। वह समझदार निकला और 150 रुपए में गलियों से होते हुए संगम की ओर जाने वाले रास्ते के जितने करीब ले जा सका, ले गया। अब हमें पैदल ही चलना था। कुंभ क्षेत्र के सैक्टर-1 में स्थित इस पैदल वाले रास्ते के दोनों तरफ खाने-पीने के ढेरों स्टाल और तरह-तरह की प्रदर्शनियों के पंडाल लगे हुए थे। वह ‘गंगा पंडाल’ भी, जहां प्रख्यात कलाकारों के कार्यक्रम होते हैं। दोपहर में वहां लोग आराम कर रहे थे। हम लोग किस्म-किस्म की चीज़ें खाते-पीते, उन प्रदर्शनियों को देखते, उनमें से बहुत सारी शॉपिंग करते, फोटो खींचते हुए चलते रहे। पैदल चलने का तो पता ही नहीं चल रहा था। हमारा इरादा था कि ‘बड़े हनुमान मंदिर’ चला जाए। यह मंदिर 2 बजे बंद होकर 5 बजे खुलता है। रास्ते में कुछ किशोर मिले जो सामान ले जाने वाले साईकिल-रिक्शा पर चटाई बिछा कर लोगों को ला-ले जा रहे थे। हम ने भी आखिरी का एक किलोमीटर रास्ता उन्हें 100 रुपए देकर तय किया। हनुमान मंदिर के पास वह पत्रकार मित्र मिलने आए जिन्होंने हमारा होटल बुक करवाया था। मंदिर उस समय बंद था लेकिन लाइन में सैंकड़ों लोग लगे हुए थे। ज़ाहिर था कि इसमें कई घंटे लगने थे, सो बाहर से प्रणाम कर हम लोग उस किले की तरफ बढ़ गए जिसे अकबर का किला कहा जाता है। बहुत ही सुचारू तरीके से यहां प्रवेश हुआ। इस किले में अक्षय-वट, पातालपुरी मंदिर, सरस्वती कूप आदि मौजूद हैं। यहां से आप नीचे का विहंगम दृश्य भी देख सकते हैं।
शाम के 5.30 बजे थे। आसपास के अन्य मंदिर, नजारे देखते हुए, खानपान का लुत्फ लेते हुए अब हम मेला क्षेत्र की ओर बढ़ चले। इतना लंबा-चौड़ा, विशाल क्षेत्र में फैला यह अस्थाई नगर इस कदर साफ-सुथरा और सुचारू रूप से बसा हुआ है कि आप अचंभित रह जाएंगे। हर तरफ सुरक्षाकर्मी, सफाईकर्मी, कैमरे…! बेहद भीड़ लेकिन न कोई धक्का-मुक्की, न ही कोई अव्यवस्था। जगह-जगह टॉयलेट थे और उनमें लगातार सफाई भी हो रही थी लेकिन हमें उन्हें इस्तेमाल करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई, या कहें कि हमने जान-बूझ कर वहां जाने से परहेज़ किया। क्योंकि प्रशासन सिर्फ व्यवस्था कर सकता है, पालन तो लोगों को ही करना होगा और हमारे यहां कुछ लोग सामाजिक नियमों का पालन करना जानते ही नहीं हैं। जो लोग वंदे भारत जैसी आधुनिक ट्रेन के शौचालय से निकलने से पहले फ्लश का बटन न दबाते हों, टॉयलेट का दरवाजा बंद न करते हों, उनसे क्या उम्मीद की जाए, खैर…! मेला क्षेत्र में जगह-जगह आर.ओ. वॉटर की मशीनें लगी थीं, फोन चार्जिंग के प्वाईंट्स भी। खाने-पीने के तो इतने सारे स्टॉल और ठेले थे कि आप हर किसी को मन भर देख भी नहीं सकते। जगह-जगह फोटो खिंचवाने के पॉइंट्स भी थे। इस पूरे मेला क्षेत्र को देखना चाहें तो यहां कम से कम 15 दिन के लिए आना होगा। इसलिए, जो दिख जाए उसी को प्रभु-कृपा और जो मिल जाए उसी को प्रसाद समझ हम लोग धीरे-धीरे चलते हुए, खाते-पीते, लोगों से बात करते, सब देखते हुए गंगा नदी के एक घाट पर जा पहुंचे जहां उस समय गंगा-आरती हो रही थी। वहां कुछ देर बैठे, मां गंगा को निहारते रहे, संगम क्षेत्र की पवित्र माटी एक डिब्बे में भरी, वापसी में एक फूड कोर्ट में भोजन किया और होटल के लिए चल पड़े। देखा कि कुछ स्थानीय युवक अपनी मोटर साईकिलों पर यात्रियों को बाहर मुख्य सड़क तक ले जा रहे थे। एक युवक को 200 रुपए दिए और हम दोनों उसके पीछे बैठ गए। कुछ ही देर में उसने हमें ‘चुंगी’ पर छोड़ दिया जहां बहुत सारे ई-रिक्शा व ऑटो-रिक्शा मौजूद थे। सड़क पर भारी भीड़ थी। एक ऑटो-रिक्शा वाले से बात हुई कि वह हमें ट्रैफिक जाम व भीड़ से बचा कर 400 रुपए में लंबे रास्ते से हमारे होटल पर छोड़ देगा।
