-दीपक दुआ…
यह बात है 21 अगस्त, 2004 की। न्यौता मिला जल्द आने वाली फिल्म ‘किंग ऑफ़ बॉलीवुड के निर्देशक पीयूष झा और अभिनेता ओम पुरी से मिलने का। कोई और अभिनेता होता तो शायद छोड़ भी देते लेकिन ओम पुरी से पहली बार मिलने का लालच मेरे लिए कम नहीं था। ‘फिल्मी कलियां’ का अंक महीने की 21-22 तारीख को छपने के लिए चला जाता था। मेरी गुजारिश पर संपादक जी ने कुछ पन्ने रोके और तय हुआ कि ओम पुरी से बातचीत छापी जाए।
नई दिल्ली के होटल ली मेरीडियन की पंद्रहवीं मंजिल के उस कमरे में पत्रकारों का जमघट था और ज्यादातर पत्रकार ओम जी व पीयूष से दो-चार रुटीन किस्म के सवाल और उनकी आने वाली फिल्म से जुड़ी बातें करके लौट जा रहे थे। लेकिन मेरी प्यास कुछ ज्यादा ही थी और इसी वजह से मैं रुका हुआ था। जब ओम जी को बताया गया तो उन्होंने मुझ से कहा कि अगर फटाफट बातें करनी हैं तो अभी कर लो वरना इंतजार करो। दरअसल उन्हें एक टी.वी. चैनल से बात करने नोएडा जाना था।
करीब दो घंटे बाद ओम जी लौटे तो उन दिनों ली मेरिडियन में योग सिखाने वाले योग गुरु सुनील सिंह ने उन्हें कुछ देर तक आसन करवाए। इसके बाद उन्होंने मुझे अपने बैडरूम में ही बुलवा लिया। ‘आप को मैंने बहुत इंतजार करवाया… अगर एतराज न हो तो मैं लेट कर बात कर लूं, मेरी पीठ में बहुत दर्द है…।’ इसके बाद हमारी बातचीत शुरू हुई जिसमें हमने दुनिया-जहान के मुद्दों पर बातें कीं। उनमें से कुछ बातें ‘फिल्मी कलियां’ में छपी थीं, उनमें से भी कुछ हिस्से पेश हैं-
-एक तरफ ‘देव’, ‘मुहाफिज’, ‘द्रोहकाल’, ‘मकबूल’ जैसी फिल्में और दूसरी तरफ आम मसाला फिल्में करने के दौरान आपके अंदर के कलाकार को क्या फर्क महसूस होता है?
-जो हमारी सामाजिक सच्चाई से जुड़ी हुई फिल्में हैं उनको मैं अपने ज्यादा नजदीक पाता हूं, मुझे उनमें ज्यादा आनंद आता है। लेकिन उस तरह की फिल्मों में धन न के बराबर होता है इसलिए मुझे काफी ऐसी फिल्में भी करनी पड़ती हैं जिनमें मुझे उतना आनंद नहीं आता। पर इसका मतलब यह नहीं है कि मैं उन्हें बेमन से करता हूं। अब देखिए, डेविड धवन की तीन फिल्में की हैं मैंने। आप देखेंगे तो कहेंगे कि आप तो खूब आनंद से काम कर रहे हैं। मैं अपने को एक प्रोफेशनल मानता हूं। जिस आदमी से मैं अपनी जीविका के लिए पैसे ले रहा हूं उसके साथ मैं नाइंसाफी नहीं करूंगा। इसे इस तरह कहेंगे कि हम लोग एक कंट्राडिक्शन में जीते हैं कि जिस तरह के सिनेमा की मैं आलोचना करता हूं, उसी में काम भी करता हूं क्योंकि यह मेरी जिंदगी की सच्चाई है कि मैं टाटा-बिड़ला के खानदान से तो हूं नहीं कि भैया मुझे फिल्मों से पैसा नहीं चाहिए, मैं सिर्फ अच्छी फिल्में करूंगा।
-‘देव’ को लेकर काफी चर्चा थी और यह फिल्म हमारे समाज की सच्चाई दिखाती भी है। पर इसे बॉक्स-ऑफिस पर जो रिस्पांस मिला उससे आप किस हद तक संतुष्ट हैं?
-‘देव’ से जितना रिस्पांस सोचा था वह तो नहीं मिला, यह बात सही है। मुझे लगता है कि एक तो यह फिल्म ज्यादा लंबी है और दूसरे इसमें शब्दों का आडंबर काफी ज्यादा है। इसका स्टैंड क्या है, यह किस पक्ष की बात करती है, यह ठीक से समझ में नहीं आता जैसे कि ‘अर्द्धसत्य’ में या ‘द्रोहकाल’ में आता था। इसके ज्यादा न चल पाने के लिए मैं दर्शकों को दोषी नहीं ठहराऊंगा क्योंकि अगर ऐसा होता तो वे ‘अर्द्धसत्य’ या ‘आक्रोश’ जैसी फिल्में नहीं देखते।
-‘अर्द्धसत्य’ के पुलिस वाले अनंत वेलणेकर से लेकर ‘देव’ के तेजिंदर खोसला तक के सफर में आए सामाजिक बदलावों को आप किस नजर से देखते हैं?
