-दीपक दुआ…
27 अगस्त, 1998। मुंबई की बेशर्म बारिश की वजह से हम लोग एक घंटे देर से सौरभ शुक्ला के यहां पहुंचे थे। अपनी इस पहली मुंबई यात्रा के दौरान पिछली शाम सौरभ शुक्ला को फोन करते ही उन्होंने अगले दिन सुबह आने का न्यौता दे दिया था।
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बिल्डिंग की चौथी मंजिल के उसे छोटे से फ्लैट का दरवाजा खुद सौरभ ने खोला। गहरे नीले रंग की बंद गले की शर्ट और नीले रंग का निकर पहने निहायत ही आम आदमी के मुखौटे में छिपे इस शख्स का बौद्धिक स्तर बाद में हुई बातचीत में तो झलका ही, साधारण साज-सज्जा वाले उनके ड्राइंग रूम में बैठते ही इसका आभास तो होने ही लगा था। ‘आप बैठिए, मैं अभी आया’ कह कर सौरभ दूसरे कमरे में गए तो नज़र पड़ी करीने से सजी किताबों की अलमारी पर। ‘इंडियाज़ बैंडिट क्वीन’, ‘चंद्रकांता संतति’, ‘वीडियो वर्ल्ड’, ‘द मनी चेंजर्स’, ‘द होली बाईबल’, ‘कृष्ण चंदर की कहानियां’, ‘आधुनिक होम्यो चिकित्सा’, शब्दकोश और भी न जाने क्या-क्या। साथ ही एक अलमारी में मशहूर अंग्रेज़ी फिल्मों के वीडियो कैसेट्स कतार से लगे हुए नज़र आए। तभी सौरभ हाथों में पानी के गिलास लिए आ बैठे। शुरुआती औपचारिकताओं के बाद बातों का सिलसिला चल निकला
अपने बारे में बताते हुए सौरभ बोले, ‘मेरी पैदाइश गोरखपुर की है पर करीब 2 साल की उम्र में ही मैं दिल्ली आ गया था। मेरे पिता प्रोफेसर शत्रुघ्न शुक्ला दिल्ली यूनिवर्सिटी के संगीत विभाग के प्रमुख थे और मेरी मां इस विभाग में लेक्चरर थीं। मेरा एक भाई है जो टीचर है दक्षिण अफ्रीका में। मतलब यह कि हमारा परिवार पढ़ने-पढ़ने वालों का रहा है। हमारे यहां ऐसा था कि अगर आप एमए, पीएचडी नहीं हैं तो इसका मतलब आपने कुछ किया ही नहीं। पर मैं कभी अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा। बुरा भी नहीं था, बस ठीक-ठाक से नंबर ले आता था।’
यहीं पता चला कि सौरभ भी दिल्ली के लुडलो कैसल नाम के उसी स्कूल के छात्र रहे हैं जिसमें मेरी भी 12 साल पढ़ाई हुई है। स्कूल के समय की मंचीय गतिविधियों के बारे में वह बताते हैं, ‘स्कूल में स्टेज तो नहीं किया पर मैं गाता था। हालांकि माता-पिता दोनों इसी लाइन में थे पर मैंने कभी भी व्यवस्थित तरीके से गाना सीखा नहीं। कभी-कभार थोड़ा-बहुत लिख भी लेता था पर यह नहीं मालूम था कि आगे क्या करना है।’
फिर भी स्कूली ज़िंदगी के अपने सपने तो होते ही हैं। अधपके, हवा में बुने गए सपने? ‘हां एक सपना शुरू से रहा कि पिक्चर बनाई जाए। पर मालूम नहीं था कि पिक्चर बनती कैसे हैं। बस यह पता था कि एक रील होती है, कैमरा होता है, शूट करते हैं और पिक्चर बन जाती है। और यह खुमारी कई दिनों तक छाई रही। यह 1984 की बात है। उन दिनों कॉलेज का पहला साल था। तभी मेरे एक दोस्त ने कहा कि भाई फिल्म बनाना तो दिक्कती काम है क्योंकि मालूम किसी को नहीं है। तो एक काम करते हैं कि एक नाटक कर लेते हैं। बात सबको जंच गई। पर तब तक मैंने थिएटर देखा नहीं था तो वह मुझे मंडी हाउस लेकर गया और श्रीराम सेंटर में मैंने पहली बार नाटक देखा। नाटक देख कर मैं दंग रह गया और मैंने तय किया कि अब हम नाटक ही करेंगे। पर नाटक देखने में और खुद परफॉर्म करने में काफी फर्क है। तो समझ में नहीं आ रहा था कि किसका नाटक करें तो मैंने कहा कि हटाओ यार, मैं खुद ही लिखता हूं। तो मैंने पहले नाटक लिखा-‘सब चलता है’ जो एक व्यंग्य था। और इस तरह मैं लेखक बना।’
