-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
पंजाब के किसी गांव में लोगों को लोन दिलवाने वाली एक लड़की दिल्ली आकर गुम हो जाती है। उस लड़की के घर में रह कर एक डेयरी फॉर्म में नौकरी करने वाला सीधा-सादा फतेह सिंह उसे ढूंढने निकला है। फतेह जहां जाता है, लाशें बिछने लगती हैं। कौन है फतेह? क्या करता है वह? फतेह इस लड़की को तलाश पाया या…!
किसी खुफिया एजेंसी के रिटायर्ड एजेंट के किसी कारण से तबाही के धंधे में वापस आने की कहानियां खूब बनती हैं। बस इन एजेंटों के वापस आने का कारण अलग-अलग होता है। इस फिल्म में कारण है लोन देने के बहाने लोगों का डेटा जमा करना और उसके ज़रिए उन के बैंक अकाउंट खाली करना। इस फिल्म (Fateh) में यह तामझाम खूब फैला हुआ दिखाया गया है लेकिन यह न तो तार्किक है और न ही कायदे से समझाया गया है।
अरे, वह पंजाब के गांव की लड़की क्यों गायब हुई? दरअसल साइबर अपराधियों का डेटा किसी हैकर लड़की ने चुरा लिया है। चुरा कर क्या किया है, यह नहीं दिखाया गया। उस हैकर लड़की को यह पंजाब वाली लड़की जानती है तो इसे कैद कर लिया गया है। गोया कि कैद करने भर से वह आ जाएगी जबकि उसने तो इसे सूंघा तक नहीं। उसे बचाने आया फतेह जिस तादाद और रफ्तार से लाशें बिछा रहा है उसे देखते हुए तो विलेन लोगों को अपने परिवार और पैसे के साथ उसके सामने सरेंडर कर देना चाहिए था। लेकिन नहीं, ये चचा लोग तो लगे पड़े हैं उससे भिड़ने में। इनके आदमी मर रहे हैं, नुकसान हो रहा है मगर यह उस लड़की को नहीं छोड़ रहे हैं। और उस हैकर लड़की को पकड़ने के लिए भी न तो ये नासमझ खलनायक और न ही इनके पाले हुए हट्टे-कट्टे मुस्टंडे कुछ कर रहे हैं।
दरअसल ऐसी एक नहीं दसियों चूकें हैं इस फिल्म (Fateh) में। सोनू सूद और अंकुर ने यह फिल्म लिखते समय सिर्फ घटनाओं के प्रवाह पर ध्यान रखा है। वे घटनाएं क्यों हो रही हैं, उनके होने या न होने से कहानी किस दिशा में मुड़ सकती है, यह मेहनत उन्होंने नहीं की है। और यही कारण है कि इस फिल्म को देखते समय लगाया गया ज़रा-सा दिमाग भी इसकी लिखाई की पोल खोल कर रख देता है। फिल्म दिखाती है कि पंजाब के अधिकांश लोग कर्जे तले डूबे हुए हैं और वहां के स्कूलों में फीस न देने के कारण बच्चों को बाहर कर दिया जाता है। स्वीकार है यह तस्वीर…? फिल्म दिखाती है कि दिल्ली में हजारों गोलियां चल रही हैं, सैंकड़ों आदमी मर रहे हैं और दिल्ली पुलिस के चार सिपाही लाठी लेकर अपराधी को ढूंढ रहे हैं व उनका अफसर फाइव स्टार होटल में आंखों पर खीरे रख कर बैठा है। बोलिए, चलेगा…? हां, संवाद बहुत कैड़े-कैड़े लिखे गए हैं, भले ही वे किरदारों पर जंच न रहे हों।
निर्देशक सोनू सूद ने भी अपना पूरा ध्यान सीन बनाने पर रखा है। लेकिन उन्होंने भी यह नहीं सोचा कि उन सीन के पहले और बाद वाले सीक्वेंस अतार्किक होंगे तो कैसे हजम होंगे। हमारा हीरो किसी भी जगह पर बिना रोक-टोक के कैसे घुस जाता है? जब हीरो के पास बंदूकें होती हैं तो गुंडे खाली हाथ होते हैं और जब गुंडे गोलियां चलाते हैं तो यह बंदा चक्कू-छुरी वाले करतब दिखाने लगता है। एक्शन-डायरेक्टर को पूरी छूट दी गई कि एकदम ‘एनिमलनुमा’ हो जाओ, भले ही तर्क छूटे या देखने वालों के दिमाग की नस फूटे। ऐसा एक्शन देख कर हम लोग ताली बजा-बजा कर खुद को हॉलीवुड के करीब मान लेते हैं लेकिन स्क्रिप्ट और डायरेक्शन के स्तर पर हॉलीवुड का ‘हॉ’ भी हासिल नहीं कर पाते हैं। यह देखना कितना अतार्किक है कि बॉस के मरने के बाद भी गुंडे लड़े जा रहे हैं। अरे बेवकूफों, अब तुम्हें सैलरी कौन देगा…?
