-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
छपरी किस्म का टी.वी. रिपोर्टर आलोक गोयल जंगल में घूमने जाता है जहां उसके पीछे भालू पड़ जाता है। एक रहस्यमयी लड़की उसे बचाती है। तभी कुछ लोग उसे उठा कर ले जाते हैं और एक बार फिर वही लड़की उसे बचाती है। इन दोनों में प्यार हो जाता है। लेकिन यह लड़की इंसान नहीं, वेताल है। वेताल, यानी चलते-फिरते प्रेत, जो बरसों पहले इंसानी खून पीते थे लेकिन अब इंसानों को बचाने का काम करते हैं। आलोक इस लड़की को लेकर अपने घर दिल्ली आ जाता है तो पीछे-पीछे कुछ वेताल भी आ जाते हैं। वैसे भी अब आलोक इंसान नहीं रहा, वेताल बन चुका है।
‘स्त्री’, ‘भेड़िया’, ‘मुंज्या’, ‘स्त्री 2’ जैसी हॉरर फ्लेवर वाली फिल्मों की कहानी के तारों को यहां-वहां से जोड़ कर निर्माता दिनेश विजन जो एक अलग किस्म का सिनेमाई संसार रच रहे हैं, ‘थामा’ भी उसी का एक हिस्सा बन कर आई है। ‘स्त्री 2’ के अंत में अक्षय कुमार के किरदार द्वारा सरकटे राक्षस के अवशेषों वाली हंडिया को पी जाने वाली कहानी तो अलग से आएगी ही, एक और बात भी उस फिल्म के अंत में थी जिसमें भेड़िया जनार्दन से कहता है कि अब हम दिल्ली नहीं जा सकते क्योंकि वहां कोई आ गया है जो गर्दन में दांत गाड़ कर खून पी लेता है। ‘थामा’ की कहानी उसी रेफरेंस से आगे बढ़ती है। मगर क्या यह कहानी इस हॉरर यूनिवर्स की बाकी फिल्मों की कहानियों जितनी सशक्त है? जवाब है-नहीं, बिल्कुल नहीं।
(रिव्यू-सिनेमा की रक्षा करने आई ‘स्त्री 2’)
दिक्कत दरअसल कहानी से ज़्यादा उसे फैलाने वाली स्क्रिप्ट में होती है। कहानियां तो दो पैरे, चार लाइनों में सारी ही अच्छी लगती हैं। हालांकि ‘थामा’ में भी हॉरर से ज़्यादा कॉमेडी वाला तड़का लगाया गया है लेकिन कुछ देर तक हें-हें, खें-खें करने के बाद दर्शक को समझ में आ जाता है कि उसकी यह हंसी खोखली और जबरन है। घिसे-पिटे संवादों और थक चुके पंचेज़ पर आखिर कोई हंसे भी तो कब तक? नायक-नायिका प्यार में डूबे जा रहे हैं, रोमांटिक गाने गा रहे हैं लेकिन उनके प्यार की खुशबू आपके नथुनों तक न पहुंचे और आपका ध्यान रश्मिका मंदाना की क्लीवेज में अटका रहे तो समझ जाइए कि बनाने वाले कहीं तो चूके ही हैं। स्क्रिप्ट के प्रवाह में सहजता की कमी और कमज़ोर सीक्वेंस के चलते यह फिल्म ज़्यादातर समय दर्शकों को बांध कर नहीं रख पाती। ‘हॉरर’ यानी ‘डर’ की खुराक देखने के शौकीन दर्शक तो इससे खासे निराश हो सकते हैं। पर्दे पर कौन, किस से, क्यों भिड़ रहा है, इन तमाम किरदारों में दर्शक को किस से हमदर्दी रखनी है, किस से नफरत करनी है, यह भी स्पष्ट नहीं हो पाता। सबसे बड़ी बात यह कि यह फिल्म आपको ‘देती’ कुछ नहीं है। आप इसकी कहानी से क्या सबक लेंगे, यह निकल कर ही नहीं आ पाता। लेखन के स्तर पर यह फिल्म आगे आने वाली उस फिल्म की भूमिका ही बांधती रही जिसमें अब वेताल यानी थामा का मुकाबला भेड़िए से होगा।
और यह ‘थामा’ का अर्थ क्या है? फिल्म में हालांकि ‘नायक’ या ‘लीडर’ के तौर पर इस शब्द को इस्तेमाल किया गया है लेकिन यह शब्द आया कहां से? वैसे भी अंग्रेज़ी के Thamma को हिन्दी में थाम्मा या थम्मा होना चाहिए था, थामा नहीं। आदित्य सरपोतदार का निर्देशन साधारण रहा है। वह उस किस्म की कसावट नहीं ला सके जो इस किस्म की फिल्मों का अनिवार्य गुण होती है।
आयुष्मान खुराना इस तरह की भूमिकाएं सहजता से करते आए हैं। इस बार भी उन्होंने खुद को दोहराया है। रश्मिका मंदाना को उत्तर-दक्षिण का संतुलन बनाने के लिए इस फिल्म में लिया गया, वरना उनके किरदार में कोई रवानगी नहीं दिखी। बोलते समय तो वह जान्ह्वी कपूर का अहसास देती रहीं। परेश रावल साधारण रहे। अपने बेटे आलोक को उसके सरनेम ‘गोयल’ से पुकारने वाला पिता पहली बार देखा। ‘पंचायत’ वाले फैज़ल मलिक बढ़िया काम कर गए। नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी जंचे। बाकी कलाकार साधारण रहे। सत्यराज ओवर रहे और वरुण धवन व अभिषेक बैनर्जी ठीक-ठाक। मलाइका अरोड़ा और नोरा फतेही ने रंगत बिखेरी। कुछ गाने देखने-सुनने में अच्छे लगे।
हालांकि इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ी रफ्तार पकड़ती है और क्लाइमैक्स से पहले संभलती भी है लेकिन कुल मिला कर यह फिल्म दर्शकों की उम्मीदों पर पानी फेरती है। इसे देखते हुए आंखें भारी होती हैं। चलते-फिरते प्रेत यानी वेताल की यह कहानी थोड़ी और लय-ताल में होती तो कमाल हो सकती थी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 October, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)

Bhut hi bdia 🙏🙏
धन्यवाद
एकदम चुटिया पिक्चर पैसा बरबाद हो गया
Great
Very good, my dear Deepak Dua.
Thanks Sir
चलो कतार में…. एक और बे-ताल आ गई….. ज़रूरी नहीं कि कलाक़ारों की भीड़ को इकठ्ठा करने से फ़िल्म जबरदस्त बन जाए….?