वापसी में यह मलाल मन में था कि इस बार शहीद चंद्रशेखर आज़ाद पार्क नहीं जा पाए। इससे पहले यहां दो बार (1995 के अप्रैल में और फरवरी 2013 के कुंभ में) आ चुका हूं। दोनों ही बार संगम के मध्य में स्नान और शहीद चंद्रशेखर आज़ाद पार्क का भ्रमण हुआ था। संयोग देखिए कि यह पार्क हमें रास्ते में ही दिख गया। रात में दूर से ही जगमग करते इस पार्क को देख कर ऑटो वाले से दो मिनट रुकने को कहा और अंदर जाकर उस महान हुतात्मा के चरणों में प्रणाम कर हम लोग रेलवे स्टेशन आ पहुंचे। वहां कई दुकानों पर बड़े-बड़े कड़ाहों में उबल रहे मलाईदार दूध, रबड़ी, जलेबी आदि का लुत्फ लेने के बाद हम होटल जा पहुंचे। मेरा स्मार्ट फोन बता रहा था कि आज पूरे दिन में हम लोग मात्र 15190 कदम चले हैं। हमने सारा सामान सलीके से सैट किया और सो गए। दिन भर की थकान कुछ ही मिनटों में नींद की खुमारी में बदल चुकी थी।
24 जनवरी 2025, शुक्रवार सुबह 5 बजे के अलार्म ने जगा दिया। नहा-धो कर सारा सामान लेकर हम लोग 6.30 बजे होटल से बाहर थे। अब हमारे पास एक सूटकेस, एक हैंडबैग, एक प्रसाद-शॉपिंग आदि का बैग और एक गंगाजल से भरी बड़ी कैन थी। एक दुकान पर हल्का-फुल्का चाय-नाश्ता किया और टहलते-टहलते रेलवे स्टेशन के भीतर जा पहुंचे। 7.30 वाली वंदे भारत आधा घंटा देरी से आई जिसमें नाश्ता, लंच करते हुए हम दोपहर 2.10 पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतर गए। महाकुंभ में बिताए ये चंद घंटे हमारी यादों में हमेशा-हमेशा के लिए बस कर जीवन भर हमें आनंदित करते रहेंगे, ऐसा हमें विश्वास है।
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ-साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब-पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
वाह, भाईसाब! आपके इस लेख ने मुझे भी कुंभ का एक छोटा सा दर्शन करवा दिया। सादर धन्यवाद🙏🏻🕉️
Thank you sir
Ghar baithe baithe kumbh ke darshan ho gye
🙏🙏🙏🙏
दीपक दुआ जी आपकी लेखनी से पिरोए हुए शब्दों की विभिन्न मालाओं को मैं समय की उपलब्धता के अनुसार पढ़ता रहता हूं परंतु आपकी लेखनी से निकली हुई नवीन लेख “मेरी महाकुंभ यात्रा 2025” उन सनातन प्रेमियों के लिए बेहद सटीक जानकारी वाला लेख होगा जो अभी भी महाकुंभ की यात्रा के लिए परिवार सहित या मित्रों के साथ जाना चाह रहे होंगे परंतु एक अज्ञात भयवश यात्रा की योजना को अमलीजामा पहनाने में विलंब कर रहे हैं । बहुत ही सधी हुई सरल मातृभाषा में महाकुंभ की यात्रा का उल्लेख नि:संदेह तीर्थयात्रियों के लिए अति लाभदायक होंगे। आपके द्वारा लिखित लेख की लयबद्धता पाठकों को हमेशा बांधकर रखती है।
धन्यवाद, ईश्वरीय कृपा से ही यह अनुभव मिला और उन्हीं की कृपा से इस अनुभव को शब्दों में बयान कर सका…
अद्वित्य एवं अविस्मरणीय वर्णन…. ग्रेट
धन्यवाद
Waaah .. Mazaa aa gaya padhkar.
Bas Punya nahiN milaa .. Baaki to aapneN hameN itni detail me kumbh ki sair karaa di.
धन्यवाद… यह मज़ा, यह आनंद ही पुण्य है…