-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
पुलिस और गुंडों की गोलीबारी में एक शरीफ आदमी मारा गया। उसके बेटे को एक गैंग्सटर ने पाला-पोसा। गैंग्सटर जब जेल जाने लगा तो उस बच्चे को अपना वारिस बना गया। गैंग्सटर के बड़े भाई को बुरा लगा तो उसने उस बच्चे के कान भरने शुरू कर दिए। एक दिन उस गैंग्स्टर के अपने ही उसके खिलाफ हो गए। लेकिन उस गैंग्स्टर की यमराज से दोस्ती है। वह लौटा और उसने सबका बदला लिया।
ऊपर बताए गए कहानी के ढांचे में पांच मुख्य बिंदु हैं-1-शरीफ आदमी की मौत, जिसके बच्चे को गैंग्स्टर ने पाला, 2-गैंग्स्टर का जेल जाना, 3-उस बच्चे को वारिस बनाना, जिससे भाई जल-भुन गया 4-उसके अपनों का उस पर हमला और 5-उसका लौट कर बदला लेना। इस फिल्म को देखिए तो इन सभी बिंदुओं की बुनियाद इस कदर कमज़ोर दिखाई देती है कि हैरानी होती है कि इस फिल्म को लिखने वालों में खुद कमल हासन और मणिरत्नम भी हैं। ज़रा-सा भी दिमाग लगाते ही इस फिल्म की लिखाई की सिलाई उधड़ने लगती है। 1-उस शरीफ आदमी का मारा जाना अचानक से ठूंसा गया लगता है, अखबार बच्चे बांट रहे थे और गोली बेवजह चली, 2-गैंग्सटर जिस अपराध के लिए जेल जा रहा था, वह साबित कैसे हुआ होगा? 3-जेल जाते समय उसने भाई की बजाय उस बच्चे को ही वारिस क्यों चुना, फिल्म नहीं दिखा पाती, 4-जहां पर गैंग्स्टर के अपनों ने उस पर हमला किया, वहां जाने का प्लान जबरन घुसेड़ा गया लगता है और 5-अंत में गैंग्स्टर उस बच्चे को एक बात बताने जाता है लेकिन बताने की बजाय वह उसे मारे ही जा रहा है, मारे ही जा रहा है, आखिर क्यों?
नई पीढ़ी के दर्शकों को भी कदाचित यह मालूम होगा कि दुनिया के प्रतिभाशाली फिल्मकारों में मणिरत्नम और अभिनेताओं में कमल हासन की गिनती की जाती है। इन दो लोगों के संगम से 1987 में बन कर आई तमिल फिल्म ‘नायकन’ को तमिल या भारतीय सिनेमा की ही नहीं बल्कि विश्व सिनेमा की भी क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है। उस फिल्म के करीब 38 साल बाद इन दोनों प्रतिभाओं का एक साथ आना उत्सुकता तो जगाता ही है, उम्मीदों का पहाड़ भी खड़ा करता है। लेकिन अफसोस, यह फिल्म (Thug Life) उन उत्सुकताओं और उम्मीदों पर कत्तई खरी नहीं उतर पाती है और इसका सबसे बड़ा कारण इसकी कमज़ोर लिखाई ही है।
‘नायकन’ की ही तरह यहां भी कमल हासन गैंग्स्टर हैं। उनका नाम भी उस फिल्म की तरह शक्तिवेल है और उनकी जीवन-यात्रा भी कमोबेश उस फिल्म सरीखी है। वही गैंगवॉर और परिवार के बीच झूलता शख्स जो गिरता है, संभलता है, उठता है। कई किरदार और घटनाएं उस फिल्म से इतनी ज़्यादा मिलती-जुलती हैं कि इस फिल्म को ‘नायकन 2.0’ कह कर नई पीढ़ी के दर्शकों को परोसा जाता तो सही होता। वैसे भी ‘ठग लाइफ’ (Thug Life) नाम इस पर कुछ फिट बैठ नहीं रहा है। और लाइफ भी किस की? गैंग्स्टरों की, जिनमें से किसी का भी कोई दीन-ईमान नहीं है। हर कोई गलत है, गलती कर रहा है। नशेड़ी, चरित्रहीन, गुंडे, किरदारों की भरमार वाली कहानी आखिर कह क्या रही है, यह भी तो कोई स्पष्ट करे। और हां, ये तमाम गैंग्स्टर लोग आखिर धंधा क्या करते हैं, यह पूरी फिल्म में नहीं बताया गया। स्क्रिप्ट इतनी हल्की है कि आगे आने वाली घटनाओं का आभास करा देती है। संवाद कहीं-कहीं ही असरदार रहे हैं। फिर इसके अधिकांश किरदारों को भी कायदे से खड़ा नहीं किया गया है।
