-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
अहमदाबाद का एक आम परिवार। मां गरबा सिखाती है और बेटी जुंबा। बाप बेरोज़गार है जिसे लॉटरी लगने का इंतज़ार है। जवान बेटा नालायक, निकम्मा, नाकारा और बदतमीज़ है। लेकिन उसे प्यार है शहर के एक करोड़ोंपति की बेटी से। चलिए, कोई हर्ज़ नहीं। प्यार है, तो है। लेकिन हैरानी की बात यह कि जब एक घटना के बाद यह अमीर परिवार अपनी बेटी का रिश्ता लेकर इनके घर आता है (जहां कायदे से सबके लिए सोने तक की जगह भी नहीं है) तो इस गरीब परिवार की मां-बेटी ऐसा बर्ताव करती हैं जैसे दरवाज़े पर कोई भिखारी कटोरा लेकर खड़ा हो। इस फिल्म में ऐसे ढेरों प्रसंग हैं जो आसानी से हज़म नहीं होते, जिन्हें आप प्रैक्टिकल नहीं कह सकते, जिन्हें देख कर आपके दिमाग के तंतु बगावत कर सकते हैं। इसकी वजह है इस फिल्म की लिखाई जो न सिर्फ ढीली, पिलपिली, अतार्किक और बेअसर है बल्कि निर्देशक ने भी उसे साधने की बजाय बिगाड़ने का ही काम किया है।
हालांकि लेखक करण श्रीकांत शर्मा ने फिल्म के एकदम अंत में एक ट्विस्ट दिखा कर समाज को एक सार्थक मैसेज देने की कोशिश की है। लेकिन इस मैसेज और इस अंत तक आपको ले जाने वाली स्क्रिप्ट के धागे इतने बिखरे और उलझे हुए हैं कि दर्शक-मन उनमें लिपट कर रपट जाता है। शुरुआत में लग रहा था कि नायक-नायिका की अलग-अलग गाड़ियों के एक साथ एक पटरी पर आते ही फिल्म रफ्तार पकड़ेगी, उम्मीद का वह दीया इंटरवल से काफी पहले बुझ जाता है और आप उबासियां लेते हुए इस फिल्म को उतना ही एन्जॉय कर पाते हैं जितना आज की कूल डूड पीढ़ी सत्यनारायण की कथा को एन्जॉय करती है।
फिल्म का नाम गडबड़ है। सिर्फ तुक मिलाने और हैशटैग बनाने की खातिर हीरो का नाम सत्यप्रेम व हीरोइन का नाम कथा रखा गया वरना आज के दौर के किसी शहरी आधुनिक परिवार में लड़के का नाम सत्यप्रेम हो तो वह खुद ही खुद को तलाक दे दे। किरदारों की मेकिंग में गड़बड़ है। हीरो और उसका बाप बेरोज़गार हैं लेकिन इनके कपड़े हों या अकड़, सिलवट एक नहीं दिखती। पात्रों की बोली गड़बड़ है। ढेर सारी गुजराती और जब चाहे मुंबईया शब्द बोलने वाले ये लोग अचानक से बुद्धिजीवी भी हो उठते हैं। दरअसल पूरी पटकथा इस कदर लचर ढंग से लिखी गई है कि लेखक की काबलियत पर शक होता है।
गुजराती फिल्मों से आए निर्देशक समीर विद्वंस ने भी इस रायते को समेटने की बजाय फैलाने का ही काम किया है। पूरी फिल्म में, इसकी कहानी में, पात्रों के संवादों में, हो रही घटनाओं में एक स्पष्ट बनावटीपन दिखाई देता है। कहानी का बेवजह लंबा खिंचना, कुछ किरदारों का बेवजह टपकते रहना, पात्रों का आपस में बेवजह उलझते रहना, कई बार बेवजह अश्लील संदर्भों का आना, हीरो-हीरोइन को बेवजह कश्मीर ले जाना बताता है कि किस तरह से निर्माता के दिए संसाधनों का विध्वंस किया है समीर विद्वंस ने।
कार्तिक आर्यन ‘शहज़ादा’ रिव्यू : सांबर-भटूरे, छोले-इडली परोसने आया ‘शहज़ादा’ में निभाई अपनी भूमिका को दोहराते नज़र आए हैं। कियारा आडवाणी को इतनी देर तक मुंह फुलाए देख कर मज़ा कम होता है। नायक-नायिका के बीच की उष्मा भी महसूस नहीं होती। गजराज राव, सुप्रिया पाठक कपूर, शिखा तल्सानिया, अनुराधा पटेल जैसे अन्य कलाकार अच्छा सहयोग दे गए। राजपाल यादव को तो जैसे जूनियर आर्टिस्ट बना कर रख दिया फिल्म ने। न कायदे का रोल, न डायलॉग, न ही एक्टिंग में दम। फिल्म की एडिटिंग लचर है। लगभग ढाई घंटे की इसकी लंबाई चुभती है।
गीत-संगीत ऊपर से मसाले की तरह छिड़का गया है। एक-दो को छोड़ कर बाकी के गाने पुरानी धुनों की नकल लगते हैं। और जब शुरुआत में ही ‘गुज्जू पटाका…’ नाम के गाने पर नाचते गुजराती हीरो से जब कोरियोग्राफर बोस्को-सीज़र साऊथ इंडियन स्टाइल का लुंगी-डांस कराएं, जब पूरी फिल्म में भर-भर कर गुजराती बोलते किरदारों वाली फिल्म में पंजाबी गाने आएं तो समझ लेना चाहिए कि आप फिल्म नहीं बल्कि एक प्रपोज़ल देख रहे हैं जिसे बनाने वालों की नज़र आपके दिल जीतने से ज़्यादा आपकी जेबें टटोलने पर है। सच तो यह है कि इस फिल्म में न सत्य झलकता है, न प्रेम और कथा इसकी ढीली है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-29 June, 2023 on theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
मैंने फ़िल्म देखी और रिव्यु एकदम दमदार, सटीक और स्पष्ट बैठता है.।
धन्यवाद…