-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
शादी वाला घर। चमक-दमक, हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा, ढोल-धमाका। चुपड़े चेहरे, रंग-बिरंगा माहौल। लेकिन रिश्तों में खोखलापन, ज़िंदगी में अधूरापन। जो कर रहे हैं, उससे संतुष्ट नहीं। जो करने जा रहे हैं, उस पर भरोसा नहीं। क्या करें? मन की सुनें तो लोग क्या कहेंगे और दिमाग की मानें तो ज़िंदगी बेजार। चलने दें, जैसे चल रही है ज़िंदगी या फिर भिड़ जाएं समाज से, रिवायतों से, खुद से, ज़िंदगी से?
इस किस्म की कहानियां हिन्दी सिनेमा के लिए नई नहीं हैं। बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि हाल के बरसों में तो ऐसी कहानियां बहुतायत में आने लगी हैं जिनमें हर आड़ी-टेढ़ी बात को शादी वाले घर की पृष्ठभूमि में दिखाया-बताया जाने लगा है। यह रास्ता फिल्म वालों के लिए तो आसान है ही, जहां वे वर्जित या दबे-छुपे विषयों को चमक-दमक वाली पैकिंग और कॉमेडी के रैपर में लपेट कर परोस देते हैं वहीं दर्शकों को भी यह माहौल भाता है क्योंकि हर किसी को अपने-अपने मतलब का मसाला मिल जाता है।
कनाडा में रह रहे कुक्कू और नैना शादी के पांच साल बाद एक-दूसरे से तलाक चाहते हैं। ये तय करते हैं कि पटियाला में बहन की शादी के दौरान वे परिवार वालों को अपने फैसले के बारे में बता देंगे। मगर इससे पहले कि कुक्कू कुछ बता पाता उसका बाप बम फोड़ देता है कि बेटी की शादी के बाद वह उनकी मां को तलाक दे रहा है। उधर बेटी भी अपने स्ट्रगलर प्रेमी को छोड़ एक ‘सैटल’ लड़के से मजबूरी में शादी कर रही है। हर किसी की अपनी मजबूरी, अपनी चाहतें, अपना संघर्ष। दिल-दिमाग की इस लड़ाई में जीतें तो कैसे और हारें तो किससे?
कहानी में नयापन भले न हो, एक ट्विस्ट ज़रूर है कि जहां बेटे को शादी के 5 साल बाद ज़िंदगी ठहरी हुई लग रही है वहीं बाप को 35 साल बाद ठहराव महसूस हुआ है। फिल्म कहना चाहती है कि हम अपने अहं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति में इस कदर उलझे रहते हैं कि अपने पार्टनर की उंगली पकड़ना ही भूल जाते हैं और इसीलिए दोनों के बीच दूरियां आने लगती हैं। फिल्म यह भी कहना चाहती है कि यदि आपस में बात हो, संवाद हो तो कड़वाहटों और दूरियों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन यह सब फिल्म सिर्फ कहना चाहती है, खुल कर कह नहीं पाती है क्योंकि कहने के लिए जिस किस्म के किरदार यह गढ़ती है, जिस तरह की सिचुएशंस यह बनाती है, उनमें सहजता नहीं है।
सबसे पहले तो फिल्म यह बताने में ही नाकाम रहती है कि कुक्कू और नैना की ज़िंदगी आखिर बर्फ क्यों बनी हुई है। निर्देशक ने कह दिया, आपको मानना ही पड़ेगा। कुक्कू पांचवीं क्लास से नैना पर फिदा है, उसके लिए किसी से भी भिड़ जाता है लेकिन शादी के बाद ऐसा क्या होता है कि वह उसके लिए भिड़ना तो दूर, खड़ा तक नहीं हो पाता? लेखकों की मंडली पर जब ये दबाव हों कि पटकथा लिखते समय उन्हें हर थोड़ी देर बाद कोई न कोई मसाला डालना है और कैरेक्टर खड़े करते समय उन्हें रंग-बिरंगे तेवर देने हैं तो अक्सर इसी किस्म की खिचड़ी बन कर सामने आती है। अब कन्फ्यूज़न बेचारे दर्शक को होती है कि वह किस किरदार को प्यार करे, किसे दुत्कारे, किस की बात को सही माने और किसे कटघरे में खड़ा करे। और यह भी कि दिखाए जा रहे सीन पर उसे हंसना है या सोचना है, गुस्सा करना है या शोक मनाना है। कहानी से पटकथा और पटकथा से पर्दे तक के सफर को जब ‘प्रपोज़ल’ बना दिया जाता है तो फिल्में कुछ ऐसा ही रूप लेती हैं जिनका नाम भले ही ‘जुग जुग जिओ’ हो लेकिन वे लंबे समय तक सहेजी नहीं जा सकतीं। और हां, इस फिल्म के नाम का इसकी कहानी या कंटेंट से कोई नाता नहीं है। कोई आकर्षक नाम रखना था, सो रख दिया।
वरुण धवन अपनी सीमित रेंज में जो कर सकते थे, उन्होंने दम लगा कर किया। कुछ सीन में वह खूब जंचे। कियारा आडवाणी को अच्छे सीन कम ही मिले। अनिल कपूर, नीतू सिंह सीनियर हैं, सो छाए रहे। यू-ट्यूबर प्राजक्ता कोली ने अपनी पहली फिल्म में प्रभावित किया। सबसे दमदार रहे मनीष पॉल। जब-जब आए, हंसा गए। गीत-संगीत अच्छा है। सुनने लायक, देखने लायक, थिरकने लायक। लेकिन म्यूज़िक की ज़्यादा खुराक अखरने लगती है। फिल्म लंबी बहुत कर दी राज मेहता ने। बातें फैलाते हुए वह दूर निकल गए और समेटते समय नाकाम रह गए। इसीलिए फिल्म का अंत न उम्मीदों पर खरा उतरा, न ही उसने असर छोड़ा। राज की पिछली फिल्म ‘गुड न्यूज़’ में जो कसावट थी, वह इसमें नहीं दिखती।
और हां, इस फिल्म को पंजाब की पृष्ठभूमि पर बनाने की क्या ज़रूरत थी, यह भी समझ से बाहर है। 35 साल से पटियाला में रह रहे शादीशुदा जोड़े (अनिल-नीतू) को अगर मुंबईया हिन्दी ही बोलनी है तो फिल्म को भी मुंबई में सैट किया जा सकता था। क्या सिर्फ इसलिए कि हर किरदार हर थोड़ी देर बाद पर्दे पर दारू पीते हुए दिखाया जा सके? सामने मां-बाप अग्नि के फेरे ले रहे हैं और इधर बच्चे दारू में टुल्ल हुए जा रहे हैं। क्या परोस रहे हो ‘बॉलीवुड’ वालों? कहां हो सैंसर प्रभु? कित्थे छुप गए पंजाब की शान के लिए खड़े होने वाले?
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-24 June, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Lgta h bollywood wale apke reviews nhi pdte
Nhi to aise movies nhi bnti