‘जब नाटक किया तो शो तक नहीं पता था कि आखिर ऐसा क्या होता है जो आपको पागल कर देता है। पर जब नाटक खत्म हुआ और तालियां बजीं तो ऐसा लगा कि अचानक बहुत ऊंचाई पर पहुंच गए हैं। जैसे बहुत कुछ पा लिया हो। इसके बाद हमने एक ग्रुप शुरू किया। ज़्यादा नाटक नहीं किए क्योंकि सभी स्टूडेंट थे और कॉलेज से निकलकर नौकरी-पेशे में जा रहे थे। पर मेरी दिलचस्पी इस तरफ बढ़ती चली गई और मैं एक ग्रुप ‘साक्षी’ में चला गया।’ हमारी बातचीत के बीच सौरभ का मोबाइल फोन बज उठता है और वह किसी को आश्वस्त करते हैं कि कल तक सारे सीन लिख देंगे। ‘हां, तो कहां थे हम?’ साक्षी… ‘हां, साक्षी में रह कर मैंने बड़े-बड़े नाटककारों के नाटक किए। एक्टिंग भी की, डायरेक्शन भी किया और फिर मैंने वहां नाटक भी लिखे। मेरा लिखा ‘उलझन’ संगीत नाटक अकादमी के राष्ट्रीय समारोह में गया। फिर ‘तांडव’ काफी पॉपुलर हुआ। मतलब एक्टिंग और लेखन के मेरे दोनों शौक वहां पूरे होते गए। थिएटर आपको मौका भी देता है खुल कर काम करने का।’ और पढ़ाई? ‘मैंने एमकॉम का एक साल किया पर तब तक यह तय हो चुका था कि मुझे किस लाइन में जाना है। इसलिए मैंने उसे छोड़ दिया।’
दिल्ली से मुंबई का रुख कैसे किया? ‘लोगों को लगता है कि मैं यहां स्ट्रगल करके गया। पर मुंबई मैं आया था आठ दिन की छुट्टी पर कि चलो देखते हैं कैसा शहर है, कैसा माहौल है। इन आठ दिनों में मुझे यहां दो रोल ऑफर हो गए पर वह बहुत ही खराब रोल थे। इसलिए मैंने नहीं किए। छुट्टी खत्म हुई और मैंने अपने दोस्त से कहा कि चलो वापस, बकवास शहर है, कुछ नहीं रखा यहां। तो हम वापस चले गए। दरअसल मुझे बहुत ही मुश्किल लगा था यह शहर कि लोग काम कर रहे हैं, जमे हुए हैं, कौन अपने को काम देगा।’
फिर एनएसडी (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) से कैसे जुड़ना हुआ? ‘वापस पहुंचे तो लगा कि यार अब कुछ कमाना भी चाहिए तो मैं एनएसडी रिपर्टरि में फॉर्म भरा। यह एक ऊंची उड़ान थी क्योंकि एनएसडी रिपर्टरि में होना काफी बड़ी बात मानी जाती है, वह भी उस समय जब एक ही पोस्ट थी और कोई 400 उम्मीदवार थे। उसी ऑडिटोरियम में मेरा इंटरव्यू हुआ था जहां मैं एनएसडी स्कूल के लिए फेल हो चुका था। वहां मैं दो साल रहा 1991 से 1993 तक।’ तभी सौरभ की पत्नी चाय लिए आ पहुंची। ‘यह मेरी पत्नी है वर्णाली।’ परिचय करवाते हुए वह बोले। चाय के साथ-साथ बात आगे चलने लगी। ‘इस दौरान ‘द लिटिल बुद्धा’ के लिए मेरा ऑडिशन हुआ पर वह फिल्म मुझे मिल नहीं पाई। बड़ा दुख हुआ। पर किस्मत की बात है कि इधर यह मना हुआ और उधर शेखर कपूर ने ‘बैंडिट क्वीन’ के लिए बुला लिया। यह 92 की बात है। फिर मैं एनएसडी वापस आ गया। 93 में 15 जून को मेरा आखिरी शो था उसके बाद वहां गर्मी की छुट्टियां हो जाती हैं। मैं और मनोज बाजपेयी सोच ही रहे थे कि चलो यार एक बार फिर मुंबई चलते हैं। अब तो एक फिल्म भी कर ली है कि अचानक 15 जून की सुबह-सुबह मेरे पास शेखर का फोन आया। उन्होंने पूछा-क्या कर रहा है? मैंने कहा-बस कल से छुट्टियां हैं। तो उन्होंने कहा कि तू एक टिकट ले फ्लाइट का, पैसा तुझे मिल जाएगा और मुंबई आ जा। तो इस तरह 17 जून को मैं यहां आ गया। यहां आया तो पता चला कि शेखर ने मुझे ‘तहकीकात’ के लिए कास्ट कर लिया है। उसी समय मनोज भी यहां आ गया और हम दोनों एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगे।’
टीवी से बड़े पर्दे पर जाना किस तरह हुआ? ‘जब ‘तहकीकात’ चल रहा था तो फिल्मों के ऑफर भी आने लगे। पर वे बड़े बेकार-से रोल थे। एक सीन-दो सीन वाले। सो मैं उन्हें छोड़ता गया 1995 में मुझे सुधीर मिश्रा ने एक फिल्म ऑफर की जिसका नाम था ‘इस रात की सुबह नहीं’। यह वही फिल्म थी जो काफी अच्छी होने के बावजूद निर्माता (प्लस चैनल) की खराब मार्केटिंग की वजह से नहीं चल पाई? ‘हां, उसकी रिलीज़ ठीक से नहीं हो पाई। पर इसी फिल्म के लिए मुझे स्क्रीन अवार्ड्स के लिए नामांकित किया गया। अवार्ड नहीं मिला पर यह भी उस समय काफी बड़ी बात थी। इसके बाद मुझे विधु विनोद चोपड़ा ने ‘करीब’ के लिए बुलाया। बुलाया तो एक्टिंग करने के लिए था पर एसोसिएट लेखक का काम भी सौंप दिया।
इसके बाद सौरभ को ऑफर मिला जिससे उनकी पहचान और पुख्ता हुई। ‘रामू (रामगोपाल वर्मा) ने मुझे ‘सत्या’ की पटकथा लिखने के लिए बुलाया। यह सोच कर कि ‘इस रात की सुबह नहीं’ मैंने लिखी थी। मैंने उन्हें असलियत बताई पर वह बोले कोई बात नहीं तुम ‘सत्या’ लिखो। साथ ही उन्होंने मुझे ‘सत्या’ में कल्लू मामा का रोल भी दिया। उसके बाद अब मैं आपके सामने बैठा हूं। सुनने में आया था कि ‘सत्या’ के बाद सौरभ को कई नामी हस्तियों से वाहवाही मिली है? ‘हां, ‘सत्या’ की रिलीज़ के फौरन बाद कई फोन आए। आदित्य चोपड़ा का, सुभाष घई का जिन्होंने मुझे ‘ताल’ में एक बड़ा रोल दिया और कहा कि अपनी अगली फिल्म में मैं तुम्हें बतौर लेखक लूंगा और जो एक सपने जैसा था वह था अमिताभ बच्चन का फोन। मेरे घर के नंबर पर उनका खुद फोन करके यह कहना कि मैं तुमसे मिलना चाहता हूं मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। हम लोग चाय पर मिले। उन्होंने मुझसे अपने निभाए किरदारों के बारे में पूछा और कहा कि मेरे लिए कोई अलग किस्म की कहानी लाओ। तब मैंने उनसे यही पूछा कि ऐसी कहानी सर चाहे तीन महीने में आए या तीन साल में आए तो क्या आप करेंगे? वह बोले कोई जल्दी नहीं है, आप पूरा वक्त लो। अभी तो ऐसी कोई कहानी मेरे दिमाग में नहीं है पर मैं सोच रहा हूं। तब मैंने उनसे कहा कि आप कैसा भी रोल करने के लिए तैयार होंगे तो उन्होंने कहा हां बिल्कुल करूंगा। मतलब मेरे लिए तो यह एक और बड़ी बात है कि अमिताभ बच्चन जैसी हस्ती मुझसे ये सब कहे।’
एक अच्छी स्क्रिप्ट को फिल्म निर्माण के लिए कितना ज़रूरी मानते हैं सौरभ? ‘अच्छी स्क्रिप्ट का होना जितना ज़रूरी है उतना ही उसे समझ कर फिल्म के रूप में लाना भी। मसलन ‘सत्या’ सिर्फ स्क्रिप्ट या सिर्फ डायरेक्शन या सिर्फ एक्टिंग के दम पर अच्छी नहीं है। यह इन तीनों का एक संतुलित मिश्रण है। मुझे लगता है कि डायरेक्शन स्क्रिप्ट से ज़्यादा ताकत रखता है। अगर डायरेक्टर अच्छा हो तो वह एक कमज़ोर स्क्रिप्ट को भी चला सकता है। हां अगर स्क्रिप्ट में भी दम हो तो फिर क्या कहने-वह कमाल कर सकता है!’
