-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुरली का बचपन से एक ही सपना था कि ओलंपिक में जाना है, गोल्ड मैडल लेकर आना है। बड़ा होकर वह फौज में गया तो बॉक्सिंग के ज़रिए अपने इस सपने को सच करने में जुट गया। लेकिन 1965 की जंग में उसे इतनी गोलियां लगीं कि वह अपने पैरों से लाचार हो गया। मगर उसने हार नहीं मानी और स्विमिंग करने लगा। 1972 में हुए पैरालंपिक (दिव्यांगजनों के ओलंपिक) में तैराकी में गोल्ड मैडल लेकर आया।
यह एक सच्ची कहानी है और ‘चंदू चैंपियन’ (Chandu Champion) इसी कहानी पर बनी है। आप चाहें तो पूछ सकते हैं कि यदि यह सच्ची कहानी है तो इतने बरसों से हमने इसके बारे में कहीं पढ़ा या सुना क्यों नहीं? जवाब वही पुराना है कि हमारे समाज के नायकों और उनकी प्रेरक कहानियों के प्रति हमारे समाज के कर्णधारों का उदासीन रवैया इसका मुख्य कारण है। मुरलीकांत पेटकर भी ऐसे ही एक नायक थे जिन्हें न तो उचित पुरस्कार मिले, न ही सम्मान और वक्त की आंधी ने उन्हें हाशिये पर कर डाला। लेकिन पिछले कुछ सालों में जब सरकार ने ढूंढ-ढूंढ कर ऐसे नायकों को सम्मानित करना शुरू किया तो उनकी कहानी भी सामने आई और 2018 में उन्हें पद्मश्री देकर सम्मानित किया गया। उसके बाद लोगों का ध्यान उन पर गया और नतीजे के तौर पर यह फिल्म बन कर आई है।
फिल्म (Chandu Champion) की शुरुआत दिलचस्प है। 2017 के साल में मुरलीकांत भारत के सभी राष्ट्रपतियों पर केस करने के इरादे से एक थाने में जाते हैं जहां पुलिस इंस्पैक्टर को फ्लैशबैक में सुनाई गई कहानी से फिल्म आगे बढ़ती है और हमें मुरली की ज़िंदगी के उस सफर पर ले जाती है जो न सिर्फ प्रभावी है बल्कि बेहद प्रेरक भी। इस ऊंचे-नीचे सफर के दौरान हम न सिर्फ मज़बूत इरादों वाले मुरली से परिचित होते हैं बल्कि हमारा परिचय उन लोगों से भी होता है जिन्होंने मुरली के जीवन में मददगार या उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। इन किरदारों से इस फिल्म का रंग निखरा है और इसकी चमक में भी वृद्धि हुई है। मुरली का निजी सफर उनके मज़बूत इरादे और उतनी ही शानदार किस्मत का संगम दिखता है जहां मौत कई बार उन्हें छू कर निकल गई और हर बार वह और अधिक पाने के अपने सफर पर चलते रहे। इसे भी तो उनकी ताकतवर किस्मत का ही तो परिणाम कहेंगे कि 1972 में गोल्ड मैडल पाने के बरसों बाद 2018 में उन्हें पद्मश्री मिलता है और उसके भी छह साल बाद उन पर कोई फिल्म बन कर आती है जिसके प्रीमियर में 80 बरस के मुरलीकांत स्वयं मौजूद रहते हैं।
