• Home
  • Film Review
  • Book Review
  • Yatra
  • Yaden
  • Vividh
  • About Us
CineYatra
Advertisement
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
CineYatra
No Result
View All Result
ADVERTISEMENT
Home CineYatra

रिव्यू : जाड़ों की नर्म धूप-सा ’गुस्ताख़ इश्क़’

Deepak Dua by Deepak Dua
2025/11/28
in CineYatra, फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू : जाड़ों की नर्म धूप-सा ’गुस्ताख़ इश्क़’
Share on FacebookShare on TwitterShare on Whatsapp

-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

1998 का वक्त। पुरानी दिल्ली में बंद होने के कगार पर खड़ी अपनी प्रिंटिंग प्रैस को बचाने के लिए नवाबुद्दीन रिज़वी जा पहुंचा है पंजाब के मलेरकोटला में शायर अज़ीज़ बेग के पास। सुना है किसी ज़माने में अज़ीज़ मियां मुशायरे लूट लिया करते थे। लेकिन एक ज़ख्म मिला और उन्होंने लिखना ही छोड़ दिया। उनके कलाम भी कभी छप न सके, या कहें कि उन्होंने छपवाए ही नहीं। नवाब चाहता है कि अज़ीज़ साहब उसे अपनी शायरी दे दें। सीधे नहीं कह सकता, सो उनकी शागिर्दी में शायरी सीखने लगता है। लेकिन अज़ीज़ बेग का कहना है कि वो फनकार ही क्या जिसे अव्वल कहलाने के लिए खुद पर बाज़ार की मुहर लगवानी पड़े। इधर अज़ीज़ साहब की शागिर्दी करते हुए उनकी बेटी मन्नत और नवाब का इश्क परवान चढ़ रहा है तो उधर दिल्ली में तंगहाल मुंह बाए खड़ी है। क्या बच पाएगी नवाब की प्रिंटिंग प्रेस? क्या अज़ीज़ बेग अपने कलाम छपवाने पर राज़ी हो जाएंगे? आखिर लिखना क्यों छोड़ा था उन्होंने? क्या नवाब का झूठ पकड़ा जाएगा? मन्नत और नवाब का इश्क मुकम्मल होगा या…!

इस तरह की कहानियां कहना आसान नहीं होता जिनकी परतें खुलें तो खुलती ही चली जाएं। नवाब का अज़ीज़ को छापने की ज़िद पकड़ना, मन्नत के मना करने पर अज़ीज़ का शागिर्द हो जाना, नवाब और मन्नत की करीबी, उधर पैसे को लेकर चल रही तंगी जैसी ऊपरी बातों के तले यह कहानी आपसी रिश्तों को टटोलते हुए इंसानी फितरतों को भी परखती है और किस्मत की उन लकीरों की भी बात करती है जिनके सामने अक्सर इंसान की कोशिशें बौनी पड़ जाती है। नवाब और उसके भाई के संबंध, उर्दू बोलने वाले नवाब और उसके हिन्दी बोलने वाले वकील किराएदार की दोस्ती, नवाब और उसकी मां का रिश्ता, उसके मरहूम पिता का अतीत, अज़ीज़ से उनके संबंध, मन्नत की उदासी, अज़ीज़ की देखभाल करने वाले भूरे अटैची का इस परिवार से नाता, अज़ीज़ और नवाब का अतरंगी रिश्ता, नवाब और उसके लॉज की मालकिन की बातें… यानी बहुत कुछ है इस कहानी में जिसे समझने के लिए आपको इस कहानी में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं। विभु पुरी और प्रशांत झा ने जो लिखा है वह इतना सहज है कि आप उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। लेकिन वह इतना जटिल भी है कि आप उसे एक बार में जज़्ब नहीं कर पाते। फिर इसके संवाद, उन संवादों में गुंथी हुई शायरी इस फिल्म को ठहर कर देखने की ललक जगाती है। एक-एक लफ्ज़ ऐसा लिखा गया है कि बार-बार सुनने को मन मचलता है। एक-एक सीन ऐसा कि बार-बार देखने को मन करता है। सच यह भी है कि शायरी और ज़िंदगी को डूब कर समझने की लालसा रखने वालों को यह फिल्म एक बार में स्वाद देगी भी नहीं।

