-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
70 के दशक में ‘बिकनी किलर’ के नाम से मशहूर हुए और दिल्ली की तिहाड़ जेल से कैदियों व स्टाफ को नशीला खाना खिला कर फरार हुए कुख्यात अपराधी चार्ल्स शोभराज पर दुनिया भर में किताबें लिखी गईं और उसकी कहानी को सिनेमा में भी उतारा गया। तो नेटफ्लिक्स पर आई इस फिल्म में नया क्या हो सकता है? जवाब है-यह फिल्म चार्ल्स की बजाय मुंबई पुलिस के उन इंस्पैक्टर मधुकर झेंडे के बारे में है जिन्होंने चार्ल्स को पहले 1971 में पकड़ा था और फिर 1986 में उसके तिहाड़ से भागने के बाद गोआ से।
चूंकि चार्ल्स ने अपनी कहानी के अधिकार यहां-वहां बेचे हुए हैं इसलिए इस फिल्म में सिर्फ इंस्पैक्टर झेंडे का नाम असली है और बाकी सब के नाम, काम बदल दिए गए हैं। मसलन चार्ल्स शोभराज यहां कार्ल भोजराज है, ‘बिकनी किलर’ की बजाय ‘स्विमसूट किलर’ है, नशीले खाने की बजाय नशीली खीर है, वगैरह-वगैरह…! लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, कहानी मज़ेदार होनी चाहिए, काल्पनिक हो या वास्तविक। और बस, यहीं आकर यह फिल्म मात खा गई है क्योंकि इसे ‘मज़ेदार’ बनाने के लिए जो रंग-ढंग चुने गए हैं उससे यह हल्की, कमज़ोर और उथली हुई है।
(रिव्यू-रहस्यमयी चार्ल्स की रहस्यमयी कहानी ‘मैं और चार्ल्स’)
पहली बात, इंस्पैक्टर झेंडे द्वारा चार्ल्स (इस फिल्म के कार्ल) को पकड़ने की प्रक्रिया में ऐसा क्या रोमांच था जो इस विषय पर कहानी लिखने और फिल्म बनाने का इरादा किया गया? लेखक चिन्मय मांडलेकर चाहते तो इस कहानी में बहुत सारी काल्पनिक घटनाएं जोड़ कर इसे अधिक वजनी बना सकते थे, जो वह नहीं कर पाए। दूसरी बात, इस फिल्म का फ्लेवर कॉमिकल यानी हास्यपूर्ण क्यों रखा गया? एक संजीदा पुलिस अफसर द्वारा एक कुख्यात अपराधी को पकड़ने का मिशन कॉमिकल कैसे हो सकता है? मुमकिन है, ऐसा इसलिए किया गया ताकि दर्शक हंसते-मुस्कुराते हुए, मज़ा लेते हुए देखें कि जिन पुलिस वालों को ‘मुंबई का पांडु’ कहा जाता था, उन्होंने कैसे अपनी बुद्धि और शक्ति का प्रदर्शन करते हुए उस अपराधी को पकड़ा। लेकिन ऐसा फ्लेवर रखना था तो इसे पूरी तरह से एक कॉमेडी फिल्म बनाना चाहिए था। एक वास्तविक, सीधे-सच्चे इंस्पैक्टर और उसकी टीम को जोकरनुमा दर्शा कर तो आप सीधे-सीधे उन्हीं का मखौल उड़ा रहे हैं।
निर्देशक चिन्मय मांडलेकर के बनाए सीन भी कोई खास असरदार नहीं रहे हैं। फिल्म को एक गंभीर थ्रिलर बना कर वह ज़्यादा असर छोड़ पाते। यह तो गनीमत समझिए कि कलाकारों ने इस फिल्म को थाम लिया नहीं तो यह हवा में उड़ जाती। मनोज वाजपेयी हमेशा की तरह सधे रहे। वैसे भी वह पर्दे पर इतनी बार मराठी किरदार निभा चुके हैं कि असल मराठी मानुष लगते हैं। उनकी पत्नी के किरदार में गिरिजा ओक बहुत प्यारी लगीं। कार्ल बने जिम सरभ भी खूब जंचे। सचिन खेडेकर, ओंकार राउत, भालचंद कदम, हरीश दुधाड़े, वैभल मंगले आदि सही रहे।
फिल्म में झेंडे के साथ एक इंस्पैक्टर जैकब है जो किसी भी बात पर नहीं हंसता। (सच तो यह है कि उन बातों पर हमें भी हंसी नहीं आती) लेकिन अंत में वह एक जगह हंसता है और वही एक जगह है जहां हमें भी हंसी आती है। पुलिस वालों को मजबूर, बेचारा, गरीब, कम-दिमाग वाला दिखाती यह फिल्म असल में झेंडे जैसे उन समर्पित पुलिस वालों की प्रतिष्ठा को कम करती है जो अपनी और अपनों की परवाह किए बगैर अपराधियों के पीछे पड़े रहते हैं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-5 September, 2025 on Netflix
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)


उम्दाह…
nice