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Home बुक-रिव्यू

बुक-रिव्यू : ‘द एवरेस्ट गर्ल’ पर तो फिल्म बननी चाहिए

Deepak Dua by Deepak Dua
2024/06/30
in बुक-रिव्यू
0
बुक-रिव्यू : ‘द एवरेस्ट गर्ल’ पर तो फिल्म बननी चाहिए
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-दीपक दुआ…

उस लड़की के बारे में सोचिए जो मध्यप्रदेश के एक छोटे-से गांव के एक साधारण किसान के घर में जन्मी, छोटी उम्र में जिसका रिश्ता तय कर दिया गया, रिश्तेदारों के घरों में रह कर छोटे-मोटे काम करते हुए जिसने पढ़ाई की, दो वक्त की रोटी कमाने के लिए ढेर सारा संघर्ष किया और एक दिन वह जा पहुंची दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत पर-अपने देश का, अपने दृढ़ इरादों का ध्वज फहराने। लेकिन ऑक्सीजन खत्म होने के चलते महज सात सौ मीटर दूर से उसे लौटना पड़ा। मगर उसने हार नहीं मानी और कुछ समय बाद जो उसने फिर से कदम उठाया तो माउंट एवरेस्ट का माथा चूम कर ही लौटी।

मेघा परमार

मध्यप्रदेश की पहली महिला एवरेस्ट विजेता मेघा परमार की पूरी कहानी सुनने बैठिए तो लगता है कि सब झूठ है। ऐसा भी भला कहीं होता है कि एक लड़की जिसे कदम-कदम पर बाधाएं मिली हों, जिसके माता-पिता तक ने उसे एक दिन त्याग दिया हो, जिसके पास न पैसा हो न बड़े संपर्क, और वह सिर्फ अपने मजबूत इरादों और संकल्प के दम पर उस सगरमाथा की चोटी को दो-दो बार फतेह करने जा पहुंची हो जहां एक बार जाने का खर्च कई लाख रुपए आता है। लेकिन मेघा जैसी लड़कियों की कहानियां झूठ नहीं होतीं। हां, अकल्पनीय जरूर होती हैं। और इसीलिए ‘द एवरेस्ट गर्ल’ (The Everest Girl) जैसी किताबों को पढ़ा जाना चाहिए ताकि पाठकों, खासकर आने वाली पीढ़ियों को इनके संघर्ष का अंदाज़ा हो और कुछ कर गुज़रने की प्रेरणा मिले।

यह किताब ‘द एवरेस्ट गर्ल’ (The Everest Girl) कोई कहानी नहीं कहती बल्कि इसमें सीधे-सीधे मेघा की ज़ुबानी उसके बचपन से एवरेस्ट विजय करने तक की उस संघर्ष गाथा का वर्णन है जो शायद हिमालय से भी बड़ी है। लेखक ब्रजेश राजपूत ने इस गाथा को पन्नों पर उतारते समय भाषायी लच्छे बनाने की बजाय इसे सहज-सरल रखा है जिससे लगता है कि मेघा खुद अपनी कहानी कह रही हैं। साहित्यिक पुट अधिक होता तो यह पुस्तक भले ही और गहरी होती लेकिन तब इसमें ‘अपनापन’ नहीं होता। अभी तो इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे हम कुर्सी पर बैठे सामने पर्दे पर मेघा के जीवन में घट रही घटनाओं का कोई चलचित्र देख रहे हैं। इस किताब ‘द एवरेस्ट गर्ल’ पर कोई बड़ा फिल्मकार इसी नाम से कोई भव्य, शानदार फिल्म बनाए तो सिनेमा और दर्शक अहसानमंद होंगे।

दो-एक जगह दिखी भाषाई चूकों, प्रूफ की भूलों और तथ्यात्मक गलतियों को नज़रअंदाज करते हुए भोपाल के मंजुल पब्लिशिंग हाउस से आई इस किताब ‘द एवरेस्ट गर्ल’ (The Everest Girl) को पढ़ा जाना चाहिए जो पाठक की आंखों को कई बार नम करने का दम रखती है।

(नोट-यह आलेख कनाडा से प्रकाशित होने वाले लोकप्रिय हिन्दी साप्ताहिक ‘हिन्दी अब्रॉड’ में प्रकाशित हो चुका है)

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमावपर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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