-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
आज़ाद भारत की अदालतों में पेश हुए उल्लेखनीय मुकदमों में शामिल रहा है इंदौर की शाह बानो बेगम का वह केस जो उन्होंने अपने शौहर मौहम्मद अहमद खान के खिलाफ किया था। मुख्तसर बयानी यह कि अहमद ने पहला निकाह शाह बानो से किया जिससे उन्हें 5 बच्चे हुए। 14 साल बाद अहमद ने दूसरा निकाह कर लिया जिससे उन्हें 7 संतानें हुईं। इसके कई साल बाद जब अहमद ने शाह बानो को तलाक दिया तब शाह बानो की उम्र 62 साल थी। शाह बानो गुज़ारे भत्ते के लिए अदालत गईं। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और वह जीतीं भी। लेकिन इस फैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल मानते हुए इसके खिलाफ देश भर में आंदोलन होने लगे। तब तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में संसद में एक कानून बना कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर कर दिया। यह फिल्म ‘हक़’ उसी केस पर पर आधारित है।
दरअसल भारत का संविधान उन औरतों, बच्चों व अभिभावकों को अपने पति, पिता या पुत्र से गुज़ारा भत्ता पाने का हक देता है जो उन पर निर्भर हैं। शाह बानो (इस फिल्म में शाज़िया बानो) भी इसी हक को मांग रही थी। लेकिन अदालतें, पति, रिश्तेदार और मुस्लिम समाज के अगुआ उनकी इस मांग को इस आधार पर अस्वीकार कर रहे थे कि इससे मुस्लिम पर्सनल लॉ का उल्लंघन होगा। मगर बानो अपनी मांग पर टिकी रहीं और बाद में सुप्रीम कोर्ट तक ने अपने फैसले में कहा कि पूरे देश में बिना किसी जातीय, नस्लीय या धार्मिक भेदभाव के सबको एक समान हक देना ही हमारे संविधान की मूल भावना है। कोर्ट ने तब समान नागरिक संहिता को लाए जाने की बात भी कही थी। यह फिल्म ‘हक़’ उसी केस के विभिन्न पहलुओं और अदालती बहसों-फैसलों को विस्तार से दिखाते हुए सभी के लिए समान कानून की बात भी सामने रखती है।
रेशु नाथ की लिखाई कसी हुई है। इंटरवल से पहले भूमिका बांधते हुए उनकी कलम कहीं-कहीं सुस्त हुई है लेकिन मामला कोर्ट में पहुंचने के बाद वह बिना भटके टिकी रहीं। नायिका शाज़िया बानो के संवादों में रेशु नाथ ने अन्याय की जिस पीड़ा और हक की जिस मांग को उकेरा है वह सिर्फ मुस्लिम औरतों की ही नहीं बल्कि हर उस शख्स की पीड़ा और मांग हो सकती है जिसे समान हक से वंचित रखा जा रहा हो। यह फिल्म लोगों, खासकर औरतों को पढ़ने, गुढ़ने और समझने को भी प्रेरित करती है। इस फिल्म को देखने का एक बड़ा कारण इसकी निष्पक्ष लिखाई तो है ही, इसके दमदार संवाद भी हैं। इस फिल्म के गीतों की तारीफ भी ज़रूरी है। कौशल किशोर ने फिल्म के किरदारों की भावनाओं को अपने लिखे गीतों में सटीकता से उतारा है। रेशु और किशोर, दोनों की लेखनी को सम्मानित किया जाना चाहिए।
सुपर्ण वर्मा के निर्देशन की खासियत यह रही कि उन्होंने एक बेहद संवेदनशील विषय उठाने के बावजूद उसे किसी एक तरफ झुकने नहीं दिया है। बड़ी आसानी से इस किस्म की कहानी का इस्तेमाल किसी को नीचा दिखाने या किसी को ऊपर उठाने के लिए हो सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ है और यही कारण है कि शुरू में इधर-उधर जाती यह फिल्म जब असल मुद्दे पर आती है तो अपनी राह खुद बनाते हुए आपको अपना हमराही बना लेती है। अंत में इमरान हाशमी का अपनी जेब से फूल निकाल कर रखने का दृश्य बिना कुछ कहे कमाल का असर छोड़ता है। लोकेशन, कॉस्ट्यूम, मेकअप कैमरा आदि मिल कर फिल्म को विश्वसनीय बनाते हैं।
इमरान हाशमी का काम सधा हुआ है। दानिश हुसैन, शीबा चड्ढा, असीम हट्टंगड़ी, एस.एम. ज़हीर, राहुल मित्रा, अनंग देसाई जैसे सभी कलाकार जंचे हैं। ब्यूटी क्वीन बनने के बाद फिल्मों में आईं वर्तिका सिंह मौका मिलने पर अपना दम दिखा जाती हैं। लेकिन एक्टिंग के लिहाज़ से यह फिल्म यामी गौतम धर की है। शाज़िया बानों के किरदार को वह अपने भीतर आत्मसात् कर लेती हैं। उनकी भाव-भंगिमाएं और संवाद अदायगी कमाल की हैं। नेशनल अवार्ड के मंच पर मौजूदगी लायक काम किया है उन्होंने।
हालांकि आम दर्शकों के लिहाज़ से यह फिल्म ‘मनोरंजक’ नहीं है। लेकिन यह फिल्म उस किस्म के मनोरंजन के लिए बनाई भी नहीं गई है। इस किस्म की फिल्में सिनेमा को एक उपयोगी औज़ार की तरह इस्तेमाल करते हुए समाज को राह दिखाने का काम करती हैं। इनका स्वागत किया जाना ज़रूरी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-7 November, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)


हमेशा की तरह सधी हुई ईमानदार, जबरदस्त, निष्पक्ष एवं अप्रतिम समीक्षा। तभी तो सरकार द्वारा आपको राष्ट्रीय पुरस्कार का ‘हक़’दार माना गया था।
धन्यवाद… आभार…
सदैव की भांति दर्शक वर्ग हेतु उपयोगी समीक्षा। और अंतिम टैग लाइन तो जबरदस्त है। (रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
फिल्म देखने के उपरांत मैं अपना रेटिंग अवश्य दूंगा।
बहुत ही खूबसूरती से रिव्यू लिखा गया है। पढ़ कर लगा यह फिल्म अवश्य देखनी ही है। आज के समय में जब अधिकतर कहानियां केवल घटनाओं का समूह बन कर रह जाती हैं, एक मजबूत कहानी का हासिल होना बड़ी नियामत है। दीपक दुआ जी, आपके रिव्यू बहुत सटीक और सधे हुए होते हैं। मैं फिल्म देखने या ना देखने का मन आपका रिव्यू पढ़ने के बाद ही बनाता हूं।
धन्यवाद… आभार…