-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक दृश्य देखिए-मुगल बादशाह औरंगज़ेब की कैद में यातनाएं सह रहे छत्रपति संभा जी से औरंगज़ेब कहता है-हमारी तरफ आ जाओ, आराम से ज़िंदगी जियो, अपना धर्म बदल कर इस्लाम अपना लो…! संभा जी जवाब में कहते हैं-हमारी तरफ आ जाओ, आराम से ज़िंदगी जियो और तुम्हें अपना धर्म बदलने की भी ज़रूरत नहीं है…!
यह एक दृश्य और फिल्म में बार-बार आने वाले संभा जी के संवाद दरअसल छत्रपति शिवाजी और उनके उत्तराधिकारियों की उस ‘हिन्दवी स्वराज’ की अवधारणा को सामने लाते हैं जिसमें हर किसी को अपने-अपने धर्म को मानते हुए साथ-साथ जीने का अधिकार था। यह फिल्म यह भी दिखाती है कि इस देश में ऐसे कई लोग थे जिन्होंने ‘धर्म’ त्यागने की बजाय अपने प्राण त्यागना ज़्यादा सही समझा। यह फिल्म उन लोगों को भी दिखाती है जिन्होंने सत्ता की भूख के चलते अपनों के ही सिर उतरवाए और ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचे जिनके परिणाम आने वाली नस्लों को भुगतने पड़े।
छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में हम सभी ने फिर भी पढ़ा, जाना, समझा है लेकिन उनके बाद मराठा साम्राज्य के भोसले परिवार में क्या हुआ, उनके ठीक बाद छत्रपति बनने वाले उनके पुत्र संभा जी किस जीवट के योद्धा और इंसान थे, शिवाजी ने कितनी शादियां कीं, शिवाजी के बाद सात और छत्रपति बने, जैसी बातें हममें से अधिकांश को नहीं मालूम होंगी। इतिहास की किताबों तक हमारी पहुंच हो न सकी, इसीलिए इतिहास को आधार बना कर उपन्यास रचे गए। ऐसा ही एक मराठी उपन्यास शिवाजी सावंत ने ‘छावा’ नाम से लिखा था। यह फिल्म उसी उपन्यास पर आधारित है। बता दें कि शेर के बच्चे को छावा कहा जाता है और इतिहास शिवाजी को शेर व संभा जी को छावा की तरह देखता व दिखाता आया है।
‘छावा’ फिल्म शिवाजी के देहांत के बाद संभा जी के छत्रपति बनने और अगले आठ साल तक मुगलों की नाक में दम करने की कहानी दिखाती है। औरंगज़ेब को लगता है कि शिवा के जाने के बाद उसके लिए दक्खन को फतेह करना आसान होगा लेकिन संभा जी उसे बताते हैं कि शेर गया है, छावा अभी ज़िंदा है। आखिर एक युद्ध में मुगल सेना संभा जी को कैद कर लेती है और औरंगज़ेब के आदेश पर उन्हें बुरी तरह यातना देकर, तड़पा-तड़पा कर मारा जाता है।
अपनी कहानी की रूपरेखा से यह फिल्म लुभाती है। यह हमें भारत के गौरवशाली इतिहास के एक ऐसे पराक्रमी नायक से मिलवाती है जिसने धर्म-ध्वजा को ऊंचा रखने की खातिर सर्वोच्च बलिदान देना मंज़ूर किया। साथ ही यह फिल्म हमें राजमहलों के षड्यंत्रों से रूबरू करवाती है, विदेशी आक्रांताओं की बर्बरता दिखाती है। इन कारणों से यह फिल्म दर्शनीय हो उठती है, सराहनीय हो उठती है।
लेकिन इस फिल्म ‘छावा’ के साथ दिक्कत यह है कि लिखने वालों ने इसमें एक सिलसिलेवार कहानी नहीं ली जिसमें घटनाओं का प्रवाह एक बिंदु से शुरू होकर किसी अन्य बिंदु पर जाकर खत्म होता है। उन्होंने बस संभा जी के जीवन से कुछ-कुछ घटनाएं और प्रसंग लेकर उन्हें एक कोलाज की तरह सामने रख दिया जिससे कुछ-कुछ समझ आता है, बहुत कुछ नहीं आता। गलती हमारी भी है जिन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा, या शायद उनकी जिन्होंने हमें इतिहास नहीं पढ़ाया।