निर्देशक विभु पुरी ने कुछ पहले जैसा जो माहौल रचा है वह आपको उस ज़माने में ले जाता है जब न मोबाइल फोन ने दस्तक दी थी, न डिज़िटल कैमरों ने। पुरानी दिल्ली की गलियां, मलेरकोटला का बाज़ार, पुराने मकान, इंटीरियर, रोशनी, साजो-सामान, चाय की प्यालियां, खेत, खंडहर, कोहरा, पुराना स्कूटर, कॉस्ट्यूम आदि से विभु जब हमें बीते दिनों में ले जाने की गुज़ारिश करते हैं तो उस माहौल से इश्क होने लगता है।

किरदारों को सटीक विशेषताएं दी गई हैं। लिए गए कलाकारों ने भी उन किरदारों को कस कर थामे रखा है। नसीरुद्दीन शाह जैसे उस्ताद अदाकार को ऐसे किरदार में देखने के लिए यह फिल्म बार-बार देखी जा सकती है। विजय वर्मा इस हद तक विश्वसनीय लगते हैं कि उनके साथ आप एकाकार हो जाते हैं। फातिमा सना शेख अपनी चुप्पी से, अपनी आंखों से, हंसने पर अपने गालों में पड़ने वाली प्यालियों से लुभाती हैं। भूरे अटैची के किरदार में शारिब हाशमी अलग ही असर छोड़ते हैं। रोहन वर्मा, लिलिपुट, जया भट्टाचार्य, समीक्षा त्रिपाठी, ज़ेन खान दुर्रानी, फैसल राशिद, शशि भूषण जैसे तमाम कलाकार अपने-अपने किरदार को परफैक्शन की हद तक निभाते हैं।

इस फिल्म के संवादों में इस्तेमाल की गई शायरी इसकी रूह है। शायरी के अलावा गुलज़ार के लिखे गीत और विशाल भारद्वाज का संगीत इस रूह को अमरत्व प्रदान करता है। एक अर्से के बाद गुलज़ार के शब्दों ने अंतस को छुआ है। हर गाने के बोल फिल्म की आत्मा को अक्स दिखाते हैं। जाज़िम शर्मा जब ‘शहर में तेरे…’ गाते हैं तो दिल में हूक-सी उठने  लगती है। सच तो यह है कि हूक तो इस फिल्म को देखते हुए कई बार उठती है। यह तड़प ही इस फिल्म को असरदार बनाती है।

इस फिल्म का मिज़ाज जुदा है। इसकी रफ्तार धीमी है। शुरु में काफी देर तक होठों पर सहज मुस्कान बिखेरती यह फिल्म बाद के पलों में कई जगह अपनी सुस्ती के चलते अखरती भी है। लेकिन यह सुस्ती उस किस्म के सिनेमा के लिए ज़रूरी हो जाती है जो टिकट-खिड़की के गणित की बजाय दिलों में उतरने के लिए बनाया जाता है। धीमी आंच पर रखी किसी हांडी में रफ्ता-रफ्ता पकते सालन की-सी खुशबू बिखेरती इस किस्म की फिल्में आज की मैगी-मोमो वाली जेनरेशन आसानी से हज़म नहीं कर पाएगी। उनका हाज़मा इसी हिन्दी सिनेमा ने खराब किया है, अब यही भुगतेगा।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-28 November, 2025 in theaters

(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)

Tags: faisal rashidfatima sana shaikhgulzargustaakh ishqgustaakh ishq reviewgustakh ishq reviewjaya bhattacharyalilliputmanish malhotranaseeruddin shahprasshant jharohan vermasamiksha tripathisharib hashmishashi bhushanvibhu purivijay varmavishal bhardwaj
ADVERTISEMENT
Previous Post

रिव्यू-मिट्टी पर मिटने वालों की अमिट कहानी ‘120 बहादुर’

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
संपर्क – dua3792@yahoo.com

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment

No Result
View All Result
  • होम
  • फिल्म/वेब रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment