-दीपक दुआ…
1993 में फिल्म पत्रकारिता का सफर शुरू करने के बाद दैनिक अखबार ‘जनसत्ता’ से होते हुए मैं 1995 में देश की प्रतिष्ठित और 1948 से लगातार प्रकाशित हो रही फिल्म मासिक पत्रिका ‘चित्रलेखा’ से जुड़ चुका था। दिल्ली में प्रैस-कांफ्रैंस, फिल्म शोज़, फिल्मी हस्तियों से मिलना, इंटरव्यू लेना जैसी गतिविधियां भी ज़ोरों पर चल रही थीं। लेकिन एक मलाल मन में था कि अभी तक मुंबई जाना नहीं हो पाया है। एक प्रैस-कांफ्रैंस में मिले और मेरे करीबी मित्र हो चुके पत्रकार (अब स्वर्गीय) भाई विद्युत प्रकाश मौर्य से अक्सर इस पर चर्चा होती और आखिर 1998 की गर्मियों में एक दिन हमने यह तय कर लिया कि मुंबई चला जाए, फिल्म इंडस्ट्री को करीब से देखा जाए, उन लोगों से रूबरू मिला जाए जिनसे अब तक का नाता या तो चिट्ठी-पत्री और टेलीफोन के ज़रिए था या फिर उनके दिल्ली आने पर उनसे मुलाकात होती थी। अगस्त के चौथे हफ्ते की टिकटें बुक करवाई गईं ताकि ‘चित्रलेखा’ का अंक प्रैस में जाने के बाद के कुछ खाली दिनों में मुंबई की पहली यात्रा की जाए। और आखिर वह दिन आ ही गया।
मुंबई को रवानगी
21 अगस्त, 1998। दिन शुक्रवार। दोपहर में ‘चित्रलेखा’ के दफ्तर में उस महीने का आखिरी काम कर के मैं घर लौटा और अपना सामान लेकर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जा पहुंचा। थोड़ी ही देर में विद्युत भाई भी आ पहुंचे। उनके छोटे भाई तड़ित प्रकाश उन्हें छोड़ने आए हुए थे। आजकल पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय तड़ित उन दिनों पढ़ाई कर रहे थे। ‘पश्चिम एक्सप्रैस’ नाम की ट्रेन की स्लीपर क्लास बोगी में घर से लाए खाने के साथ ढेरों बातें होती रहीं। उन दिनों अधिकांश लोग अपने घर से पानी की खाली बोतल लेकर चला करते थे और रास्ते में किसी भी नल से पानी भर लिया करते थे। हमने भी पहले नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर लगे नल से और खत्म हो जाने पर रास्ते में राजस्थान के कोटा स्टेशन पर उतर कर पानी भरा था। अगले दिन सुबह मध्यप्रदेश के रतलाम और गुजरात के वडोदरा व सूरत स्टेशनों पर कुछ पल के लिए उतर कर कुछ खाने-पीने का सामान खरीदा गया और 22 अगस्त को दोपहर बाद ट्रेन मुंबई सैंट्रल रेलवे स्टेशन पर जा लगी जहां मेरे मौसा जी हमें लेने के लिए मौजूद थे।
मुंबई की फिज़ाएं
मौसा जी के साथ हम दोनों तुरंत ही एक लोकल ट्रेन में सवार होकर माहिम स्टेशन पर उतरे। अभी तक फिल्मों में ही देखी मुंबई लोकल का झट से रफ्तार पकड़ना और अगले स्टेशन पर ज़रा देर को रुक कर फिर खट से चल पड़ना हमें रोमांचित कर रहा था। माहिम स्टेशन से एक काली-पीली टैक्सी में मौसा जी हमें लेकर ‘हिन्दुस्तान कन्स्ट्रक्शन कॉरपोरेशन’ के उस कैंप में ले गए जो माहिम क्रीक के करीब था। दरअसल यह कंपनी उन दिनों वहां से कुछ दूर गहरे कुएं बना रही थी जिनके ज़रिए मुंबई शहर के सीवेज को बड़े-बड़े पाइपों के ज़रिए दूर समुद्र में पहुंचाया जाना था। यहां इस कैंप में कंपनी के उन अधिकारियों व कर्मचारियों के अस्थाई निवास बनाए गए थे जो इस शहर में अकेले रहते थे। हरियाणा के रोहतक शहर के रहने वाले मेरे मौसा जी इस कंपनी में कार्यरत थे।
