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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-अच्छी ‘रे’ सच्ची ‘रे’ पक्की ‘रे’ कच्ची ‘रे’

Deepak Dua by Deepak Dua
2021/06/26
in फिल्म/वेब रिव्यू
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रिव्यू-अच्छी ‘रे’ सच्ची ‘रे’ पक्की ‘रे’ कच्ची ‘रे’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

ओ.टी.टी. पर इधर एक अच्छी चीज़ उभर कर आई है जिसका नाम है-एंथोलॉजी। यानी लगभग एक ही जैसे विषय पर कही गईं अलग-अलग कहानियों को एक जगह दिखाना। खासतौर से नेटफ्लिक्स पर ऐसी कहानियां काफी आ रही हैं। इसी पर आई ‘रे’ भी एक एंथोलॉजी है जिसमें महान फिल्मकार सत्यजित रे की लिखी चार कहानियों पर बनी चार फिल्में हैं। रे सिर्फ फिल्मकार ही नहीं, लेखक, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार, पत्रकार और भी न जाने क्या-क्या थे। इन चारों कहानियों की खासियत यह है कि इनके केंद्र में मुख्यतः पुरुष पात्र हैं जिनकी सोच, मनोदशा, आदतों, बातों आदि के ज़रिए ये कहानियां कुछ कहती हैं। क्या कहती हैं, आइए देखें।

पहली फिल्म ‘फॉरगेट मी नॉट’ रे की कहानी ‘बिपिन चौधरीर स्मृतिभ्रम’ पर आधारित है। कभी कुछ न भूलने वाला एक यंग, कामयाब बिज़नेसमैन अचानक से बातें भूलने लगता है। क्या है यह? कोई बीमारी या मन का वहम? या फिर कुछ और? कहानी को बड़े ही कायदे से उलझाया और सुलझाया गया है। अंत आते-आते यह चुभने लगती है और यह चुभन ही इसकी सफलता है। ‘बेगम जान’ बना चुके श्रीजित मुखर्जी ने इसे बहुत ही कायदे से फिल्माया है। दृश्यों के विस्तार के अलावा उन्हें समेटते हुए भी संवेदना बरती गई है। अली फज़ल तो उम्दा रहे ही हैं, श्वेता बासु प्रसाद, अनिंदिता बोस जैसे बाकी कलाकार भी जमे हैं। 65 मिनट की अच्छी फिल्म है यह।

दूसरी फिल्म ‘बहरूपिया’ रे की कहानी ‘बहुरूपी’ पर आधारित है। इसे भी श्रीजित मुखर्जी ने ही निर्देशित किया है। 53 मिनट की इस फिल्म का नायक इंद्राशीष नौकरी के साथ-साथ एक मेकअप आर्टिस्ट भी है। मरते समय दादी उसे बहुरूपिया बनने की कला पर एक किताब दे गई है। अब वह रूप बदल कर वो सब कर रहा है जो वह असल में नहीं कर पाता । मगर क्या तन का रूप बदलने से मन का भी रूप बदल जाता है? इंसानी मन की दबी-ढकी कुंठाओं, इच्छाओं को बेहद प्रभावी चित्रण मिलता है इस फिल्म में। के.के. मैनन ने जितना अच्छा काम किया है उतने ही बेहतर पीर बाबा के किरदार में दिब्येंदु भट्टाचार्य भी रहे हैं। बिदिता बाग, राजेश शर्मा और बाकी कलाकारों का भी भरपूर असर रहा। हर इंसान के अंदर के दंभ की सच्ची कहानी दिखाती है यह।

‘इश्किया’, ‘उड़ता पंजाब’ जैसी कई फिल्में बना चुके अभिषेक चौबे ने रे की कहानी ‘बारिन भौमिकेर ब्यारोम’ पर ‘हंगामा है क्यों बरपा’ बनाई है। ट्रेन में दो शख्स मिले हैं-एक गायक, एक पहलवान। दोनों को लगता है कि वह पहले भी मिल चुके हैं। गायक को याद है कि कहां और कैसे मिले थे और जब पहलवान को याद आता है तो कहानी का रुख ही पलट जाता है। बाकी कहानियों की तरह इसमें भी इंसानी मन की उलझनों और कुंठाओं को सलीके से उबारा गया है। फिर मनोज वाजपेयी और गजराज राव की बेमिसाल एक्टिंग इसे अलग ही मकाम पर ले जाती है। मनोज पाहवा भी आकर मजमा लूटते हैं इस 54 मिनट की फिल्म में जो अपने विषय और उसकी प्रस्तुति के चलते काफी पक्की (मैच्योर) लगती है।

इस सीरिज़ की आखिरी फिल्म है ‘स्पॉटलाइट’ जो रे की इसी नाम की कहानी पर बनी है 63 मिनट की यह फिल्म ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ बना चुके वासन बाला ने डायरेक्ट की है। एक हीरो होटल में रहने आया है। उस हीरो की एक खास लुक के लोग दीवाने हैं। लेकिन उसी होटल मेंएक धर्मगुरु ‘दीदी’ के आने के बाद सब उलटा-पुलटा होने लगता है। इस कहानी का प्रवाह धीमा है और इसकी पटकथा उलझी हुई। सीरिज़ की सबसे कमज़ोर इस कहानी में हीरो के रोल में एक ‘नॉन-एक्टर’ चाहिए था और अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर इस रोल में एकदम ‘फिट’ रहे हैं। सिर्फ लुक है उनके पास, एक्टिंग नहीं। वासन भी इसे रोचक नहीं बना पाए। चंदन रॉय सान्याल और राधिका मदान का काम ज़रूर देखने लायक रहा। सारी कहानियों में सबसे कच्ची यही वाली रही।

सत्यजित रे की कहानियों को जिस तरह से पटकथा लेखकों ने आज के दौर की सिनेमाई ज़रूरत के मुताबिक बदला है, उसकी तारीफ होनी चाहिए। निर्देशकों ने भी इन्हें दम भर साधने की कोशिश की है। इस काम में ये लोग कहीं अच्छी, कहीं सच्ची, कहीं पक्की तो कहीं कच्ची चीज़ें परोस गए हैं। आप अपनी पसंद के मुताबिक इन्हें देख-छोड़, पसंद-नापसंद कर सकते हैं।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-25 June, 2021 on Netflix

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: abhishek chaubeyAli Fazalbidita bagchandan roy sanyaldibyendu bhattacharyagajraj raoharshvardhan kapoorkay kay menonManoj Bajpaimanoj pahwaNetflixrayRay reviewsrijit mukherjivasan bala
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