‘चंदू चैंपियन’ (Chandu Champion) की कहानी कहने के लिए लेखकों ने बायोपिक बनाने का तयशुदा तरीका चुना है जो सुरक्षित, दिलचस्प, मनोरंजक है और दर्शकों को बांधे रखता है। अपने कलेवर में यह फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ की भी याद दिलाती है। ‘सपना तब खत्म होता है जब हम उसे देखना बंद कर देते हैं’ सरीखे इसके डायलॉग असर छोड़ते हैं। हालांकि राष्ट्रपति पर केस करने की बात अजीब लगती है और जर्मनी ओलंपिक के दौरान की घटनाओं की डेटलाइन भी गड़बड़ाती है। इंटरवल के बाद के कुछ सीन थोड़े सुस्त भी पड़ते हैं लेकिन डायरेक्टर कबीर खान जल्द ही उन्हें संभाल लेते हैं। बतौर निर्देशक कबीर अपना असर कई सारे दृश्यों में छोड़ते हैं। उनके इस काम में सिनेमैटोग्राफर, कम्प्यूटर ग्राफिक्स और एडिटर भी उनका भरपूर साथ निभाते हैं। फिल्म का गीत-संगीत भी प्रभावी है। गाने कहानी के साथ घुले-मिले लगते हैं। गीतों के बोल रंगत बिखेरते हैं, धुनें लुभाती हैं और कोरियोग्राफी उन्हें दर्शनीय बनाती है।
‘चंदू चैंपियन’ (Chandu Champion) की सबसे बड़ी ताकत इसके कलाकारों का अभिनय है। कार्तिक आर्यन ने इस किरदार के लिए जो शारीरिक श्रम किया है, वह तो पर्दे पर दिखता ही है, इस किरदार को अपना बनाने के लिए की गई उनकी मेहनत भी छुपी नहीं रहती। कार्तिक का अब तक का सबसे असदार अभिनय देखने को मिला है इस फिल्म में। कमी बाकी कलाकारों ने भी नहीं आने दी है। यशपाल शर्मा, बृजेंद्र काला, राजपाल यादव, अनिरुद्ध दवे, सोनाली कुलकर्णी जैसे कलाकार जब-जब दिखे, असर छोड़ गए। एक-दो सीन में आए और कुछ न बोले अमित घोष जैसे कई अन्य कलाकार भी अपने पात्रों में फिट दिखे। उभर कर दिखने वाला असरदार काम तीन लोगों ने किया। पहले तो श्रेयस तलपड़े। एक छोटे से कस्बे के पुलिस इंस्पैक्टर के चुलबुले रोल में वह लुभाते रहे। दूसरे रहे मुरली के सिक्ख दोस्त बने भुवन अरोड़ा और इनसे भी आगे दिखे कोच बने विजय राज़। विजय राज़ को तो इसके लिए सह-अभिनेता का पुरस्कार मिल जाना चाहिए।
इस फिल्म को देखते समय आप खुद को भी कहीं न कहीं चंदू सरीखा पाते हैं। लगता है कि कोई तो है जो खुद पर हंसने वालों को जवाब देने निकला है। इसे देखते हुए आप कभी मचलते हैं तो कभी भावुक भी होते हैं। चंदू जब चैंपियन बनता है तो उधर उसके परिवार के साथ इधर आपकी भी आंखें नम होती हैं। फलक से तारे तोड़ने की ज़िद पालने वाले नायकों की ‘चंदू चैंपियन’ (Chandu Champion) जैसी कहानियां सिनेमा की उस ताकत को दिखाती हैं जब सिनेमा आपका और आप सिनेमा के हो जाते हैं। लड़ना और जीतना सिखाने वाली ऐसी कहानियां आती रहनी चाहिएं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-14 June, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
जितनी शिद्दत से कबीर खान ने फिल्म बनाई है, उतनी ही शिद्दत से आपने रिव्यू लिखा है, और उसी शिद्दत से मैंने पड़ा भी। धन्यवाद एक शानदार दिव्यू के लिए।
धन्यवाद
I wish to see all the movies recommend by you
thanks…
शायद बॉलीवुड…. अपने पुराने अंदाज़ की फिल्मों में वापसी कर रहा है…
एक पूर्ण रिव्यु औऱ….. सफल औऱ प्रेरणादायक मूवी
धन्यवाद…
Bahut Khoob Dua sahab. Kya likha hai aapne. Kabhi kartik, vijay raaj aur kabhir khan sahab se mulakat ho toh hamari taraf se shabashian zarror dena
धन्यवाद भाई…