-दीपक दुआ…
कोई भी साल जब अपनी चादर समेटता है तो अपने पीछे बहुत सारे ऐसे निशान भी छोड़ जाता है जिन पर खुल कर बात होनी तो चाहिए थी लेकिन हो न सकी। 2023 की फिल्मों में करोड़ों कमाने वाली या विवाद उठाने वाली फिल्मों के हो-हल्ले में उन फिल्मों की बात रह गई जो प्रचार की कमी या कायदे की रिलीज न मिलने जैसे किसी कारण या रूखे विषय, धीमी रफ्तार, सितारों की कमी के चलते सिमट कर रह गईं। एक नजर 2023 की ऐसी फिल्मों परः-
2023 की ऐसी कम चर्चित फिल्मों में हंसल मेहता की ‘फराज़’ एक ऐसे छात्र फराज़ की कहानी दिखाती नजर आई जो 2016 में ढाका में हुए आतंकी हमले में अपने दोस्तों को बचाने की कोशिश कर रहा था। हॉटस्टार पर आई मनोज वाजपेयी व शर्मिला टैगोर वाली ‘गुलमोहर’ अपना पुश्तैनी घर छोड़ कर जा रहे एक परिवार के अंदरूनी हालात की पड़ताल करती नजर आई। नंदिता दास के निर्देशन में आई कपिल शर्मा व शाहाना गोस्वामी वाली फिल्म ‘ज्विगाटो’ नौकरी चले जाने के बाद खाने की डिलीवरी करने वाले एक शख्स और उसकी मदद के लिए किस्म-किस्म के काम कर रही उसकी पत्नी के बहाने उन लोगों के हालात दिखाती नजर आई जो रोजी-रोटी कमाने के संघर्ष में फंस कर अपना अस्तित्व ही भूलने लगते हैं।
अनुभव सिन्हा की ‘भीड़’ को ऐसी फिल्मों की कतार में रखा जा सकता है जिसमें राजकुमार राव, भूमि पेढनेकर जैसे नामी चेहरे थे, जिसे चर्चा भी मिली और कई समीक्षकों की तारीफें भी लेकिन बहुसंख्य दर्शकों ने इसे नहीं देखा। लॉकडाउन के समय की कहानियां कहती यह फिल्म अपने तेवर के चलते देखी जा सकती है। ठीक यही सुधीर मिश्रा की ‘अफवाह’ के साथ भी हुआ। नवाजुद्दीन सिद्दिकी और भूमि पेढनेकर वाली इस फिल्म ने सोशल मीडिया के जरिए फैलती अफवाहों और समाज के अंदर व्याप्त खोखलेपन पर सधे हुए ढंग से बात की लेकिन इसे भी बॉक्स-ऑफिस पर कम ही पसंद किया गया।
नेटफ्लिक्स पर आई सान्या मल्होत्रा वाली ‘कटहल’ ने एक विधायक के घर से चोरी हुए कटहल के बरअक्स सरकारी तंत्र के तौर-तरीकों और ताकतवर लोगों की सोच पर करारा व्यंग्य किया। सात साल से बन कर डिब्बों में रखी संजय मिश्रा, विवान शाह वाली ‘कोट’ एक बेहद गरीब परिवार के लड़के की कोट पहनने की तमन्ना को दिखाती नजर आई। इस फिल्म का तो रिलीज होना भी आश्चर्य कहा जा सकता है। यही बात विनोद कांबले की फिल्म ‘कस्तूरी’ के लिए कही जा सकती है जिसे 2019की सर्वश्रेष्ठ बाल-फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिला लेकिन रिलीज़ यह तब हो सकी जब अनुराग कश्यप और नागराज मंजुले ने इसे प्रस्तुत किया। सार्थक सिनेमा की यह गति सचमुच अफसोसजनक है। जी-5 पर आई हुमा कुरैशी, शारिब हाशमी वाली ‘तरला’ ने प्रख्यात कुक व कुकरी लेखिका तरला दलाल की बायोपिक के बहाने स्त्रियों के उड़ान भरने की उम्दा कहानी दिखाई। 2021 में सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार व गोआ के फिल्म समारोह में यूनेस्को-गांधी मैडल पाने वाली संजय पूरण सिंह चौहान की फिल्म ‘72 हूरें’ मुश्किल से रिलीज़ हो सकी और विवादों के चलते गलत व्याख्या का शिकार हुई। हालांकि इसमें कुछ भी विवादास्पद नहीं था और यह असल में युवाओं को चेतावनी देने का काम कर रही थी।
आर. बाल्की की अभिषेक बच्चन, सैयामी खेर वाली प्रेरणादायक फिल्म ‘घूमर’ भी देखी जाने लायक फिल्म थी जिसे टिकट-खिड़की पर ज्यादा कमाई न हो सकी। हादसा तो अक्षय कुमार वाली ‘मिशन रानीगंज’ के साथ हुआ जो एक उम्दा और सच्ची कहानी को अच्छे अंदाज में दिखाने के बावजूद अपनी लागत तक न निकाल सकी। वरिष्ठ फिल्मकार श्याम बेनेगल की ‘मुजीब’ जिस दिन रिलीज हुई उस दिन दर्जन भर फिल्में आई थीं। इस फिल्म को प्रचार की कमी का सामना करना पड़ा। राकेश चतुर्वेदी ओम निर्देशित ‘मंडली’ ने रामलीला करने वाले कलाकारों की उम्दा कहानी परोसी। गोआ के फिल्म समारोह में भारतीय पैनोरमा में भी दिखाई गई इस फिल्म को तारीफें तो खूब मिलीं लेकिन बॉक्स-ऑफिस पर इसे ढीली रिलीज के चलते ढीला रिस्पांस मिला। देवाशीष मखीजा की मनोज वाजपेयी वाली ‘जोरम’ भी हमारे वक्त की एक जरूरी फिल्म है जिसे सार्थक सिनेमा पसंद करने वालों को देखना चाहिए।
इनके अलावा इश्तियाक खान के निर्देशन में आई ‘द्वंद्व’, इशरत खान की ‘गुठली लड्डू’, शिलादित्य बोरा की ‘भगवान भरोसे’, अविनाश अरुण की ‘थ्री ऑफ अस’, बैडमिंटन के खेल पर आधारित के.के. मैनन वाली ‘लव ऑल’ भी कहीं मिले तो देख लेनी चाहिएं।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)