-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
साढ़े छह बरस पहले आई ‘दे दे प्यार दे’ में 50 बरस के अधेड़ आशीष को 26 बरस की कमसिन आयशा से प्यार हुआ था मगर बीच में आ गए थे आशीष के बीवी-बच्चे जिनसे वह 18 साल पहले अलग हो गया था। आशीष बेचारा असमंजस में फंस गया था कि पुराने रिश्ते निभाए या नए रिश्ते को थामे। लेकिन अंत में सब सुलझ गया था। क्या वाकई…!
(रिव्यू-रिश्तों का रंगीन पंचनामा-‘दे दे प्यार दे’)
पहले आशीष आयशा को अपने परिवार से मिलवाने ले गया था और इस बार आयशा उसे अपने घर लाई है अपने परिवार से मिलवाने। यहां बात-बात पर खुद को ‘प्रगतिशील, पढ़े-लिखे, आधुनिक’ कहलवाने वाले उसके माता-पिता हैं जो आशीष से साल-डेढ़ साल ही बड़े हैं। भाई, भाभी, मासी, कज़िन, नानी, भाभी के माता-पिता वगैरह भी हैं। ऐसे में अपने पिता की उम्र के आशीष को वह कैसे सबसे मिलवाए, कैसे यह बताए कि हम दोनों शादी करने वाले हैं…? लेकिन जैसा कि फिल्मों में होता है, अंत में सब सुलझ जाता है। क्या वाकई…!
बरसों पहले ‘प्यार का पंचनामा’ बना कर सबकी नज़रों में आए लव रंजन ने अपनी लिखी-बनाई कई फिल्मों में रिश्तों को लेकर कन्फ्यूज़ रहने वाली और भावनाओं के स्तर पर भटकती युवा पीढ़ी पर निशाना साधा और ‘आकाश वाणी’, ‘प्यार का पंचनामा 2’, ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’, ‘तू झूठी मैं मक्कार’ जैसी फिल्मों में इस निशाने को साधने में वह कमोबेश कामयाब भी होते आए हैं। इस बार ‘दे दे प्यार दे 2’ में भी उन्होंने पिछली वाली फिल्म के लेखक तरुण जैन के साथ मिल कर एक बार फिर अपने लेखन का दम दिखाया है। सच तो यह है कि इस फिल्म का सबसे मुश्किल पार्ट इसकी लिखाई ही रही होगी जिसमें लेखकों को अपने किरदारों की मनोदशा बयान करने के साथ-साथ अपने दर्शकों की मनोदशा का ख्याल भी रखना पड़ा होगा। हिन्दी सिनेमा के विविधताओं से भरे विशाल दर्शक वर्ग को एक साथ साधना बहुत मुश्किल है और यह फिल्म भी मुख्य तौर पर शहरी, आधुनिक दर्शकों को ही टार्गेट करती है लेकिन मोटे तौर पर यह भारतीय समाज में तेजी से आ रहे बदलावों को उकेर पाने में सफल रही है।
अधेड़ नायक और जवान नायिका की सोच का फर्क हो, युवा लड़की और उसके माता-पिता की सोच का फर्क हो या हमउम्र लोगों की सोच का एक-सा होना, इस फिल्म के किरदारों को गढ़ते समय लेखकों ने जिस तरह से अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाए हैं, उनकी तारीफ होनी चाहिए। ऊपर से यह समझदारी तो अब हर लेखक, निर्देशक दिखाने लगा है कि इस किस्म की फिल्मों के मिज़ाज को हल्का-फुल्का रखा जाता है ताकि गंभीर बातें भी हास्य के रैपर में लपेट कर परोस दी जाएं जिससे बातों का हल्की बातों का असर बढ़े और चुभने वाली चीज़ें कम चुभें। लेखकों की तारीफ इसलिए भी होनी चाहिए कि उन्होंने पूरी फिल्म में चुटीले संवादों, हंसी-मज़ाक और पारिवारिक माहौल के बीच अपने किरदारों से काफी कुछ ऐसा कहलवा दिया जिससे दर्शक चाहेे तो बहुत कुछ सीख-पा सकते हैं। बीच-बीच में कुछ फिल्मों और कुछ फिल्मी हस्तियों का ज़िक्र सिनेमा के दीवानों को गुदगुदाता है, वह बोनस मज़ा है।
निर्देशक अंशुल शर्मा का काम सधा हुआ रहा है। वैसे भी लव रंजन की इस किस्म की फिल्मों में निर्देशक चाहे कोई भी हो, सिग्नेचर स्टाइल लव रंजन का ही रहता है। हालांकि कहीं-कहीं कुछ सीन बोझिल हुए हैं और कहीं-कहीं एडिटिंग भी ढीली महसूस होती है। दरअसल जब सब कुछ फर्राटे से चल रहा हो तो बीच में रफ्तार का कम होना अखरता ही है। लेकिन ऐसे दो-एक मौकों को छोड़ कर बाकी पूरी फिल्म में वह अपना असर छोड़ पाने में कामयाब रहे हैं।
रकुल प्रीत सिंह पूरी फिल्म में छाई रही हैं। उन्हें अपने अभिनय की रेंज दिखाने का खुल कर मौका मिला और उन्होंने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। एक्टिंग के साथ-साथ अपने ‘खुलेपन’ से भी वह लुभाती रहीं। उनके पिता के किरदार में माधवन ने ज़्यादा समय अंडरप्ले करते हुए अपने किरदार को साधे रखा। गौतमी कपूर, इशिता दत्ता, जावेद जाफरी, मीज़ान जाफरी भी खूब जंचे। तरुण गहलोत, सुहासिनी मुले आदि ने थोड़े वक्त में भी असर छोड़ा। अजय देवगन पता नहीं क्यों, इस बार बुझे-बुझे से दिखे। उन्हें ज़्यादा खुलने का मौका दिया जाना चाहिए था। गीत-संगीत लुभावना रहा। पंजाबी गाना ‘तिन्न शौक…’ थिरका गया और ‘बाबुल वे…’ भावुक कर गया। बाकी, लोकेशन, कपड़े, चेहरे, माहौल की रंगीनियत दिल व आंखों को सुहाती रही।
अपने तीसरे भाग के लिए संभावना छोड़ती यह फिल्म अपने चुटीले संवादों, रंगीन माहौल, दिलचस्प किरदारों, सधे हुए अभिनय और दिल-दिमाग-आंखों को भाते एंटरटेनमैंट की भरपूर खुराक के चलते देखने लायक, दिखाने लायक बन पड़ी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-14 November, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)

very well written review. I’ll watch the movie. thanks Deepak Ji
Thanks