चमत्कारी ऑटो-रिक्शा वाला
माहिम कैंप में नहा-धोकर, खा-पीकर और मौसा जी से ज़रूरी जानकारी लेकर मैं और विद्युत भाई एक बस पकड़ कर पास ही स्थित बांद्रा स्टेशन पहुंचे। कुछ घंटे पहले की गई लोकल ट्रेन की सवारी हमें इतना आत्मविश्वास तो दे ही चुकी थी कि हम अब अकेले मुंबई घूम सकें। एक लोकल पकड़ कर हम लोग मलाड उतरे और वहां से एक ऑटो-रिक्शा लेकर पूर्वी मलाड में गोविंद नगर स्थित ‘स्टैंडर्ड बैटरी’ नाम की हाउसिंग सोसायटी में जा पहुंचे। यहां मैंने हैरानी की बात यह देखी कि ऑटो-रिक्शा के मीटर में 7 रुपए 70 पैसे की रीडिंग आई और 10 रुपए देने पर रिक्शा वाले ने हमें सवा दो रुपए वापस किए और साथ ही सॉरी कहा कि उसके पास 5 पैसे छुट्टे नहीं हैं। बचपन से दिल्ली के ऑटो-रिक्शा वालों की मनमानियां और बेईमानियां देख रहे मुझ जैसे शख्स के लिए यह नज़ारा किसी चमत्कार सरीखा था।
ताला बंद और वापसी
इस सोसायटी में विद्युत भाई के एक निर्माता मित्र निर्देश त्यागी जी ने किराए पर एक फ्लैट लिया हुआ था। वह खुद तो दिल्ली के पास कहीं रहते थे लेकिन उन्होंने विद्युत जी से कहा था कि मुंबई जाओ तो उनके फ्लैट में ही रहना जहां उन्होंने एक केयरटेकर-कम-कुक रखा हुआ था। लेकिन इस फ्लैट पर तो ताला लगा हुआ था। कुछ देर वहां इंतज़ार करने के बाद हम टहलते-टहलते मलाड स्टेशन जा पहुंचे जो वहां से मात्र एक किलोमीटर ही दूर था। वहां से लोकल पकड़ी और बांद्रा उतर कर टहलते-टहलते ही मौसा जी के कैंप में पहुंच गए। रात के खाने के बाद हम लोग नज़दीक ही स्थित धारावी नाम की उस बस्ती तक भी टहलने गए जिसे हिन्दी फिल्मों में हमने खूब देखा था। वहां की एक दुकान से मलाड के उस फ्लैट के केयरटेकर कल्याण से भी फोन पर बात हुई और यह तय हुआ कि अगली सुबह हम यहां से मलाड शिफ्ट हो जाएंगे।
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(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
वाह…..
आपके एपिसोड का आगाज़ अच्छा है औऱ अंत भी….
मैंने भी एक बार फॅमिली क़े साथ मुंबई कि काली -पीली टेक्सी में सफर किया है….. वाकई सत्यनिष्ठा… अगर किराया 98 रुपए हुआ है तो यक़ीनन ड्राइवर 2 रूपये वापस करेगा…. न कि दिल्ली कि तरह कि इतने लगेंगे…. भाड़ में जाए नियम कानून…… अगर किराया 106 रूपये हुआ है तो वो 110 ही लेगा…..
औऱ वहां कि लोकल ट्रेन का क्या कहना….. एक बार को अगर मै कंपरीज़न करूँ मेट्रो ट्रेन औऱ मुंबई कि लोकल ट्रेन से करूँ तो तो मेरा मत मुंबई की लोकल ट्रेन को होगा न कि मेट्रो ट्रेन को..
आपके अगले एपिसोड का इंतज़ार रहेगा..
Waaah .. Sundar YaadeN .
Hausle ko Gati dene waali .
Hum bhi tabhi Mumbai padhaare the . 97 /98 ke darmiyaaN