-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘हम जिसे प्यार करते हैं वो मर जाए, या हमारे लिए उसका प्यार मर जाए, मरते तो हम ही हैं न…!’
ऐसे कई खूबसूरत संवाद जिस फिल्म में हों, जिस फिल्म में विजय सेतुपति-से हरदिल अज़ीज़ अभिनेता और कैटरीना कैफ जैसी अदाकारा को लेकर श्रीराम राघवन जैसे सधे हुए निर्देशक ने ज़िंदगी, प्यार और कत्ल की एक कहानी बुनी हो, उस फिल्म को देखने की उत्सुकता भला किस मन में नहीं होगी।
‘जॉनी गद्दार’, ‘एजेंट विनोद’, ‘बदलापुर’, ‘अंधाधुन’ जैसी फिल्में बना चुके श्रीराम राघवन सिनेमा को कुछ अलग तरह से बनाते-बुनते हैं। उनके चाहने वाले भी उनसे कुछ अलग ही उम्मीदें रखते हैं। श्रीराम ने इस फिल्म में भी उन्हें निराश नहीं किया है, भले ही इंटरवल तक फिल्म हमें कहीं और घुमाती है, कुछ और दिखाती है, लेकिन इंटरवल के बाद यह पूरे ‘राघवन स्टाइल’ में आ जाती है और हम कुर्सी से चिपके बस हर अगले पल का इंतज़ार कर रहे होते हैं।
क्रिसमस की पूर्व संध्या है। बरसों पहले के बंबई शहर में एक औरत अपनी बच्ची और उसके टैडी बियर के साथ घूम रही है। बरसों बाद अपने घर लौटा एक पुरुष उसे टकराता है और वह उसे अपने घर ले आती है। थोड़ी देर बाद बच्ची को सुला कर वे दोनों घूमने निकलते हैं। लौटते हैं तो सोफे पर उसके पति की लाश होती है। बच्ची अभी भी सो रही है। क्या है यह? कत्ल…? खुदकुशी…? या कुछ और…?
श्रीराम की फिल्मों के एकदम शुरू में आने वाले सीन का अक्सर कोई खास मतलब नहीं निकलता। लेकिन बाद में जब उस सीन का लिंक समझ में आता है तो दर्शक हैरान रह जाता है। ‘अंधाधुन’ का खरगोश वाला सीन तो आप को याद ही होगा। ‘मैरी क्रिसमस’ देखने जाएं तो इसके पहले सीन को बिल्कुल भी मिस मत कीजिएगा।
रिव्यू-रहस्य और रोमांच में लिपटी संगीतमय ‘अंधाधुन’
शुरू में यह फिल्म थोड़ी धीमी है। सात साल बाद अपने घर लौटे मर्द और टाइम पास के लिए एक अच्छा साथी तलाश रही औरत का यहां-वहां घूम कर बातें करना थोड़ा बोर करता है। लेकिन बाद में आपको यह अहसास होता है कि फिल्म धीमी नहीं थी बल्कि धीमी आंच पर पक रही थी, गाढ़ी हो रही थी। इस दौरान की गई बातें बेमतलब नहीं थीं बल्कि उन बातों में इनके जीवन का अक्स छुपा था, इनके व्यक्तित्व का आइना थीं ये बातें। यदि आपने फिल्म की इस रफ्तार को जज़्ब कर लिया तो यह फिल्म आपके लिए है, वरना भागती-दौड़ती फिल्मों की कमी थोड़े ही बाज़ार में।
श्रीराम और उनकी टीम की लिखाई इस फिल्म का पहला मजबूत पक्ष है। दूसरा पक्ष श्रीराम का सधा हुआ निर्देशन है और तीसरा इसके कलाकारों का अभिनय। विजय सेतुपति का हौले-हौले बोलना, हौले-से रिएक्ट करना मन को भाता है। कैटरीना कैफ को जब-जब बढ़िया डायरेक्टर मिला है, उन्होंने कमाल ही किया है। टीनू आनंद, संजय कपूर, विनय पाठक, अश्विनी कलसेकर, प्रतिमा काज़मी, राधिका आप्टे, ज़रा देर को आए साहिल वैद आदि सभी ने अपने किरदारों को कस कर पकड़ा है तो उसकी वजह भी श्रीराम का डायरेक्शन ही है। कैटरीना की बेटी के किरदार में अपनी आंखों से बोलती परी शर्मा का काम सराहनीय रहा है।
बीते किसी समय में स्थित यह फिल्म अपनी लुक, अपनी साज-सज्जा, कलेवर और तेवर से हमें उस दौर में ले जाती है जब मोबाइल फोन नहीं थे और न ही कोई आपा-धापी थी। फिल्म का यह लुक तैयार करने वाली टीम भी प्रशंसा की हकदार है। कैमरा संभालने वाले मधु नीलकंदन और फिल्म को कसने वाली पूजा लढ़ा सुरती के काम की तारीफ भी ज़रूरी है। गाने और उनकी धुनें रैट्रो टच लिए हुए हैं। रैट्रो टच तो फिल्म में और भी कई जगह है और यह भी तय है कि यदि आप श्रीराम राघवन के सिनेमा के प्रशंसक हैं तो इस फिल्म को एक बार देखने से आपका मन नहीं भरेगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-12 January, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
इस मूवी का रिव्यु रेडियो FM पर दर्शकों से सुना और उन्होंने इस फ़िल्म को एक सोती हुई फ़िल्म करार दिया…. कि एक झपकी ले ली… धीमी थी…. टाइम पास नहीं हुआ… पैसा वेस्ट इत्यादि….
लेकिन तलाश थी तो एक ऐसे रिव्यु कर्ता कि जो वाकई इस मूवी का आंकलन कर पाए…. और वो है आप दीपक दुआ जी का रिव्यु….
हकीकत में….. धीमी आंच पर पकाकर जो पकवान में मज़ा होता है वो भागदौड़ की ज़िन्दगी में फटाफट तैयार 2 मिनट वाली रेसिपी से बना खाना थोड़े ही पकवान होगा जिसकी कि आजकल ज़्यादातर को आदत सी हो गई है… और यही हाल उनका फ़िल्म क़े आंकलन करने में रहता है….
आपका धीमी आंच वाला उदहारण काबिले तारीफ़…
फ़िल्म को देखने कि जिज्ञासा उत्पन्न हुई है ये रिव्यु पढ़कर….
आभार…