-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
औरों में कहां दम था जो आज के दौर में भागती-दौड़ती, चटकीली-चमकीली फिल्में परोस रहे बॉलीवुड में ऐसी ठहराव ली हुई, सिंपल-सी प्रेम-कहानी बना सके। सो, यह ज़िम्मा उठाया नीरज पांडेय ने। उन्हीं नीरज पांडेय ने जो ‘ए वैडनसडे’, ‘स्पेशल 26’, ‘बेबी’, ‘अय्यारी’ जैसी फिल्में और ‘स्पेशल ऑप्स’ जैसी वेब-सीरिज़ दे चुके हैं। लेकिन हुआ क्या? कड़ाही पनीर बनाने वाले हाथों को खिचड़ी बनाने का शौक चर्राए तो ज़रूरी नहीं कि उनसे स्वादिष्ट खिचड़ी बन ही जाए।
(वेब-रिव्यू : रोमांच की पूरी खुराक ‘स्पेशल ऑप्स’ में)
कृष्णा पिछले 22-23 साल से जेल में है। बरसों पहले वह और वसु एक-दूसरे से प्यार करते थे। एक हादसा हुआ और कृष्णा को जेल जाना पड़ा। इधर वह जेल से निकलना नहीं चाहता और उधर वसु उस पल का इंतज़ार कर रही है जब वह जेल से निकलेगा। वसु के पति को भी कृष्णा का इंतज़ार है। वह उस हादसे की रात का सच जानना चाहता है। कृष्णा आता है, वसु से मिलता है, उसके पति से भी मिलता है और उसी रात उन दोनों से दूर भी चला जाता है।
इस फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ (Auron Mein Kahan Dum Tha) की कहानी बुरी नहीं है। लेकिन कागज़ पर लिखी अच्छी कहानी भी पर्दे पर तभी अच्छी लगती है जब उसे दमदार तरीके से फैलाया और फिल्माया गया हो। यह फिल्म इसी हादसे का शिकार हुई है। दो लाइनों में सोची गई कहानी को दो पन्नों में फैलाते-फैलाते ही नीरज पांडेय ने न जाने कितने समझौते कर लिए होंगे। फिर यह फिल्म तो सवा दो घंटे से भी ऊपर है जिसे बनाते हुए निर्देशक नीरज पांडेय ने जो समझौते किए, वे भी इसे देखते हुए साफ महसूस होते हैं।
दो टाइम-लाइन में चल रही इस फिल्म (Auron Mein Kahan Dum Tha) में प्यार की सौंधी खुशबू मिलने का अहसास होता है, अंत में कोई तगड़ा ट्विस्ट आएगा, इसका भी अहसास होता है। ये अहसास सच भी होते हैं, लेकिन न तो इस कहानी से निकलने वाली खुशबू दर्शक को मन भर महका पाती है और न ही अंत में आया ट्विस्ट उसे हिला पाता है। ऊपर से इस फिल्म का नाम इसके साथ दगा कर जाता है। इसे पूरी देखने के बाद भी यह समझ नहीं आता कि इस कहानी का नाम ‘औरों में कहां दम था’ क्यों रखा गया? क्या सिर्फ इसलिए कि भविष्य के सुनहरे सपने बुन रहे कृष्णा और वसु ने अपने लिए जो ज़िंदगी चुनी, खुद चुनी वरना औरों में कहां दम था…? वैसे इस फिल्म का नाम इस के अंत में सुनाई दिए अजय देवगन की ही फिल्म ‘दिलवाले’ के एक गाने के बोलों के आधार पर ‘एक ऐसी लड़की थी’ होता तो बेहतर था। वैसे भी इस किस्म के नाम, इस तरह की कहानियां दशकों पहले हिन्दी सिनेमा वालों ने खुद ही गायब करके हमें जिन मसालों की लत लगाई है, उसी का खामियाजा इस फिल्म को भुगतना पड़ रहा है। दक्षिण भारत से आने वाली मीठी, प्यारी, खुशबूदार फिल्मों को अपनाने वाले हम लोग अब हिन्दी में बनने वाले ऐसे माल को फूंक-फूंक कर चखना पसंद करते हैं।
फिल्म (Auron Mein Kahan Dum Tha) की स्क्रिप्ट हांफती हुई-सी है। जिस हादसे की वजह से कृष्णा और वसु की ज़िंदगी बदली, उसके बाद अगर कानूनी मदद ली जाती या वहां से भाग भी लिया जाता, तो भी कहानी का रुख कुछ और होता। जेल में कृष्णा की इमेज जबरन बनाई गई लगती है। ढेरों सीन हैं जिन्हें बहुत लंबा खींचा गया है और कुछ ऐसे भी जिन्हें लंबा होना चाहिए था, सस्ते में निबटा दिए गए। 2001 की मुंबई को लेकर किया गया आर्ट-डिपार्टमैंट का काम कमज़ोर है। उन दिनों मोटर साइकिलों पर सफेद नंबर प्लेट नहीं हुआ करती थी। और भी ढेरों चूके हैं जो ज़रा-सा गौर करते ही पकड़ी जा सकती हैं।
अजय देवगन सधे हुए रहे हैं। लेकिन उनके किरदार में गहराई नहीं है। तब्बू की चुप्पी खलती है। जिम्मी शेरगिल जंचते हैं। सयाजी शिंदे, जय उपाध्याय, शाहरुख सदरी व अन्य ठीक लगे हैं। सुखद आश्चर्य होता है शांतनु महेश्वरी और सई मांजरेकर की कैमिस्ट्री देख कर। सई की सादगी और शांतनु का आत्मविश्वास सुहाता है। सुहाती तो अजय और तब्बू की जोड़ी भी है लेकिन इनका मिलना हमें तमिल की ‘96’ के करीब नहीं ले जाता। ज़ाहिर तौर पर यह इनकी नहीं, लेखक-निर्देशक नीरज पांडेय की कमी है।
(रिव्यू-किताब में मिले किसी सूखे फूल-सी नाज़ुक ‘96’)
मनोज मुंतशिर ने गाने सचमुच बहुत प्यारे लिखे हैं। शब्दों पर ध्यान दीजिए तो दिल सायं-सायं कर उठता है। एम.एम. करीम का संगीत भी प्यारा लगता है। लेकिन एक कमज़ोर फिल्म को ये गाने उठा नहीं पाते।
इस किस्म की कहानियां कसक मांगती हैं, तड़प मांगती हैं। ऐसी फिल्म देखने के बाद दिल में चुभन, सीने में जलन और दिमाग में बेचैनी होनी चाहिए। आप थिएटर से बाहर निकलें तो लगना चाहिए कि अपने भीतर का कुछ टूट गया है, अंदर छूट गया है। लेकिन इस फिल्म (Auron Mein Kahan Dum Tha) को देख कर ऐसा नहीं होता। यही बात इस कहानी को एक फिल्म के तौर पर नाकाम बनाती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-02 August, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
कुछः नहीं बस….. यही कहा जा सकता है कि अकेला चना क्या भाड़ फोड़े…