-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
सबसे पहले तो नेटफ्लिक्स वालों को अपने सब्सक्राइर्ब्स से यह शपथ-पत्र साइन करवा लेना चाहिए कि ‘ज्वेल थीफ’ नाम की इस फिल्म को देखने से पहले वे लोग कोई रिव्यू नहीं पढ़ेंगे, फिल्म देखते समय कोई सवाल नहीं पूछेंगे और फिल्म देखने के बाद बिना गाली-गलौज किए अपना सब्सक्रिप्शन जारी रखेंगे।
चलिए आगे बढ़ते हैं। हां तो, एक विलेन है जिसके बारे में पूरी दुनिया के क्राइम वर्ल्ड को पता है कि वह बदमाश आदमी है, नहीं पता तो मुंबई पुलिस को, दुनिया भर की पुलिस को। उसे पांच सौ करोड़ के एक हीरे की चोरी करवानी है इसलिए वह एक नामी चोर के पापा को ब्लैकमेल करता है। वह नामी चोर क्यों नामी है, यह बात हमें नहीं बताई जाती। भई, हर बात क्यों बताई जाए 149 रुपए में पूरा महीना नेटफ्लिक्स चाटने वालों को? हां तो, उस नामी चोर के पीछे मुंबई पुलिस के एक अफसर ने सरकारी खर्चे पर दो ऐसे बंदे छोड़ रखे हैं जो विदेशों में घूम-घूम कर उस पर सिर्फ ‘नज़र’ रख रहे हैं और उनमें से एक तो चिप्स खा-खाकर इतना तगड़ा (मोटा पढ़िए) हो चुका है कि चार कदम भी नहीं भाग पाता। इन्हें चकमा देकर वह नामी चोर मुंबई आ जाता है क्योंकि वह हीरा भी मुंबई आने वाला है। यह बात भी सबको पता है, बस नहीं पता तो हमारे उस पुलिस अफसर को। वैसे इस पुलिस अफसर की मुंबई में भले ही न चलती हो, विदेशी पुलिस इसके एक इशारे पर जुट जाती है। अब शुरू होती है उस हीरे को चुराने की मुहिम और साथ ही शुरू होता है चोर-पुलिस का खेल।
अपने कलेवर में यह फिल्म यशराज की ‘धूम’ सरीखी लगती है जिसमें आगे-आगे एक शातिर चोर है, उसकी तकनीकी कलाबाजियां हैं, पीछे-पीछे एक पुलिस वाला है और हर बार इन दोनों के बीच बस एक कदम का फासला रह जाता है। वैसे इस फिल्म के निर्माता सिद्धार्थ आनंद यशराज के खेमे से निकले हैं और मुमकिन है कि उन्होंने इस कहानी को पहले यशराज को ही बेचने की कोशिश की हो और बाद में खुद (नेटफ्लिक्स के पैसे से) बनाने की ठानी हो। खैर, हमें क्या…!
हालांकि इस किस्म की फिल्मों में तार्किकता चरम पर होनी चाहिए लेकिन ऐसी जो भी तेज़ रफ्तार वाली फिल्में आती हैं जिनमें चोर आधुनिक तकनीकों के दम पर किसी चीज़ को चुराने निकलता है, उनमें तार्किकता से ज़्यादा ज़ोर रफ्तार, कसावट और भव्यता पर दिया जाता है। अब दिक्कत यह है कि इस फिल्म में सिर्फ भव्यता है, न रफ्तार, न कसावट और तार्किकता वाला शपथ-पत्र तो आप पहले ही साइन कर चुके हैं।
इस फ्लेवर वाली फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि इनमें आप वह नहीं देखते जो होना चाहिए बल्कि वह देखते हैं जो लेखक आपको दिखाना चाहता है। अब इस फिल्म के लेखक महोदय सचमुच आपको एक उम्दा मनोरंजक कहानी दिखाना चाहते थे या उन्हें आपके सब्र का इम्तिहान लेने के पैसे मिले थे, यह तो वही जानें। अपने को तो यह पता है कि अगर इस किस्म की फिल्म को भी फॉरवर्ड कर-करके देखना पड़े तो लानत है 149 रुपए के खर्चे पर।
तो अब तक आप समझ गए होंगे कि यह फिल्म अपनी लिखाई से पैदल है। आइसिंग ऑन द केक यह कि यह फिल्म अपनी बुनाई से भी पैदल है। दो निर्देशकों-रॉबी ग्रेवाल और कूकी गुलाटी ने इसे डायरेक्ट किया है। यह दोनों ही पुराने खिलाड़ी हैं, काफी कुछ बना-दिखा चुके हैं। इन दोनों ने मिल कर यह फिल्म क्यों निर्देशित की, इसकी कोई वजह अभी तक सामने नहीं आई है और फिल्म पर इसका कोई असर भी नहीं दिखता है। ऐसा ही माल बनाना था तो कोई अकेले बना लेता, तोहमत भी किसी एक पर लगती… बेचारा दूसरा…!
