-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
अस्सी के दशक के पंजाब के बारे में मुमकिन है नई पीढ़ी के लोग खुल कर न जानते हों। उन्हें यह न पता हो कि सांझे चूल्हों और साझी विरासत वाली पंजाब की धरती पर उन दिनों फसलों की हरियाली से ज़्यादा बेकसूरों के खून की लाली दिखती थी। कुछ लोग थे जो परायों के बहकावे में आकर अपनों को ही मार रहे थे। जहां एक तरफ हिन्दुओं को चुन-चुन कर मारा जा रहा था और उन्हें पंजाब छोड़ने पर मजबूर किया जा रहता वहीं दूसरी तरफ सिक्ख भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं थे। लेकिन उस माहौल में बंदा सिंह चौधरी जैसे कुछ लोग थे जिन्होंने पलायन करने, डरने या मरने की बजाय मुकाबला करने का रास्ता चुना था। यह फिल्म ’बंदा सिंह चौधरी’ उस एक बंदे के बहाने से ऐसे लोगों के जुझारूपन की कहानी दिखाती है।
पंजाब के उग्रवाद पर अलग-अलग नज़रिए से कई फिल्में बनी हैं लेकिन किसी हिन्दू के वहां से भागने की बजाय सबको अपने साथ जोड़ कर भिड़ने की कहानी पहली बार पर्दे पर आई है। इस कारण से इस फिल्म ’बंदा सिंह चौधरी’ को बनाने वाले सराहना के हकदार हैं। लेकिन जिस बचकानेपन से इसे लिखा गया है और जिस कच्चेपन से इसे बनाया गया है उस पर गौर करें तो इस फिल्म की तारीफ में निकलने वाले शब्द वापस चले जाते हैं। धार्मिक आतंकवाद जैसे विस्तृत विषय को बहुत ही संकुचित नज़र से देखती और दिखाती यह फिल्म दर्शकों के मन में कोई आवेग, कोई भावनाएं, कोई उत्तेजनाएं ला पाने में नाकाम रही है और यही इसकी सबसे बड़ी असफलता है। बतौर लेखक शाहीन इकबाल और अभिषेक सक्सेना के काम में हल्कापन रहा है तो वहीं निर्देशक अभिषेक सक्सेना को अभी खुद को काफी मांजने की ज़रूरत है।
अरशद वारसी, मेहर विज, अलीशा चोपड़ा जैसे कलाकारों ने उन्हें मिले किरदारों को ठीक से निभाया। अरशद की बिटिया बनीं नन्हीं अदाकारा बहुत प्यारी लगीं। अरशद के दोस्त की पत्नी की भूमिका में शिल्पी मारवाह अपने अभिनय से प्रभावित करती हैं। कैमरा साधारण रहा और लोकेशन वास्तविक। गीतों के बोल असरदार रहे, भले ही उनकी धुनें कमज़ोर रहीं। कमज़ोर तो खैर, यह पूरी फिल्म ही है। सिवाय अपने विषय को छोड़ कर। वह विषय जो दर्शकों को झंझोड़ सकता था, दब-ढक चुके ज़ख्मों को कुरेद कर नई पीढ़ी को इतिहास के काले पन्नों से रूबरू करवा सकता था, लेकिन वह इसे लिखने और बनाने वालों की हल्की कोशिशों का शिकार होकर बेकार हो गया। वैसे भी जिस फिल्म को लिखने-बनाने वालों को अपनी फिल्म के लिए कोई कायदे का नाम तक न सूझा हो, उससे और क्या उम्मीद बांधी जाए…!
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Release Date-25 October, 2024 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)