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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-बोरियत का लगान वसूलती ’आज़ाद’

Deepak Dua by Deepak Dua
2025/01/17
in फिल्म/वेब रिव्यू
7
रिव्यू-बोरियत का लगान वसूलती ’आज़ाद’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

कहानी है मध्य भारत के बीहड़ इलाके की, समय है 1920 का। लोकल ज़मींदार अंग्रेज़ों का पिट्ठू है और अंग्रेज़ अफसर के कहने पर गांव वालों को मज़दूरी के लिए जबरन दक्षिण अफ्रीका भेजता है। वह अपनी बेटी को अंग्रेज़ी रंग-ढंग सिखा रहा है ताकि अंग्रेज़ अफसर के कमअक्ल बेटे से उसे ब्याह सके। उधर उसका बेटा गांव के एक नौजवान विक्रम ठाकुर की प्रेमिका को जबरन ब्याह लाया है और विक्रम बन चुका है डकैत। (ओह सॉरी, बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पारलामेंट में…!) ज़मींदार के यहां घोड़ों की देखभाल करने वाले का बेटा गोविंद घोड़ों का दीवाना है लेकिन घोड़े उसकी औकात से बाहर हैं और ज़मींदार की बेटी भी। उसे अपनी औकात बदलनी है और जालिमों को भी उनकी औकात दिखानी है। कैसे होगा ये सब?

इतनी लंबी कथा सुनाने का मकसद आपको यह बताना है कि हमारी फिल्में हवा में नहीं बनतीं बल्कि उनके लिए बाकायदा एक कहानी सोची जाती है, उसे फैलाया जाता है, समेटा भी जाता है। यह बात अलग है कि इस सोचने-फैलाने-समेटने के चक्कर में कई बार कहानी का गुड़गांव हो जाए तो इसमें लेखकों का क्या कसूर…! भई, साइकिल के टायर जितनी कहानी में ट्रैक्टर के टायर जितनी हवा भरेंगे तो पटाखा तो फूटेगा ही।

तीन लोगों की ’मेहनत’ से तैयार हुई इस फिल्म की लिखाई सिरे से पैदल है और इतनी पैदल है कि इसे देखने के बाद यह सोच कर हैरान हुआ जा सकता है कि जिस भी शख्स ने सब से पहले यह कहानी सोची होगी, क्या उसे खुद पर शर्म नहीं आई होगी कि यह मैंने क्या सोच लिया…? फिर जब उसने यह कहानी दूसरों को सुनाई होगी, इसे सुना कर निर्माता से पैसे लिए होंगे, निर्देशक को तैयार किया होगा, कलाकारों को इसमें काम करने को राज़ी किया होगा, तो उनमें से क्या किसी ने भी उससे यह नहीं पूछा होगा कि यह तुमने क्या सोच लिया…?

इस फिल्म से अजय देवगन के भानजे अमन देवगन (जी हां, बच्चा समझदार निकला, अपने मामा का सरनेम लगा कर आया है) और रवीना टंडन की बेटी राशा थडानी (बच्ची नासमझ निकली, नहीं तो टंडन सरनेम लगा कर आती) के अभिनय सफर की शुरुआत हुई है। पर इस फिल्म को, इसमें इनके किरदारों को और उन किरदारों में किए गए इनके काम को देख कर शक होता है कि क्या खुद अजय और रवीना ही नहीं चाहते थे कि ये दोनों फिल्म-लाइन में आएं। पर चूंकि बच्चों की ज़िद थी सो इन्होंने अभिषेक कपूर से बोल कर उनके लिए ऐसी फिल्म बनवा दी जिसमें इनसे ज़्यादा (और बढ़िया) काम तो एक घोड़ा कर गया। बेचारे बच्चों के साथ मोए-मोए हो गया।