सोनू सूद को हिन्दी वालों ने रोल देने बंद कर दिए हैं या वह खुद ही इनसे दूर हो गए हैं, यह तो वह जानें लेकिन खुद के निर्देशन में खुद को चमकाने की उनकी यह कसरत उनके भक्तों को ही भाएगी, सिनेमा को समृद्ध नहीं कर पाएगी। नसीरुद्दीन शाह अपनी पूरी ठसक के साथ पर्दे पर भी नसीरुद्दीन शाह ही लगे हैं। अपनी उम्र पूरी कर चुका एक अकेला बुड्ढा हज़ारों करोड़ कमा कर करेगा क्या, यह भी दिखा देते। दरअसल नसीर हों, विजय राज़ या दिब्येंदु भट्टाचार्य, फिल्म इनके किरदारों को न तो विस्तार दे पाती है, न ही गहराई। बाकी के कलाकारों के साथ भी यही हुआ है और इसीलिए अभिनय के स्तर पर कोई भी प्रभावित नहीं कर पाया है। जैक्लीन फर्नांडीज़ पर्दे पर ‘रूखी और सूखी’ रही हैं। बनाने वालों को पता होता कि एक्शन के चक्कर में फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट मिलना है तो वह कुछ ‘नैनसुख’ भी ज़रूर परोसते। गाने-वाने मसालेदार हैं-पीछे से, बाद में आकर चटनी चटा जाते हैं।
इस फिल्म ‘फतेह’ का विलेन किसी को मारने के लिए उसे बिजली वाली कुर्सी पर बांध कर गैट-सैट-किल करते हुए उसका लाइव वीडियो दिखाता है। मात्र 130 मिनट की यह फिल्म ‘फतेह’ गैट-सैट-स्लीप करती है। बेहूदा एक्शन की दीवानगी हो तो इसे देख लीजिए। उबासियां लेना अच्छा लगता हो, नींद न आ रही हो तो भी यह बुरी नहीं है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-10 January, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
Best of sunu sud sir🙏💝
एकदम सटीक रिव्यू लिखा है आपने सर, कल ही देखने गया था और यह पूर्ण विश्वास के साथ लौटा हूँ की बॉलीवुड वाले दर्शकों को अब भी निहायती बेवकूफ समझते है और वो कभी भी बेमतलब की बकवास फ़िल्में बनाने से बाज नहीं आयेंगे। सोनू भाई आप प्लीज़ दान दक्षिणा ही करिए ऐसे अपने ओर अपने फैंस का पैसा बर्बाद मत करिए।
Bahut hi best movie hai kyuki aj kal jo saybar frod ho rha hai or apni goun ki beti jo pure goun ki beti apno ke hak ke liye kisi bhi had tk jao sonu sir best movie bs samjhne wala chahiye ki aj dour m ye sab chal rha h