-दीपक दुआ…v(This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक सीन देखिए-बॉर्डर की किसी पोस्ट के दोनों तरफ जमे हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के जवान लाउड-स्पीकर पर अंताक्षरी खेल रहे हैं। एक अक्षर फंसने पर पाकिस्तान का जवान ‘आई लव माई इंडिया…’ गा देता है तो उसका कैप्टन उससे पूछता है-‘तू हमारी तरफ है या उनकी तरफ?’ जवाब मिलता है-‘32 साल से इसी सवाल का जवाब तो ढूंढ रहा हूं जनाब। ननिहाल उस तरफ है, ददिहाल इस तरफ और मैं नो मैन्स लैंड में लटक रहा हूं।’
अब कहने को भले ही यह फिल्म एक वॉर-कॉमेडी हो और इस जॉनर की अपने यहां की पहली फिल्म भी लेकिन इसमें ऐसे पल कई सारे हैं जब यह वॉर यानी लड़ाई की निरर्थकता को बताती है और अंत में आकर तो दो-एक पल के लिए आपकी आंखें भी नम कर देती है।
इस फिल्म के लेखक-निर्देशक फराज़ हैदर इस बात के लिए ज़बर्दस्त बधाई और तारीफ के हकदार हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान की दशकों पुरानी दुश्मनी के इर्द-गिर्द एक ऐसी कहानी बुनी जो इन दोनों देशों को नफरत भुला कर अमन से रहने की सीख तो देती है साथ ही दोनों मुल्कों के हुक्मरानों की सियासती चालों और इनके सरपरस्त होने का दावा करने वाली विदेशी ताकतों की चालबाजियों पर व्यंग्य करने से भी पीछे नहीं हटती।
कहानी इतनी-सी है कि चीन और अमेरिका के बहकावे में आकर भारत और पाकिस्तान के नेता जंग का ऐलान करने वाले हैं। न्यूज-रिपोर्टर रुत दत्ता (सोहा अली खान) एक सरहदी पोस्ट पर कवरेज के लिए जाती है। पर वहां उसे कैप्टन राजबीर (शरमन जोशी) और उस पार के कप्तान कुरैशी (जावेद जाफरी) के बीच एक अलग ही रिश्ता नजर आता है।
महज कुछ ही घंटों में फैली इस कहानी में तो नयापन है लेकिन इसकी स्क्रिप्ट का कच्चापन बार-बार सामने आए बिना नहीं रहता। कई जगह यह महसूस होता है कि फलां सीक्वेंस को और ज्यादा मैच्योरिटी के साथ लिखा या ट्रीट किया जाना चाहिए था। बावजूद इसके इस फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है जो आपको बोर नहीं होने देता। कुछ एक उम्दा ठहाके लगाने वाले सीन तो हैं ही, आपको लगातार गुदगुदाने वाले पल हर थोड़ी-थोड़ी देर में आते रहते हैं। कुछ डायलॉग बहुत बढ़िया हैं और सीधे दिल पर वार करते हैं।
शरमन जोशी ने एक बार फिर से अपनी काबिलियत मनवाई है। उन्हें और दमदार रोल मिलें तो वह अकेले बहुत कुछ कर सकते हैं। सोहा अपने किरदार में जंचीं। जावेद जाफरी के टेलेंट का यह फिल्म जम कर इस्तेमाल करती नज़र आती है। भारत, पाकिस्तान, चीन और अमेरिका के नेताओं के चार किरदार दिलीप ताहिल ने बखूबी निभाए हैं और एक तरह से यह इस बात का भी प्रतीक है कि सियासती लोग चाहे कहीं के भी हों, उनका असली चेहरा एक ही होता है-दूसरों को भिड़ा कर अपना उल्लू सीधा करना। अफगानी घुसपैठिए बने मुकुल देव खासतौर से लुभाते हैं।
फिल्म के गानों में एकदम से छू सकने लायक कोई बात भले न हो मगर ये बुरे नहीं हैं। बुरी तो खैर यह फिल्म भी नहीं है-हां, थोड़ी और हंसी, थोड़ा और तंज, थोड़ा और तीखापन इसमें डाला जाता तो यह ‘तेरे बिन लादेन’ सरीखी चटपटी हो सकती थी।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू 12 अक्टूबर, 2013 के ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ था।)
Release Date-11 October, 2013
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)