‘सत्या’ में सौरभ ने अंडरवर्ल्ड को कैसे इतनी गहराई में जाकर लिखा? ‘मौत के बारे में लोग बहुत लिखते हैं, मौत का अभिनय भी कर लेते हैं। कैसे? उन्हें अनुभव तो नहीं होता न इसका? एक समझ होती है, कल्पना होती है जो यह सब करने में मदद देती है। मैं जब नाटक करता था तो शादीशुदा नहीं था। पर मैंने कई बार शादीशुदा ज़िंदगी की जटिलताओं को स्टेज पर दिखाया है। यह सब कल्पना से ही होता है। अच्छी एक्टिंग के बारे में सौरभ का मानना है, ‘अगर आप दो काम बिल्कुल अलग-अलग करके दिखाएं तो आप अच्छे आर्टिस्ट हैं। दो कैरेक्टर्स एक जैसे हों तो भी आप अपनी परफॉर्मेंस से उन्हें जुदा करके दिखा सकते हैं। यही मेरी कोशिश भी है।’
अपनी इंडस्ट्री में अच्छी कहानियों की कमी ज़ोरों से महसूस की जा रही है। इसे दूर करने के उपाय पर सौरभ का कहना है, ‘लेखक को जब तक पूरी छूट नहीं मिलेगी तब तक अच्छी कहानी सामने नहीं आ सकती। साथ ही राइटर्स को भी समझना चाहिए कि फिल्म लिखना एक अलग तरह की विधा है। अब वह वक्त नहीं रहा जब दर्शक कुछ भी देख लेता था। अब दर्शक समझदार हो चुका है। वह तार्किक चीज़ देखना चाहता है। रोज़मर्रा का यथार्थ देखना चाहता है।’
अभी क्या कर रहे हैं सौरभ? ‘अभी तो महेश भट्ट साहब की दो फिल्मों में काम कर रहा हूं-‘यह है मुंबई मेरी जान’ और ‘ज़ख्म’। घई साहब की ‘ताल’ है, ज़ी टीवी पर ‘कोलगेट टॉप 10’ आ रहा है। लिख एक ही फिल्म रहा हूं विक्रम भट्ट की। और हंसल मेहता की एक फिल्म है ‘नौ दो ग्यारह’ जिसे सब लोग मिल कर बना रहे हैं, कोई पैसे नहीं ले रहा है, वह भी लिख रहा हूं।’ अपने शहर दिल्ली की कमी कितनी खलती है? उठते-उठाते पूछा तो सौरभ बोले, ‘शहर लोगों से होता है और दिल्ली को उतना ही मिस करता हूं जितने लोग मेरे वहां छूट गए हैं बस। वैसे तो अब ज़्यादातर दोस्त मुंबई ही आ गए हैं फिर भी याद तो आती ही है।’ बाहर बारिश थम चुकी थी सो सही मौका जान कर हमने सौरभ से विदा ली और अपने अगले मकाम की तरफ चल पड़े।
(नोट-यह इंटरव्यू ‘चित्रलेखा’ पत्रिका के नवंबर, 1998 अंक में प्रकाशित हुआ था।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)