हालांकि यह फिल्म पूरा इतिहास भी नहीं बताती। उपन्यास-लेखकों के पास वैसे भी यह स्वतंत्रता रहती है कि वे तथ्य के साथ कथ्य मिला सकें। यह फिल्म भी संभा जी के जीवन के कुछ उजले, कुछ सशक्त पक्ष ही दिखाती है। नायक-स्तुति में बनने वाली फिल्मों के लिए यह स्वाभाविक भी है।
बतौर निर्देशक लक्ष्मण उटेकर का काम प्रभावी रहा है। मगर उनकी पृष्ठभूमि ‘मिमी’, ‘लुका छुपी’, ‘ज़रा हटके ज़रा बचके’ जैसी आधुनिक पृष्ठभूमि वाली रॉम-कॉम किस्म की फिल्मों की रही है, उन्हें खुद पर इतना लोड नहीं लेना चाहिए था। इस फिल्म को देखते हुए ‘तान्हाजी’ की याद आती है और यह कमी महसूस होती है कि उस फिल्म की तरह इसमें कुछ नाटकीयता, कुछ ‘फिल्मीपन’ होता तो यह आम दर्शकों को ज़्यादा कस कर बांध पाती। यह भी लगता है कि ‘तान्हाजी’ वाले निर्देशक ओम राउत ने ‘छावा’ को निर्देशित किया होता तो शायद कहीं ज़्यादा असरदार प्रॉडक्ट सामने आता। फिल्म के सैट्स, वी.एफ.एक्स., सिनेमैटोग्राफी आदि कहीं बहुत अधिक असरदार रहे तो कहीं-कहीं उनकी कमज़ोरी पकड़ में आती रही। बैकग्राउंड म्यूज़िक ने अधिकांश दृश्यों का प्रभाव गाढ़ा किया तो कहीं-कहीं बेहद लाउड होकर चीत्कार मचाई। गीत-संगीत बहुत हल्का रहा। एक गाने में तो रैप भी सुनाई दिया, हद है।
‘छावा’ के युद्ध-दृश्य शानदार हैं। ऐसा अद्भुत एक्शन-संयोजन कम ही देखने को मिलता है। फिल्म के बहुत लंबे क्लाइमैक्स में संभा जी को दी जा रही यातनाएं दिल दहलाती हैं। उनके नाखून खींचने, आंखें निकालने, जीभ काटने के दृश्य देख पाना जीवट का काम है। लेकिन यह सब इतिहास में दर्ज है, हुआ था इसीलिए दिखाया गया।
यह फिल्म अपने कलाकारों के अभिनय के लिए भी देखी जा सकती है। खासतौर से विक्की कौशल ने जिस तरह से संभा जी के चरित्र को निभाया है उसके लिए उनकी शान में जो कहा जाए, कम है, उन्हें जो पुरस्कार दिया जाए, छोटा है। औरंगज़ेब के किरदार में अक्षय खन्ना भी गजब लगे। आशुतोष राणा बेहद प्रभावी रहे। संभा जी के मित्र कवि कलश बने विनीत कुमार सिंह ने क्लाइमैक्स में जम कर असर छोड़ा। रश्मिका मंदाना का पर्दे पर आना अच्छा लगता रहा। डायना पेंटी ज़रूर मिसफिट लगीं। दिव्या दत्ता, नील भूपालम, प्रदीप रावत, किरण कर्माकर, अनिल जॉर्ज व अन्य कलाकारों का काम अच्छा रहा लेकिन स्क्रिप्ट में उनके लिए कुछ खास था ही नहीं।
यह फिल्म हमारे इतिहास के उन रक्तरंजित पन्नों के लिए देखी जानी चाहिए जो हमारे वीर-नायकों के खून से लाल हुए। मनोरंजन की चाह रखने वाले दर्शक इससे दूरी बनाए रखें। बस, अफसोस यही है कि यह फिल्म सिनेमाई शेर नहीं बन पाई, छावा (शेर का बच्चा) ही बन कर रह गई।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-14 February, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
खूब…. इतना ही कहा जा सकता है की अभिनय सभी शानदार है…. रही इतिहास क़े पन्ने उलटने औऱ उपन्यासकारों द्वारा सत्य में तथ्य मिलाना…. वो भी साफ ज़ाहिर है….
ऐसी फिल्मो क़े आरम्भ में ही लिख दिया जाता है की निर्देशक किसी भी अतीत की घटना में फेर बदल क़े लिए जिम्मेदार नहीं है…. ये सिर्फ नाटन्कन है…. औऱ काल्पनिक है… घटना का. मिलना मात्र एक संयोग है…. उपन्यासकारों ने सदा ही…. एक पक्ष कों नायक औऱ दूसरे कों खलनायक ही दिखाया है… औऱ जो. मन में आया वो लिलः डाला…. सत्य में तथ्य मिलाकर
तो. इसलिए मूवी कों देखना सभी क़े लिए बेहतर होगा…. रोमांच क़े लिए भी औऱ इतिहास में रूची रखने वालों क़े लिए भी…..
बहुत ही शानदार तरीके से रिव्यू किया गया।
एक एक दृश्य का बहुत अच्छे से विवरण किया
धन्यवाद…