-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म का बेहद कसा हुआ, तेज़ रफ्तार ट्रेलर दिखाता है कि मुंबई के एक अखबार ‘डिस्पैच’ का क्राइम रिर्पोटर जॉय बाग एक ऐसे मामले की तह तक जाने की कोशिशों में लगा है जिसमें हजारों करोड़ का घपला है और बड़े-बड़े लोग शामिल हैं। ज़ाहिर है कि इतना सब है तो खतरे भी बड़े हैं। जॉय बाग कर पाएगा इस काम को? कैसे करेगा वह इसे?
यदि आपने भी यह ट्रेलर देख लिया तो मुमकिन है कि आप तुरंत ज़ी-5 पर इस फिल्म ‘डिस्पैच’ को तलाश कर इसे देखने के लिए आतुर हो जाएं। लेकिन ऐसा करते ही आप उस जाल में फंस जाएंगे जिसे इस ट्रेलर की शक्ल में आपके लिए फैलाया गया है। इस छलावे से बचने का एक ही तरीका है जो इधर कुछ साल से मैंने अपनाया हुआ है कि फिल्म देखने से पहले ट्रेलर मत देखो। इसीलिए जब यह फिल्म देखने के बाद मैंने ट्रेलर देखा तो यह सोच कर हैरान हुआ कि जिस शख्स ने यह ट्रेलर बनाया है, उससे ही यह फिल्म बनवा लेते तो ‘डिस्पैच’ एक अलग ही लेवल की फिल्म होती।
मुंबई अंडरवर्ल्ड और क्राइम रिपोर्टिंग की जानकारी रखने वाले लोगों को शायद याद हो कि वहां ज्योतिर्मय डे (जे डे) नाम के एक क्राइम रिर्पोटर हुआ करते थे। उनके अखबार के नाम में भी ‘डिस्पैच’ शब्द था। 2011 में जे डे की हत्या हो गई। इस फिल्म का नायक भी जे है, उसके अखबार का नाम ‘डिस्पैच’ है, कहानी 2012 की है। जॉय एक केस की छानबीन करते हुए पाता है कि इसके तार तो बहुत गहरे और उलझे हुए हैं। वह जितना इसमें नीचे उतरता है, उतना ही फंसता चला जाता है। साफ है कि वह केस कितना दिलचस्प रहा होगा। लेकिन यह फिल्म उतनी दिलचस्प नहीं बन पाई है तो इसकी वजह है इसकी बेहद कमज़ोर और उलझी हुई लिखाई। लेखक यह मान कर चल रहे हैं कि दर्शकों को पर्दे पर दिखाई जा रही सारी बातें, सारा ज्ञान पहले से ही पता है। दूसरे इसे इस अंदाज़ में लिखा गया है कि उनके तार आपस में जोड़ने में दिमाग के तंतु बिखर जाते हैं। कह सकते हैं कि बुद्धिजीवी लोग ऐसे ही लिखते हैं और अगर फिल्म के निर्देशक कनु बहल जैसे बुद्धिजीवी हों तो वह फिल्म भी ऐसे ही बनाते हैं। लेकिन क्या फायदा जब आपके लिखे को समझने और आपके बनाए को हज़म करने के लिए बेचारे दर्शकों का दिमाग सन्नाटे में आ जाए?
ऊपर से किरदारों को कुछ इस कदर खड़ा किया गया है कि पूरी फिल्म में एक मुर्दनी-सी छाई रहती है। जे और उसकी पत्नी के संबंध खराब हैं, जे की एक गर्लफ्रैंड है जो उसका इस्तेमाल कर रही है, जे दूसरी लड़कियों को इस्तेमाल कर रहा है। और हां, फिल्म में बहुत सारे घपाघप वाले सीन व गालियां भी हैं, बाई चांस आप इसे देखने बैठ भी जाएं तो ईयर फोन लगा लीजिएगा वरना स्क्रीन से आती ऊं-आं की आवाज़ें अगल-बगल वालों को बेचैन कर सकती हैं।
मनोज वाजपेयी शानदार रहे हैं। अपने भावों पर उनका नियंत्रण गजब का है। उनकी पत्नी के किरदार में शाहाना गोस्वामी को एक-आध सीन में ही असर दिखाने का मौका मिला। अर्चिता अग्रवाल ने अपना प्रभाव छोड़ा। पूर्णेंदु भट्टाचार्य, अरुण बहल, सलीम सिद्दीकी, मामिक आदि बाकी कलाकार जंचे।
खोजी पत्रकारिता की दुनिया में झांकने की कोशिश करती ज़ी-5 पर आई यह फिल्म अपने नायक के इर्दगिर्द जो अविश्वसनीय माहौल तैयार करती है, वह भी इसकी कमज़ोरी है। सीन लंबे खींचे गए हैं। किरदारों की बातचीत के बीच पॉज़ आते हैं जो खटकते हैं क्योंकि क्रिया के तुरंत बाद प्रतिक्रिया देना आम इंसानी स्वभाव होता है। यह फिल्म बुद्धिजीवी वाले अंदाज़ में बुद्धिजीवी दर्शकों के लिए बनाई गई है। आम दर्शक अपने रिस्क पर देखें। और हां, अखबार के नाम ‘डिस्पैच’ से बेहतर कोई नाम अपनी कहानी के लिए यदि लेखक-निर्देशक को नहीं मिला तो इसे भी फिल्म की कमज़ोरी ही मानिएगा। एक बात और, इसके ट्रेलर के झांसे में नहीं आइएगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-13 December, 2024 on ZEE5
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
देखा जाए या नहीं…. सामंजस्य है