सैफ अली खान थके-थके लगे हैं। वह इस तरह के किरदार इतनी बार कर चुके हैं कि उन्हें देख कर दर्शक भी थक चुके होंगे। जयदीप अहलावत जैसे प्रतिभाशाली अभिनेता को ऐसे हल्के रोल में बंध कर एक्टिंग करते हुए देखना पीड़ा देता है। निकिता दत्ता फिल्म में क्यों हैं? इस सवाल के दो जवाब हो सकते हैं-पहला उनकी शक्ल वाणी कपूर से मिलती है, वाणी कपूर यशराज के खेमे से हैं, इस कहानी पर ‘धूम’ सीरिज़ की अगली फिल्म बनती तो शायद उन्हें लिया जाता, नहीं बनी तो उनके जैसी दिखने वाली निकिता को ले लिया गया। दूसरा जवाब है-अरे भई, कोई तो हो आपकी आंखों का ख्याल रखने वाला। पुलिस अफसर बने कुणाल कपूर चार साल बाद दिखाई दिए हैं और अच्छी बात यह है कि इतने लंबे समय बाद भी वह (चाहे कैसी भी) एक्टिंग कर पा रहे हैं-आप दर्शक लोग इस बात से खुश क्यों नहीं होते…? बाकी के कलाकारों को जैसा रोल मिला, उन्होंने उसे वैसा निबटा दिया। गानों-वानों की बात न ही करें तो बेहतर होगा। लोकेशन शानदार हैं, भव्यता दिखाई देती है।
इस फिल्म के एक सीन में सैफ अली खान का होटल में कमरा विजय आनंद के नाम से बुक होता है। इस सीन से फिल्म बनाने वालों ने विजय आनंद की बनाई ‘ज्वेल थीफ’ (1967) को श्रद्धांजलि देने की कोशिश की है। पर सच यह है कि यह फिल्म ‘ज्वेल थीफ’ जैसे क्लासिक शीर्षक का नाम डुबोती है।
धूम मचाने के इरादे से बनाई गई यह फिल्म धूल में लट्ठ मारती है। दूर से देखिए तो लगता है कि बहुत कुछ हो रहा है, पास जाइए तो सिवाय धूल के कुछ नहीं मिलता। आप भी लट्ठ मारिए इसे। यू-ट्यूब पर 1967 में आई देव आनंद वाली ‘ज्वेल थीफ’ मिल जाएगी, उसे देख लीजिए, बेहतर होगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-25 April, 2025 on Netflix
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
मेरे को मालूम नहीं था कि 1967 में देव आनंद साहब की भी ज्वेल थीफ मूवी आई थी। लेकिन यह जानकर दुख हुआ कि पुरानी फिल्मों के नाम को चुरा कर डुबाया जा रहा है ( वह भी तब, जब नई पीढ़ी को इसके बारे में पता ही न हो)
बहरहाल, इस फिल्म से हमारी चित परिचित भेट इंस्टाग्राम के माध्यम से हुई थी जब जयदीप अहलावत का डांस इंटरनेट जगत पर बहुत जोर पकड़ रहा था (डांस अच्छा था मगर कपड़ों से आज कल के बच्चे प्रेरित न हो तो ही बेहतर है)
जैसा कि मैने सोचा था, कि इंटरनेट (इंस्टा/फेसबुक) पर जोर जबरदस्ती से बार बार प्रचारित करने वाली फिल्में अक्सर निराशा, और जेब को घाटा ही देती है। सर आपका आर्टिकल पढ़कर यह यकीन हो रहा है कि मेरा शक शकीन( शक के साथ मजबूत यकीन *(व्यंग)*) में बदल गया है।
धन्यवाद सर
जेब और समय दोनों कटने घटने से बच गया।
After reading this review I don’t think I want to watch this movie. I was looking forward to watching this movie for Jaideep Alhawat but maybe next time. I really appreciate your review, it saved me some time and money. Thanks Deepak ji.
Thanks dear