-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
भारत से अमीर परिवार के दो लड़के एक बिज़नेस ट्रिप पर एक छोटे-से देश में गए हैं। वहां एक लड़के की जेब से ड्रग्स मिलती है और इल्ज़ाम दूसरे लड़के पर आ जाता है। उस देश में इस अपराध की एक ही सज़ा है-मौत। लेकिन उस लड़के की बहन आ पहुंची है उसे बचाने। कानून का सहारा उसके काम नहीं आता तो वह जेल तोड़ने का इरादा कर लेती है। तोड़ पाती है वह जेल? बचा पाती है अपने भाई को? कैसे करेगी वह इतना बड़ा काम?
जेल तोड़ने की एक कहानी हाल ही में ‘सावी’ की शक्ल में आई थी जिसे निर्माता मुकेश भट्ट ने टी सीरिज़ के साथ मिल कर बनाया था जिसमें टी सीरिज़ की मालकिन दिव्या खोसला को हीरोइन लिया गया था। अब ‘जिगरा’ (Jigra) करण जौहर ने बनाई है जिसमें आलिया भट्ट प्रोड्यूसर हैं और हीरोइन भी। वैसे भी उन्हें इस फिल्म की ‘हीरोइन’ कहना ठीक होगा, इस कहानी की ‘नायिका’ नहीं क्योंकि ‘नायक’ या ‘नायिकाएं’ अक्सर ऐसे काम करते हैं जिनसे वह दूसरों के लिए मिसाल बन सकें। लेकिन इस लड़की को सिर्फ अपना भाई नज़र आ रहा है। बड़ी आसानी से दिखा दिया गया कि कानून उसकी कोई मदद नहीं कर सकता इसलिए उसे जेल तोड़नी है। तोड़िए, लेकिन इस काम में हज़ारों अपराधी जेल से भाग जाएंगे, उनका क्या? सैंकड़ों बेकसूर पुलिस वाले मारे जाएंगे, उनका क्या? एक ईमानदार आदमी का इसके हाथों से कत्ल होगा, उसका क्या? और इस अतार्किक, बेहद बोर, लंबे-फिज़ूल के ढेरों सीन दिखाती फिल्म को झेल कर जो दर्शक बेवकूफ बनेंगे, उनका क्या?
दरअसल इस किस्म की फिल्में, फिल्में नहीं प्रपोज़ल होती हैं जिसमें अक्सर बड़े नाम वाले निर्माता, किसी चमकते चेहरे को सामने रख कर एक ऐसा आवरण तैयार करते हैं जिसकी चकाचौंध से लोग खिंचे चले आएं और अपनी जेबों से थोड़ा-थोड़ा माल निकाल कर इनकी जेबों में बहुत सारा माल पहुंचा दें। ‘जिगरा’ ऐसी ही एक फिल्म हैं। अब चूंकि भारत की जेल तोड़ना आसान नहीं है और यू.के. की मूरख पुलिस ‘सावी’ ने दिखला ही दी तो ‘जिगरा’ (Jigra) ने हंसीदाओ नाम का एक काल्पनिक देश दिखाया है जहां कई सारे भारतीय पहले से ही हीरोइन के सहायक, उसके भाई के साथियों और कहानी के विलेन का रोल करने के लिए पहुंच चुके हैं। वैसे इस कहानी का एक सिरा निर्माता यश जौहर और निर्देशक महेश भट्टी की 1993 में आई संजय दत्त-श्री देवी वाली ‘गुमराह’ से भी जा जुड़ता है।
(रिव्यू-ऐसी भी क्या ज़िद थी ‘सावी’ बनाने की…?)
कुछ फिल्में होती हैं जो पहले संभल कर बाद में पटरी से उतरती हैं, कुछ पहले लड़खड़ाती हैं और बाद में संभल जाती हैं। ‘जिगरा’ (Jigra) इस मायने में खास है कि यह पहले सीन से ही बोर और कन्फ्यूज़ करने लगती है और आगे चल कर सीधे दीवार में टक्कर मार कर अपनी नाक तुड़वा बैठती है।
निर्देशक वासन बाला को पुरानी फिल्मों के संदर्भों, गानों से इतना मोह क्यों है? अगर है भी तो वे इसका सार्थक इस्तेमाल क्यों नहीं करते। क्यों वह अति बुद्धिजीवी बनने के चक्कर में अपनी फिल्म का कचरा करते रहते हैं?
आलिया भट्ट की एक्टिंग ठीक है। बाकी के ज़िक्र की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत तो इस फिल्म से जुड़ी किसी चीज़ के ज़िक्र की नहीं है। बस इतना समझ लीजिए कि जिस तरह से इस फिल्म के किरदारों के पास सिर्फ जिगरा है, दिमागी संतुलन नहीं और वे लोग सिर्फ संयोगों के दम पर आगे बढ़ रहे हैं उसी तरह से इस फिल्म (Jigra) को बनाने वालों के पास भी इसे बनाने का पैसा था, जिगरा था, समझ नहीं थी।
इतना सब पढ़ने के बाद भी अगर आप यह फिल्म (Jigra) देखने जा रहे हैं तो इस कहानी में तर्क मत ढूंढिएगा, इसे देखते हुए दिमाग मत लगाइएगा, और इतना ध्यान रखिएगा कि जब आप यह फिल्म देखें तो आसपास कोई भारी चीज़, ईंट-पत्थर वगैरह न हों। और यदि हों तो प्लीज़ अपना सिर मत फोड़िएगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-11 October, 2024 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)