-मुझे लगता है कि आम आदमी अमन पसंद है। वह दंगों के हक में नहीं है। इस इलैक्शन में भी पता चल गया कि जो गुजरात में हुआ था लोग उससे उत्साहित नहीं हैं वरना वे बी.जे.पी. को उखाड़ते नहीं। मुझे लगता है कि सत्ता की शह और कानून-व्यवस्था जिनके हाथ में है, उनकी मदद के बिना दंगे नहीं हो सकते। लोगों को यह समझ में आया है और वे अमन की ओर तो मुड़े ही हैं, साथ ही जागरूक भी हुए हैं। अभी हाल ही में कुछ औरतों और बच्चों ने एक अदालत में घुस कर एक अपराधी को मार डाला जिन्हें लगता था कि अदालतों से इंसाफ नहीं मिलने वाला। यह एक प्रकार का सामाजिक आक्रोश है जो हमारे बदलते हुए समाज को दिखाता है। आम आदमी का न्याय पर से विश्वास उठ रहा है। हमने इतने घोटालों के बारे में पढ़ा। चारा, तेलगी, हर्षद मेहता, बोफोर्स और न जाने क्या-क्या, पर क्या हुआ? किसी को सजा मिली? कितने ही लोगों के नाम सामने आए पर आज तक किसी बड़े आदमी को सजा नहीं मिली यानी उनमें से कोई दोषी है ही नहीं। मायावती जी चीफ मिनिस्टर बन कर राजा भैया को अंदर करा देती हैं और मुलायम सिंह जी मुख्यमंत्री बनते ही उन्हीं राजा भैया को मंत्री बना देते हैं। यानी या तो मायावती जी सही नहीं थीं या फिर मुलायम सिंह जी गलत हैं। तो, हम लोग बेवकूफ बनते रहते हैं पर कुछ नहीं होता। जेसिका लाल को सरेआम मार दिया जाता है और किसी में और किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि कोई उसके लिए बयान दे।
-इधर हमारी फिल्में बार-बार यह थ्योरी पेश कर रही हैं कि अपराधी को अदालत तक ले जाना बेकार है और उसे सड़क पर ही सजा दे देनी चाहिए। इस थ्योरी से आप व्यक्तिगत तौर पर कितने सहमत हैं?
-सर, अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि सहमत होना पड़ता है। अब अभी फांसी हुई धनंजय को। 14 साल लगे अदालत को यह फैसला करने के लिए। सालों-साल मुकदमें चलते रहते हैं। तेलगी साहब बैठे हुए हैं। अरे भैया, फैसला क्यों नहीं हो रहा है? क्यों बंद कर दिया पत्रकारों ने उनके बारे में लिखना? मीडिया सरकार से पूछता क्यों नहीं?
-बतौर कलाकार आप जो आशाएं-आकांक्षाएं लेकर चले थे, क्या वे पूरी हो पाईं?
-देखो दोस्त, सभी आशाएं और आकांक्षाएं कभी किसी इंसान की पूरी नहीं हो पाती हैं। यह मिल गया तो वह छूट गया, वह मिल गया तो यह रह गया। हां, इतना जरूर है कि जो मिला है उससे मुझे कोई गिला नहीं है। थोड़ा और मिल जाता तो भी कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं था।
-थिएटर आपने काफी समय से नहीं किया। इच्छा नहीं होती?
-इच्छा होती है पर ऐसी कोई छटपटाहट भी नहीं है। दरअसल सामाजिक सरोकारों से जुड़ी बातें कहने के लिए फिल्मों को मैं ज्यादा बेहतर माध्यम मानता हूं। थिएटर देखने जो लोग आते हैं वे पहले ही समाज के उस कुलीन तबके से हैं जिनका जीवन-स्तर काफी ऊंचा है और जो थिएटर देख कर, उसे एप्रिशिएट करके अपने अभिजात्य होने की भावना को तुष्ट करना चाहते हैं। उन्हें इससे कोई सबक नहीं लेना है कि नाटक में क्या दिखाया गया।
-गाड़ी जिस रफ्तार से और जिस दिशा में चल रही है, उससे संतुष्ट हैं?
-संतुष्ट हुए बिना चारा भी नहीं है। असंतुष्ट रहेंगे तो वह असंतुष्टि आपके काम में झलकेगी। तो बेहतर है कि या तो संतुष्ट रहिए या यह जगह ही छोड़ दीजिए।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)