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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-हाशिये पर बैठे लोगों की आवाज़ है ‘चम्म’

Deepak Dua by Deepak Dua
2019/07/28
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू-हाशिये पर बैठे लोगों की आवाज़ है ‘चम्म’
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-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

क्या आप पंजाबी फिल्में देखते हैं? क्या आप फिल्मों में पंजाब की तस्वीरें देखते हैं? क्या आप जानते हैं कि देश में सबसे ज़्यादा दलित जनसंख्या किस प्रदेश में है? आप कहेंगे कि ये कैसे बेमेल सवाल हैं? लेकिन ऐसा नहीं है। यदि आप पंजाबी फिल्में देखते हैं या हिन्दी फिल्मों में पंजाबी माहौल, पंजाबी किरदार देखते हैं तो आप जानते होंगे कि यह एक खुशहाल प्रदेश है, यहां के लोग हर समय तंदूरी मुर्गे, मक्के की रोटी, सरसों का साग, लस्सी और शराब का सेवन करते हैं। इन लोगों के पास लंबे-चौड़े खेत होते हैं और हर घर से कोई न कोई कनैडा में बैठ कर इनके लिए डॉलर-पाउंड भेज रहा है। इनके पास पहनने को ढेरों रंग-बिरंगे कपड़े होते हैं और ये लोग ज़रा-ज़रा सी बात पर भंगड़ा करने लगते हैं, हनी सिंह और बादशाह के गानों पर डांस करने लगते हैं। यानी कुल मिला कर पंजाब वालों की ज़िंदगी में सब कुछ बस उजला ही उजला है, किसी को कोई गम नहीं, कोई फिक्र नहीं। पर काश, कि यह सब सच होता। क्योंकि एक सच यह भी है कि भारत की दलित आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा, करीब 32 प्रतिशत पंजाब में ही बसता है और इनके सामने भी गरीबी, बेरोज़गारी, नशाखोरी, भेदभाव जैसी वही तमाम समस्याएं हैं जो बाकी देश में भी पाई जाती हैं। पर क्या आपने कभी किसी फिल्म में यह सब देखा? पंजाबी फिल्म ‘चम्म’ आपको यही सब दिखाती है।

दरअसल समाज के हाशिये पर बैठे (या जबरन बिठा दिए गए) लोगों की कहानियां तो अब किसी भी भाषा का सिनेमा नहीं कहता। हिन्दी में भी बड़े दिनों के बाद ‘आर्टिकल 15’ आई थी जिसने याद दिलाया कि संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि किसी के भी साथ जाति, नस्ल, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। मोटे तौर पर यह माना जाता है कि जातिवाद सिर्फ हिन्दुओं में ही पाया जाता है। लेकिन सच यह है कि यह हर जगह व्याप्त है, किसी न किसी तरीके से, किसी न किसी शक्ल में। सिक्खी में भी भले ही ‘मानस की जात सबै एकै पहिचानिबो’ कहा जाता हो लेकिन भेदभाव यहां भी कम नहीं है। पंजाबी फिल्म ‘चम्म’ इसी बात को सामने लाती है।

(रिव्यू-मुल्क का दलदल दिखाती ‘आर्टिकल 15’)

यह फिल्म उन राजीव कुमार की है जिन्हें 2013 में आई उनकी पहली पंजाबी फिल्म ‘नाबर’ के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिल चुका है। अपनी तमाम फिल्मों में लीक से हट कर बातें करने वाले राजीव ने ‘चम्म’ (चमड़ी) में उन लोगों की कहानी दिखाई है जो मरे हुए जानवरों की खालें उतारने का काम करते हैं। पंजाब के गावों में फैली नशाखोरी की लत, अमीरों की दबंगई और गरीबों, दलितों से उनका हक छीनने जैसी बातें दिखाती यह फिल्म एक सुखद नोट पर खत्म होती है जब ये लोग जागते हैं और अपना हक पाने की लड़ाई लड़ने के लिए उठ खड़े होते हैं। भगवंत रसूलपुरी, डॉ. सुखप्रीत की लिखी कहानी पर बनी इस फिल्म का एक छोटा संस्करण कांस फिल्म समारोह में भी शामिल हो चुका है। बड़ी बात यह भी है कि इस फिल्म को थिएटरों में रिलीज़ करने की बजाय पंजाब के गांवों-कस्बों में पर्दे पर दिखाया जा रहा है और अब तक करीब एक लाख लोग इसे देख चुके हैं।

इस फिल्म का स्क्रीनप्ले और निर्देशन राजीव का ही है। फिल्म देखते समय कई बार मन भावुक होता है, बेबसी महसूस होती है, उदासी छाती है और कुछ एक बार आंखें भी नम होती हैं। सिनेमा जब पैसे कमाने से ज़्यादा दिलों पर छाने के इरादे से बनाया जाए तो वह यूं ही दिलों में उतरता है। यही सिनेमा की सफलता है, यही एक फिल्मकार की भी सफलता है।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: bajinderbhagwant rasulpuriChammchamm punjabi filmchamm reviewjimmy gidderbahamahreen kalekanabarpunjabi cinemarajeev kumarचम्म
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