कहीं से भी प्रभावित न कर पाने वाली इस फिल्म की पटकथा लचर-गचर है। कहीं से कुछ भी हो रहा है। किरदारों को भी बेढंगेपन से रचा गया है। नायकों में नायकत्व जैसा कुछ नहीं है और नायिकाओं के साथ शो-पीस से भी बुरा बर्ताव हुआ है। संवाद बेहद कमज़ोर हैं। अभिषेक कपूर कोई महान निर्देशक तो नहीं रहे लेकिन इस फिल्म में उनका डायरेक्शन इस कदर खराब है कि उनकी प्रतिभा पर शक होता है। फिल्म की भाषा बुंदेली, राजस्थानी, ब्रज, भोजपुरी और ’लगान’ वाली अवधी के साथ-साथ हिन्दी-अंग्रेज़ी होती रहती है। बीहड़ में घोड़े वाले बागी नहीं होते यह ’पान सिंह तोमर’ और ’बैंडिट क्वीन’ ने बताया था, लेकिन नहीं, हम तो ’शोले’ से इंस्पायर हैं, हम तो न सिर्फ घोड़े रखेंगे बल्कि फिल्म का नाम भी घोड़े के नाम पर रखेंगे और फिल्म में इतना घोड़ा-घोड़ा करेंगे कि पब्लिक कन्फ्यूज़ हो जाए कि इंटरवल में पॉप कॉर्न खाने हैं या चने की दाल! फिल्म देख कर यह भी सवाल भी उठता है कि इसे अमन देवगन और राशा थडानी को लांच करने के लिए बनाया गया या उस घोड़े के लिए? जवाब है-घोड़े के लिए।

किरदार साधारण लिखे गए जो अजय देवगन, डायना पेंटी व बाकी सब कलाकार भी साधारण रहे। अमन देवगन का शहरी लुक चुगली खाता रहा। राशा थडानी सुंदर हैं, प्यारी हैं, धीरे-धीरे एक्टिंग भी सीख जाएंगी। पीयूष मिश्रा के डायलॉग के पीछे बैकग्राउंड म्यूज़िक नहीं होना चाहिए-आधे शब्द वह चबा जाते हैं, आधे म्यूज़िक तले दब जाते हैं। गाने बहुत सारे हैं और बेकार हैं। दर्शकों की आंखों के लिए ‘उई अम्मा…’ वाला एक आइटम नंबर और नायिकाओं के क्लीवेज भी हैं।

’लगान’ की भद्दी नकल की शक्ल में बनाई गई यह फिल्म दर्शकों को बुरी तरह से पकाती है। सच तो यह है कि बड़े नाम वाले लोगों की तरफ से इस स्तर की फिल्म का आना दुखद है। आइए, सिनेमा के संसाधनों की बर्बादी का शोक मनाएं।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-17 January, 2025 in theaters

(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)

Tags: aaman devganajay devganazaadazaad reviewDiana Pentymohit maliknatasha rastogiPiyush Mishrarasha thadaniraveena tandon
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Comments 7

  1. Deepak Kishan Dogra says:
    4 months ago

    Badiya hai

    Reply
    • CineYatra says:
      4 months ago

      धन्यवाद

      Reply
  2. Shilpi rastogi says:
    4 months ago

    अब तक जितने भी रिव्यूज पढ़ें हैं, उनमें सबसे बेहतरीन तो यही वाला है। यूं ही दिलखुश लिखते रहे सर जी 💐

    Reply
    • CineYatra says:
      4 months ago

      धन्यवाद

      Reply
  3. Renu Goel says:
    4 months ago

    Yah to audience ka moye moye ho rha h
    Baki apka review bhut tikhi nazar se behad lajwab likha gya h👏👏👏

    Reply
    • CineYatra says:
      4 months ago

      धन्यवाद

      Reply
  4. NAFEES AHMED says:
    4 months ago

    उई माँ…. सच कड़वा होता है औऱ बाद हज़मी भी पैदा कर सkता है….शायद फ़िल्म देखकर यही प्रतीत होगा…..

    उई माँ 💃💃💃💃💃💃 शायद….. उई माँ… लूट गया ना हो जाए

    ड
    थैंक्स फॉर दा रिव्यु

    Reply

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