–दीपक दुआ…
नीला माधव पांडा से अपनी दोस्ती उतनी ही पुरानी है जितनी कि उनकी पहली फिल्म ‘आई एम कलाम’। इस फिल्म से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति और बेशुमार पुरस्कार पाने वाले नीला ने इसके बाद कन्या भ्रूण हत्या के साथ पानी बचाने का संदेश देती ‘जलपरी’ , एच.आई.वी. और एड्स की बात करती ‘बबलू हैप्पी है’ और पानी की कमी, जाति प्रथा व ऑनर किलिंग पर ‘कौन कितने पानी में’ बनाईं। अब वह जो ‘कड़वी हवा’ लेकर आ रहे हैं उसे जलवायु परिवर्तन पर बनी पहली हिन्दी फिल्म कहा जा रहा है। पिछले साल भारत सरकार से पद्मश्री सम्मान पा चुके नीला माधव पांडा मुझ से हुई इस बातचीत में सारी बातें विस्तार से बता रहे हैं।
कैसे हुई शुरूआत
मैं जिस इलाके से आता हूं वहां बाढ़ देखना, तूफान झेलना जैसी बातें आम थीं। हम लोग इस तरह की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। हमें लगता है कि यह तो होता रहता है, इसमें हम क्या कर सकते हैं। लेकिन जब दो साल में एक बार आने वाली बाढ़ एक साल में दो बार आने लगे या चार-पांच साल में पड़ने वाला सूखा हर साल पड़ने लगे तो समझ लेना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है। अब देखिए न कि हम लोग दिल्ली में प्रदूषित हवा की बात सालों से करते आए हैं लेकिन प्रदूषण के कारण हर साल कुछ दिन तक पूरा शहर हवा में ही डूब जाए तो यह गड़बड़ है। तो बस, इसी से आइडिया आया और हमारी कहानी का जन्म हुआ।
किरदारों के जरिए बात
मैंने इस फिल्म को लेकर किसी तरह का कोई रिसर्च वर्क नहीं किया और न ही मेरे पास करोड़ों रुपए थे कि मैं हॉलीवुड की डिसास्टर वाली फिल्मों की तरह तूफान या बाढ़ दिखाता। तो मैंने तय किया कि इस कहानी को मैं दो मुख्य किरदारों के जरिए कहूंगा। एक जवान किरदार है जो रणवीर शौरी ने निभाया है और दूसरा संजय मिश्रा ने जो एक बिल्कुल ही हाशिए पर बैठा व्यक्ति है। बूढ़ा है, गरीब है और ऊपर से अंधा है। यानी उसकी इस समाज में किसी को फिक्र नहीं है। जो वह कहता है, उससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन विडंबना देखिए कि वह जो कहता है वही सही होता है।
चंबल ही क्यों
इस फिल्म की कहानी चंबल के एक ऐसे गांव की है जहां न तो बिजली है और न ही अभी तक सड़क पहुंची है। यहां बच्चे अभी तक नंगे घूमते हैं। दरअसल चंबल को हम सिनेमा के जरिए एक ऐसे इलाके के तौर पर जानते हैं जहां ताकत है, भय है। तो ऐसे इलाके में आदमी अचानक कैसे सुनसान हो जाता है, कैसे कड़वी हवा आकर उन पर असर डालती है। वही हवा जो कभी बारिश लाती थी, हरियाली लाती थी, पंछी लाती थी अब वह कैसे बदल चुकी है। यह दिखाने के लिए मुझे यही इलाका उपयुक्त लगा। मैंने इसमें चंबल का वह इलाका दिखाया है जो बुंदेलखंड में आता है और पिछले बीस साल से सूखे से जूझ रहा है।
कड़वा संदेश देगी फिल्म
जलवायु परिवर्तन हर जगह हो रहा है। कभी मुंबई पानी में डूब जाता है तो कभी चैन्नई। दिल्ली हवा में घिर कर अंधी हो जाती है। हम सब को मालूम है कि बदलाव आ रहा है लेकिन हम उसे लेकर सीरियस नहीं हैं। हम लोग अपना घर, अपनी गाड़ी, अपनी नौकरी, अपने परिवार में उलझे रहना चाहते हैं। तो मैं इस फिल्म के जरिए सीधे-सीधे यह बात कहना चाहता हूं कि अगर अब भी हम लोगों ने आंखें नहीं खोलीं तो हम सब डूबने वाले हैं। चाहे पानी डुबाए, हवा डुबाए या सूखा, लेकिन विनाश होगा और फिर हम उसे रोक भी नहीं पाएंगे।
संजय मिश्रा ही क्यों
संजय मिश्रा जी को हम लोग ज्यादातर फिल्मों में कॉमेडी करते हुए ही देखते हैं। उन्हें इस तरह के किरदार में लेना मेरे लिए भी एक अनोखा कदम था। पर जब मैं उनसे पहली बार मिला तो मैंने उनके भीतर एक ऐसी मासूमियत को महसूस किया जो हमें ज्यादातर इंसानों में देखने को नहीं मिलती है। मुझे इस किरदार में ऐसा ही कलाकार चाहिए था और इस फिल्म का ट्रेलर आने के बाद संजय जी के बारे में जो कुछ कहा जा रहा है, उससे मुझे अपने फैसले पर गर्व हो रहा है।
बड़े बैनर का असर
इस फिल्म से दृश्यम फिल्म्स जैसे बैनर का जुड़ना एक बड़ी बात है। ये लोग ‘आंखों देखी’, ‘मसान’, ‘न्यूटन’ जैसी फिल्में ला चुके हैं और अलग किस्म के सिनेमा के प्रति इनका जो समर्पण है उससे और बेहतर सिनेमा निकल कर आएगा। दृश्यम के आने की वजह से यह फिल्म एक अलग स्तर तक जा पहुंची और यह जरूरी भी है कि अगर हमें अलग तरह की फिल्में चाहिएं तो उन्हें सपोर्ट भी करना होगा।
संगीत है कुछ अलग
गीत-संगीत इस फिल्म का बहुत ही सशक्त हिस्सा है। मैं कहूंगा कि एक नए किस्म का साउंड आपको इस फिल्म में सुनने को मिलेगा। नए लोग इससे जुड़े हैं। चाहे वो गीतकार मुक्ता ध्यानी हों, संगीतकार संतोष जगदाले या गानों को गाने वाले। बैकग्राउंड म्यूजिक देने वाले मंगेश धकड़े काफी पुराने हैं जिन्होंने इसमें बेहतरीन काम किया है।
फ़ॉर्मूला सिनेमा से दूरी
मैंने मसाला फिल्में कभी नहीं बनाईं। मेरे अंदर अलग ही किस्म का कलाकारी कीड़ा है। मेरी प्रॉब्लम मैं खुद ही हूं। मेरे पास अच्छी कहानी होगी तो मैं घर-द्वार बेच कर भी उसे बनाना चाहूंगा लेकिन मैं कोई घटिया काम नहीं करूंगा भले ही मुझे खाली बैठना पडे़।
अगली फिल्म म्यूजिकल
मेरी अगली फिल्म का नाम होगा ‘हल्का’। यह एक म्यूजिकल फिल्म होगी जिसमें बतौर संगीतकार शंकर-अहसान-लॉय काम कर रहे हैं। बहुत जल्द मैं इसे फ्लोर पर ले जाने वाला हूं।
(नोट-नीला माधव पांडा के साथ मेरी इस बातचीत के संपादित अंश ‘हरिभूमि’ अख़बार में 18 नवंबर, 2017 को प्रकाशित हुए थे)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)