-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
इक लड़की है भागी-सी। हर समय अलसाई-सी। मिली इक अजनबी से और भाग ली अपनी ही शादी से। क्यों? क्योंकि पिता ने शादी के लिए पूछा नहीं था। हालांकि पूछते तो उसने हां ही कहना था। लेकिन पूछा क्यों नहीं था? अब आप ही कहें, यह कोई बात है?
दरअसल हरियाणा की पृष्ठभूमि वाली कहानी दिखाती यह फिल्म ‘कहां शुरू कहां खतम’ (इसे ‘खत्म’ नहीं, ‘खतम’ ही पढ़िए) यही कहना चाहती है कि औरतें सिर्फ घूंघट में ढक कर रखने के लिए नहीं होतीं बल्कि उनसे उनकी मर्ज़ी भी पूछी जानी चाहिए। अब इस गंभीर मैसेज को सीधे-सीधे कह दिया जाता तो आप कहते कि थिएटर में उपदेश सुनने थोड़े ही जा रहे हैं। सो, लिखने वालों ने इस कहानी के चारों तरफ लपेट दिया कॉमेडी का रैपर और बनाने वालों ने बना दिया इसे एक रोमांटिक-कॉमेडी जो अंत में आकर औरतों की आज़ादी का मैसेज भी दे गई।
शादी वाला घर, रंग-बिरंगे किरदार और हंसी-हंसी में कही गई गंभीर बातों वाला ट्रैक हिन्दी फिल्में बनाने वालों को सुहाता है। ढेर सारे किरदारों की मौजूदगी से हास्य उत्पन्न होता है और हर किसी को अलग-अलग रूप देकर दर्शकों के हर वर्ग पर पकड़ बनाने की कोशिशें आसान हो जाती हैं। यहां भी ऐसा ही है। हरियाणा के चौधरियों के घर में बेटी की शादी है। पूरे राज्य के क्रिमिनल आए हुए हैं। एक अनजान लड़का भी इस बेगानी शादी में घुस कर मज़े लूटने आया है। दुल्हन भागती है तो वह भी उसी के साथ भाग लेता है और दुल्हन को भगाने का इल्ज़ाम उसी पर आ जाता है। लड़की के भाई गौतम और गंभीर कॉमेडी करते-करते अपनी बहन को ढूंढ रहे हैं तो चौधरी भाइयों ने पूरी बरात को बंदी बना लिया है ताकि उनकी बेइज़्ज़ती की खबर बाहर न जाए।
‘लुका छुपी’, ‘मिमी’, ‘ज़रा हटके ज़रा बचके’ जैसी फिल्में बना चुके लक्ष्मण उटेकर और ढेरों फिल्में लिख चुके ऋषि विरमानी ने मिल कर इस फिल्म को लिखते हुए इसकी पटकथा में हास्य के साथ लगातार जुड़ते ढेर सारे किरदारों के ज़रिए रोचकता जगाने की कोशिश की है जिसमें वे कमोबेश सफल भी रहे हैं। उधर बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म लेकर आए सौरभ दासगुप्ता ने समझदारी यह दिखाई कि फिल्म की रफ्तार तेज़ रखी व मात्र पौने दो घंटे में फिल्म खत्म कर दी जिससे बिना ज़्यादा ज़ोर लगाए दर्शकों को टाइमपास किस्म का मनोरंजन और अंत में दिल को भाने वाला गंभीर मैसेज मिल गया। लेकिन इस फिल्म का मनोरंजन और मैसेज, दोनों ही सतही हैं। इससे निकलने वाला मैसेज, संदेश कम और उपदेश अधिक लगता है व इससे उपजे मनोरंजन का खुमार फिल्म खत्म होने के बाद धीरे-धीरे कम होने लगता है। लेखन, निर्देशन और किरदारों के चित्रण में गहराई की कमी इसका बड़ा कारण है। कई किरदार तो जबरन ठूंसे गए लगते हैं।
गायिका के तौर पर पहचान बना चुकी ध्वनि भानुशाली की बतौर अभिनेत्री यह पहली फिल्म है। उनका काम बुरा नहीं है लेकिन अभी उन्हें खुद को काफी मांजना है। चेहरे पर हर वक्त अलसायापन और उखड़े रहना उनके किरदार की ज़रूरत नहीं थी। आशिम गुलाटी खिलंदड़े-से किरदार को ठीक से निभा गए। लेकिन यह कैसा हीरो, जो पिटने लगा तो पिटता ही चला गया…! और आशिम की अदाओं में स्त्रैण भाव क्या सिर्फ मुझे ही महसूस हुए…? अगल-बगल के किरदारों ने ज़्यादा रंग जमाया। राजेश शर्मा, अखिलेंद्र मिश्रा, राकेश बेदी, सुप्रिया पिलगांवकर और इन सबसे बढ़ कर विक्रम कोचर खूब जमे।
गीत-संगीत ठीक-ठाक सा ही रहा। असल में यह पूरी फिल्म ही ‘ठीक-ठाक’ किस्म की है जिसे टाइमपास के लिए एक बार देखा जा सकता है। छोड़ भी दें तो कोई आसमान नहीं गिरेगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-20 September, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
देखी…. अच्छी लगी…. ध्वनि को अब तक गाते सुना था… अब एक्टिंग भी देख ली…बॉलीवुड में एक्टिंग क़े मामले में पहले कदम क़ी इनकी शुरुआत अच्छी है…….. फ़िल्म में एक खासियत तो दिखी….बोर नहीं होने देगी…