-दीपक दुआ (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘आई एम चिट्टी, स्पीड वन टेराहर्ट्ज़, मैमोरी वन ज़ेटाबाइट…!’
रजनीकांत वाली फिल्म ‘रोबोट’ में एक रोबोटिक इंजीनियर का बनाया मानवीय रोबोट चिट्टी कई सारे असंभव काम कर लेता है। लेकिन दिक्कत तब आती है जब उस रोबोट के अंदर मानवीय संवेदनाएं जन्म ले लेती हैं और वह उस इंजीनियर की प्रेमिका से प्यार कर बैठता है। कुछ ऐसी ही कहानी इस फिल्म ‘तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया’ की भी है। सिफरा एक मानवीय रोबोट है। देखने में बेहद खूबसूरत लड़की जो सारी भाषाएं बोल लेती है, सारे व्यंजन बना लेती है और सारे काम बड़े प्यार से ‘ठीक है’ बोल कर पूरे कर देती है। उसकी अदाओं पर रोबोटिक इंजीनियर आर्यन मर मिटता है और सब कुछ जानते हुए भी उससे शादी करना चाहता है। लेकिन रोबोट से शादी…?
अमित जोशी और आराधना साह की कहानी बुरी नहीं है। रोबोट बनाने वालों का तर्क है कि इस किस्म के रोबोट आने वाले वक्त में लोगों के अकेलेपन को दूर करेंगे और बूढ़े, अक्षम लोगों की सेवा करेंगे। जिस तरह से ए.आई. यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजैंस (कृत्रिम बुद्धिमता) का विस्तार हो रहा है, यह बात न तो अनोखी लगती है और न ही दूर। पर अगर कोई रोबोट ‘चिट्टी’ की तरह बिगड़ गया तो…? मनमानियां करने लगा तो…? और रोबोट से शादी…!!!
दिक्कत अमित जोशी और आराधना साह की स्क्रिप्ट के साथ है जो एक अच्छे आइडिया के इर्दगिर्द बुनी गई कहानी को समृद्ध नहीं बना सके। शादी वाला घर, रंग-बिरंगा माहौल, चमकते चेहरे, दमकते कपड़े, किस्म-किस्म के किरदार, लड़के-लड़की के बीच के बदलते रिश्ते… यह सब तब तक घिसा-पिटा लगता है जब तक कि इसमें कुछ नयापन न हो। इस फिल्म में नएपन के नाम पर दुल्हन बनी लड़की का रोबोट होना कुछ उत्सुकता तो पैदा करता है लेकिन लेखकों ने उसे भी बेहद चलताऊ अंदाज़ में दिखाया है। कुछ नई घटनाओं, कुछ और कल्पनाओं, थोड़े और ड्रामे, कुछ और हंगामे का इस्तेमाल इस फिल्म को और दिलचस्प, और मनोरंजक, और दमदार, और वज़नदार बना सकता था।
अमित जोशी और आराधना साह का डायरेक्शन ठीक रहा है। लिखी गई घटनाओं और रचे गए किरदारों के ज़रिए उन्होंने फिल्म को कमोबेश पटरी पर बनाए रखा है। कोई बहुत गंभीर मैसेज देने की बजाय इसे हल्का-फुल्का, मनोरंजक रखा गया है जिससे यह लुभावनी लगती है। साथ ही पुरुष दर्शकों की आंखों को ‘सुकून’ देने का भी भरपूर इंतज़ाम इसमें किया गया है। लेकिन कई लंबे, सुस्त-रफ्तार और चलताऊ सीन इसे एक औसत फिल्म से ऊपर नहीं उठने देते। फिर इसका नाम ‘तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया’ न सिर्फ गैरज़रूरी तौर पर बहुत लंबा है बल्कि बेवजह भी है जो इस कहानी पर फिट नहीं बैठता। अंत में सीक्वेल की गुंजाइश छोड़ती इस फिल्म का नाम ‘सिफरा’ (और अगली बार ‘सिफरा 2, 3, 4…’) कहीं बेहतर होता।
शाहिद कपूर अपनी सीमाओं में रह कर जंचते हैं, जंचे हैं। उम्र उनके चेहरे पर अब असर दिखाने लगी है। कृति सैनन को सपाट, सुंदर, सैक्सी दिखना था, दिखी हैं। डिंपल कपाड़िया उखड़ी-उखड़ी रहती हैं इसलिए उन्हें ऐसे किरदार मिलते हैं या उन्हें ऐसे किरदार मिलते हैं इसलिए वह उखड़ी-उखड़ी रहती हैं? ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ के रिव्यू में लिखी बात फिर लिखना चाहूंगा कि धर्मेंद्र को अब फिल्मों में नहीं आना चाहिए। हमारे दिलों में उनकी बड़ी प्यारी छवियां हैं, उन्हें यूं देखना चुभता है। शाहिद की मां बनीं अनुभा फतेहपुरिया दमदार रहीं। ग्रूशा कपूर, राजेश कुमार, राकेश बेदी, राशुल टंडन, आशीष वर्मा आदि अपने कमज़ोर किरदारों में अच्छा काम कर गए।
रिव्यू-‘रॉकी और रानी की’ परफैक्ट-इम्परफैक्ट ‘प्रेम कहानी’
गाने देखने-सुनने में अच्छे हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक में शोर ज़्यादा है। लोकेशन, कपड़े, माहौल रंग-बिरंगा है जिसे कैमरा अच्छे से पकड़ता-परोसता है।
ए.आई. के संभावित खतरों से आगाह करती इस फिल्म के उम्दा आइडिए को अगर खुल कर फैलाया जाता तो इससे निकला मनोरंजन दर्शकों पर छा सकता था। फिलहाल तो यह एक साधारण प्रेम कहानी बन कर रह गई है जिसे टाइमपास के लिए देखा जा सकता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-09 February, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
उम्दाह…
*तेरी बातों में उलझा जिया*… हंसी आती है टाइटल पढ़कर जैसे कि 90 क़े दौर में आ गए हों….
रिव्यु में कोई शक नहीं… बेफिज़ूल कि लम्बी – उबाउ – थकाऊ – AI का फ्रंट इफ़ेक्ट कहो या साइड इफ़ेक्ट…. कुछ जमा नहीं…..
रेटिंग… क्या रेटिंग…. दें… केवल टाइमपास
Ok
ऐसी कहानियां प्रासंगिक तो हैं आज के दौर में लेकिन, उनका सही तरीके से फिल्मांकन आवश्यक है अन्यथा, वो अपनी छाप नहीं छोड़ पायेगी दर्शकों पर। बढ़िया समीक्षा की है आपने दीपक भाई 👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻
धन्यवाद भाई साहब…