-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
स्कॉटलैंड का एक वीरान टापू। हीरोइन पूछती है-इस आइलैंड पर हमारे अलावा और कौन रहता है? हीरो जवाब देता है-कोई नहीं, बस हम और हमारी तन्हाई। लेकिन थोड़ी देर बाद हीरोइन घर में लगे चार्ट में देखती है कि इस वीरान टापू पर भी दिन में चार बार एक नाव आती है और 15 मिनट बाद रवाना होती है। वाह, सुविधाएं हों तो ऐसी। शायद यही कारण है कि निर्देशक विक्रम भट्ट अपनी हर हॉरर फिल्म को किसी ऐसी विदेशी लोकेशन पर सैट करते हैं जहां इंसान भले ही कोई न रहता हो लेकिन सुविधाएं सारी हों-हिन्दी बोलने वाले हों, तांत्रिक हों, डॉक्टर हों, नींबू-मिर्ची, नमक-पानी सब हो। भई, हॉरर की डिश बनाने में ये सब मसाले तो पड़ते ही हैं न…!
फिल्म की कहानी यह है कि एक हादसे के बाद हीरोइन की याद्दाश्त जा चुकी है। हीरो के साथ वह वापस अपने सुनसान टापू पर आ चुकी है। बार-बार यह पूछ कर वह हमारा दिमाग खा चुकी है कि वह पानी में गिरी कैसे थी? उसे यह भी शक है कि उसका घर हॉन्टेड है और यहां इन दोनों के अलावा कोई और भी है। कौन है वो? क्या है उसका राज़? बस, यही पता करना है उसे और दिखाना है हम जैसे उन दर्शकों को जो हॉरर फिल्मों के दीवाने हैं।
हॉरर के बाज़ार में किस्म-किस्म के एक्सपैरिमैंट होने लगे हैं। कहीं लोक-कथाओं से कहानियां उठाई जा रही हैं तो कहीं कहानी में देसी मसालों का छौंक लग रहा है। कोई हॉरर संग कॉमेडी परोस रहा है लेकिन अपने विक्रम भट्ट या कहें कि पूरा भट्ट कैंप अपने बरसों पुराने भट्ठे से वही पुरानी नींबू-मिर्ची मार्का वाली ईंटे ही पका कर दे रहा है जिनमें अब कोई जान नहीं बची। ज़ाहिर है कि इन कमज़ोर ईंटों की बुनियाद पर बनने वाली फिल्मी इमारत भी कमज़ोर ही होगी।
(रिव्यू-भट्टों के भट्ठे का ‘राज़’)
कहानी तो जो है सो है ही, उस पर जो स्क्रिप्ट रची गई है उसे देख कर इस फिल्म के लेखकों की बुद्धि पर तरस आता है। और एक सवाल तो यह भी पूछा जाना चाहिए कि ऐसी थकी हुई फिल्म बनाने के लिए विक्रम भट्ट को अपने साथ एक सह-निर्देशक मनीष पी. चव्हाण की क्या ज़रूरत पड़ गई? और पड़ गई तो पड़ गई, इन दोनों ने मिल कर बनाया क्या? यह बोरियत भरी घिसी-पिटी फिल्म तो कोई भी बना लेता। कैसा भी ताना-बाना तैयार करके दर्शकों को मूर्ख समझने और मूर्ख बनाने की कवायद करने वाले ऐसे फिल्मकारों को डिज़्नी-हॉटस्टार जैसे बड़े प्लेटफॉर्म भी मिल जाते हैं, यह ज़्यादा अफसोस की बात है।
(रिव्यू-हैरान करती है ‘यह साली आशिकी’)
अमरीश पुरी के पोते वर्धन पुरी ने अपनी पहली फिल्म ‘यह साली आशिकी’ से जो उम्मीदें जगाई थीं वे उनकी पिछली फिल्म ‘दशमी’ से कमज़ोर पड़ीं और अब उन्हें इस फिल्म में देख कर ठंडी हो जाती हैं। अविका गौर व अन्य सभी कलाकार भी कामचलाऊ काम करते दिखते हैं। हॉरर के नाम पर दो-एक सीन तेज़ बैकग्राउंड म्यूज़िक के साथ अचानक से आते हैं। गीत-संगीत वैसा ही है जैसा भट्टों की फिल्मों में होता है-अंधे कुएं में बैठ कर रहस्यमयी आवाज़ वाला। दरअसल पूरी फिल्म का मिज़ाज ही भट्ट कैंप वाला है-कोई मुस्कुराएगा नहीं, बिना बात रोएगा ज़रूर। आपको भी माथा पकड़ कर रोना है तो देख लीजिए इसे।
Release Date-26 July, 2024 on Disney+Hotstar
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Wah…. Jab kuchh na miley to Kaam Chalaau he banaa daalein… Shayad isi camp ne yahi kiya hai…. Sheeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee Darnaa Manaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa hai………………. Behtar hoga ki ghar mei baithkar bachon ke ‘Haatimtaai’ dekh li jaay… khud ko bhi aur bachchon ko bhi maza to aayega dekhne mei…. Thanks