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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-रुकती, थमती, आगे बढ़ती ‘मडगांव एक्सप्रैस’

Deepak Dua by Deepak Dua
2024/03/23
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-रुकती, थमती, आगे बढ़ती ‘मडगांव एक्सप्रैस’
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-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

तीन दोस्त हैं-लड़कपन से ही गोआ जाना चाहते थे मगर नहीं जा पाए। बरसों बाद इनमें से दो विदेशों में सैटल हैं और तीसरा सोशल मीडिया पर डींगें हांक रहा है। एक दिन ये तीनों मिलते हैं और तीसरे के दबाव में आकर मडगांव एक्सप्रैस नामक ट्रेन से मुंबई से गोआ जाने का इरादा करते हैं। लेकिन इस ट्रेन में ऐसा कुछ होता है कि गोआ में ये लोग ड्रग्स के जाल में उलझ जाते हैं। मेंडोज़ा गैंग, कोमड़ी गैंग, पुलिस और न जाने कौन-कौन इनके पीछे पड़ा है। ये लोग भाग रहे हैं, भिड़ रहे हैं, भेस बदल रहे हैं लेकिन फिर भी इनका भर्ता बन रहा है।

इस किस्म की भागती-दौड़ती कहानियां, जिनमें हीरो लोगों के पीछे विलेन लोग पड़े हों, अक्सर हमें मज़ा दे जाती हैं। ‘फुकरे’, ‘भागमभाग’ जैसी फिल्में फौरन ध्यान में आती है और इस फिल्म से पहली बार निर्देशक बन कर आए कुणाल खेमू की ही ‘99’ व ‘लूटकेस’ भी। ऐसी फिल्मों में ज़रूरी होता है कहानी को चारों तरफ फैलाना और अंत में एक तरफ समेटना। ‘मडगांव एक्सप्रैस’ भी इसी फॉर्मूले पर चलती है लेकिन बतौर लेखक कुणाल खेमू इस काम को कायदे से कर नहीं पाए हैं।

(रिव्यू-मनोरंजन की दौलत है इस ‘लूटकेस’ में)

दरअसल इस किस्म की कहानियों में तेज़ रफ्तार और लगातार घटती घटनाओं का होना ज़रूरी होता है ताकि दर्शक को न तो सोचने का वक्त मिले और न ही दिमाग भिड़ाने का। ‘मडगांव एक्सप्रैस’ इन दोनों मोर्चों पर कमज़ोर रही है और यही कारण है कि ‘मडगांव एक्सप्रैस’ शुरू होने के 35वें मिनट में जब एक हीरो बाकी दोनों से पूछता है-एन्जॉय तो कर रहे हो न…? तो इधर हॉल में बैठे दर्शक की मुंडी ‘न’ में हिलने लगती है।

हालांकि ‘मडगांव एक्सप्रैस’ पूरी तरह से पैदल भी नहीं है। टुकड़ों-टुकड़ों में यह हंसाती है, लुभाती है, आंखों को भी सुहाती है लेकिन यह हंसाना ऐसा नहीं है कि आप ठहाके लगा सकें, यह लुभाना ऐसा नहीं है कि आप इसे दिल में बिठा सकें और इसका आंखों को सुहाना भी ऐसा नहीं है कि आप इसे अपनी यादों में संजो कर ले जा सकें।

अपनी घटनाओं से अधिक ‘मडगांव एक्सप्रैस’ अपने अतरंगी किरदारों और उनकी हरकतों व बातों से हंसाने का काम करती है। इसमें यह सफल तो होती है मगर झटके खा-खा कर। साथ ही ये हरकतें न तो नई हैं और न ही अनोखी। बस, इसीलिए ‘मडगांव एक्सप्रैस’ महज़ टाइमपास किस्म की होकर रह गई है-न बहुत अच्छी, न बहुत बुरी। देखेंगे तो कुछ मिलेगा नहीं, छोड़ देंगे तो कुछ हिलेगा नहीं।

दिव्येंदु शर्मा पूरी रंगत में दिखे हैं। पर पता नहीं क्यों उन्हें अजीब-सा स्किन-टोन दिया गया है। और पता नहीं क्यों, उन्हें देख कर बार-बार यह भी लगता रहा कि इस वाले किरदार में तो खुद कुणाल खेमू को होना चाहिए था। प्रतीक गांधी और अविनाश तिवारी भी ठीक रहे। अविनाश का किरदार कुछ ज़्यादा ही फीका, बेरंग लिख दिया कुणाल ने। नोरा फतेही साधारण रहीं। उपेंद्र लिमये, छाया कदम, रेमो डिसूज़ा खूब जंचे।

कुणाल का निर्देशन बुरा नहीं है। सोशल मीडिया के भीड़ भरे संसार में अकेलेपन को भोगते लोग दिखाना कुणाल की खूबी रही। घटनाओं की गति बढ़ा कर, कुछ और ज़ोरदार भगदड़ वाले सीन दिखा कर और अपने एडिटर से फिल्म को ज़्यादा कसवा कर वह ‘मडगांव एक्सप्रैस’ को बेहतर बनवा सकते थे। गाने-शाने साधारण रहे। ‘दिल चाहता है’ के गानों के टुकड़े जगह-जगह इस्तेमाल कर के फिल्म की रंगत निखारी जा सकती थी।

हिन्दी सिनेमा ने गोआ की छवि बेब्स, बिकनी, बूज़ वाले ऐसे प्रदेश की बनाई है जहां सिर्फ मौज-मज़ा किया जा सकता है। अफसोस की बात है कि ‘दिल चाहता है’ और ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ की बात करने वाली ‘मडगांव एक्सप्रैस’ भी उस छवि को पुख्ता ही करती है। तो, देखिए ‘मडगांव एक्सप्रैस’, जाइए गोआ-टाइम पास करना हो तो।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-22 March, 2024 in theaters

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: avinash tiwarychhaya kadamGoakunal khemumadgaon expressmadgaon express reviewnora fatehipratik gandhiRemo Dsouzaupendra limaye
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