मूल रूप से तमिल में बनी यह फिल्म (Thug Life) हिन्दी में भी डब होकर आई है। हिन्दी वाले संस्करण में जहां कई शब्दों के अनुवाद की दिक्कत से नानी, दादी हो गई तो वहीं कमल हासन की डबिंग में काफी लड़खड़ाहट महसूस हुई। कहानी का बड़ा हिस्सा दिल्ली में शूट होने के बावजूद फिल्म अपने दक्षिण भारतीय फ्लेवर को रह-रह कर महसूस कराती रही। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री से कुछ और कलाकारों को लिया जाना इसकी सेहत के लिए बेहतर हो सकता था। फिलहाल तो जिन राजश्री देशपांडे, सान्या मल्होत्रा, अली फज़ल को लिया गया, उनसे कोई ढंग का काम ही नहीं लिया गया।
कमल हासन के अभिनय में गहराई महसूस होती है। अपने किरदार की बॉडी लैंग्युएज को वह कस कर पकड़ते हैं। उनके अलावा तृषा कृष्णन और अभिरामी ने ही प्रभावित किया। बाकी के कलाकारों में ज़्यादातर साधारण ही लगे तो इसकी बड़ी वजह उनके किरदारों का विकसित न हो पाना रहा। वैसे भी इस फिल्म में न सिर्फ किरदारों की भीड़ है बल्कि उनके दक्षिण भारतीय नामों के चलते हिन्दी वालों को ढेर सारी कन्फ्यूज़न भी होती है। लोकेशन और सैट्स शानदार रहे। सिनेमैटोग्राफी बेहद प्रभावशाली और मणिरत्नम का निर्देशन उम्दा। ए.आर. रहमान के संगीत में आए गीतों ने निराश किया। फिल्म (Thug Life) का सबसे सशक्त पक्ष रहा इसका एक्शन। इस कदर विश्वसनीय और सटीक कि इस फिल्म को एक्शन की श्रेणी में पुरस्कृत किया जा सकता है।
इस फिल्म (Thug Life) के साथ दिक्कत यह नहीं है कि यह अपराध को, गैंग्स्टरों को, उनकी ज़िंदगी को महिमामंडित करती है बल्कि बड़ी दिक्कत यह है कि यह सब बहुत भव्यता के साथ, स्टाइलिश तरीके से करती है। इससे होता यह है कि उथला सिनेमा देखने की आदी हो चुकी नई पीढ़ी इसी को क्लासिक मान लेती है। शोकेस में चमकता सामान देख कर दुकान में आ पहुंचे ग्राहक को कच्चा-पक्का माल पकड़ा कर जो ठगी की जाती है, यह फिल्म भी वही करती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-5 June, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
यह रिव्यू बेहद सटीक और संतुलित है। दीपक दुआ जी ने ‘ठग लाइफ’ की कमजोर स्क्रिप्ट, उलझी हुई कहानी और अधपके किरदारों की ओर जो ध्यान दिलाया है, वह बहुत ज़रूरी था। कमल हासन और मणिरत्नम जैसे दिग्गजों से जितनी उम्मीदें थीं, फिल्म उतना ही निराश करती है। ‘नायकन’ जैसी क्लासिक से तुलना करना स्वाभाविक है, लेकिन यहां वैसी गहराई और भावनात्मक जुड़ाव नहीं मिलते। फिल्म की भव्यता और एक्शन तो प्रभावशाली हैं, पर लिखाई की दरारें साफ दिखती हैं। नई पीढ़ी के दर्शकों को यह जरूर समझना चाहिए कि केवल स्टाइल और स्केल से कोई फिल्म क्लासिक नहीं बनती। बहुत अच्छा और विचारोत्तेजक विश्लेषण।
बहुत धन्यवाद बंधु, इस विस्तृत कमेंट के लिए…
शानदार रिव्यु…. 38 साल लग गए इस जोड़ी कों एक सेक्वेल बनाने में…. लेकिन राष्ट्रीय पुरुस्कृत जोड़ी क़े दम में दम नहीं दिखा तो बस दिखा तो….. क्लासिक का तड़का….