-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
कमाठीपुरा-मुंबई का बदनाम मोहल्ला। अपने प्रेमी रमणीक के हाथों बिक कर यहां पहुंची गंगा ने एक दिन गंगूबाई बन कर पूरे कमाठीपुरा पर राज किया। वह यहां की औरतों और बच्चों के हक के लिए लड़ी और वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा दिलाने की मांग लेकर प्रधानमंत्री तक से जा मिली।
मुंबई अंडरवर्ल्ड पर कई किताबें लिख चुके हुसैन एस. ज़ैदी की किताब ‘माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई’ बताती है कि गंगा को उसका पति यहां बेच गया था। माफिया डॉन करीम लाला से इंसाफ मांगने पहुंची गंगू को उसने बहन बनाया और उसका रुतबा बढ़ता चला गया। गंगूबाई कोठेवाली के तौर पर मशहूर होकर उसने कमाठीपुरा में लाला का शराब और ड्रग्स का धंधा संभाला और साथ ही साथ वहां की औरतों व बच्चों के हक में आवाज उठाते-उठाते हुए एक दिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से भी मिली।
सुनने में मजबूत और दिलचस्प लगती इस कहानी को पर्दे पर उतारते समय संजय लीला भंसाली और उत्कृषिणी वशिष्ठ ने दिलचस्प बनाए रखने की कोशिशें तो खूब कीं लेकिन ये दोनों इसे मजबूत बनाए रखने में नाकाम रहे हैं। सिनेमा के लिए ज़रूरी माने जाने वाले तत्वों में से नाटकीयता और घटनाएं इसमें भरपूर हैं लेकिन लेखक घटनाओं को विश्वसनीय नहीं बना पाए और नाटकीयता इतनी भर दी कि वह हावी होकर खिझाने लगती है। बड़ी गलती यह भी है कि यह फिल्म अपने किरदारों को डट कर खड़ा होने का सहारा नहीं दे पाती। उदाहरण देखिए-कोठे पर तमाम लड़कियां हैं लेकिन गंगू में न जाने किस बात की अकड़ है। करीम (फिल्म में रहीम) लाला से मिलने के बाद उसका रुआब बढ़ता है मगर पुलिस वाले, स्कूल वाले और विरोधी रज़िया जब चाहे उसे धमका कर चले जाते हैं। साफ लगता है कि उसका यह रुतबा, रुआब खोखला है। उसके कृत्यों से नहीं झलकता कि वह मजबूत औरत है जबकि उसके डायलॉग यही बताते हैं। वह कमाठीपुरा की औरतों, बच्चों के लिए कुछ करना चाहती है, लेकिन उसका यह ‘करना’ दिखावा ज़्यादा लगता है। आज़ाद मैदान का उसका भाषण सुन कर लोग हंसते हैं तो लगता नहीं है कि वहां नारी अधिकारों के लिए जुटे हुए लोग बैठे हैं। करीम लाला जैसे डॉन को भी यह फिल्म उतना ताकतवर नहीं दिखा पाती, जितना वह असल में था। वहीं रज़िया बाई का तो पूरा किरदार ही ‘फिल्मी’ लगता है।
दरअसल इस फिल्म को बनाते समय निर्देशक संजय लीला भंसाली ने जितना ध्यान करोड़ों रुपए का सैट खड़ा करने और प्रकाश कपाड़िया व उत्कृषिणी के संवादों को बुलवाने में लगाया उसका आधा भी अगर वह किरदारों को खड़ा करने और उनसे जुड़ी बातों को फैला कर दिखाने में लगाते तो यह एक मन छू लेने वाली फिल्म हो सकती थी। फिल्म का मात्र एक सीन कायदे से बुना गया है जिसमें एक लड़की गंगू से अपने पिता को चिट्ठी लिखवा रही है और सारी लड़कियां एक-एक कर अपने दिल की बात बोलने लगती हैं। लगता है कि इस बाज़ार में सबकी एक ही दशा है, एक ही व्यथा।
अब आते हैं फिल्म की सबसे बड़ी कमी पर और वह है इस किरदार के लिए आलिया भट्ट का चुनाव। नहीं-नहीं, आलिया ने बहुत अच्छा काम किया है, बहुत ही अच्छा। लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी वह गंगूबाई के कद को नहीं छू पातीं क्योंकि न तो उनका मासूम चेहरा और न ही उनकी बॉडी लेंग्युएज उन्हें इस किरदार से मेल कराने देती हैं। सिर्फ अकड़ कर चलने, फैल कर बैठने और जबड़े को जकड़ कर संवाद बोलने भर से कोई अदाकारा माफिया क्वीन नहीं हो जाती। फिल्म के एक गाने में हुमा कुरैशी को देख कर ख्याल आता है कि गंगूबाई का यह रोल हुमा को मिला होता तो बेहतर था। रज़िया के रूप में विजय राज़ अद्भुत लगे हैं लेकिन दिक्कत वही कि किरदार बनाया है तो जम कर दिखाओ तो सही। बाकी कलाकारों में सीमा पाहवा, इंदिरा तिवारी, जिम सरभ भरपूर जंचते हैं, शांतनु महेश्वरी भी। अजय देवगन तक ने निराश किया है तो गलती उनकी नहीं भंसाली की ज्यादा है।
भव्य सैट बनाना भंसाली का शौक है। लेकिन शौक हद से बढ़ जाए तो वह कमज़ोरी बन जाता है। ‘गोलियों की रासलीला-रामलीला’ के बाद इस फिल्म के सैट भी फिल्म को सहारा देने की बजाय उसे बनावटी बनाते हैं। हां, फिल्म के गाने बढ़िया हैं और बतौर संगीतकार भंसाली प्रभाव छोड़ते हैं। उन्हें अब दूसरे फिल्मकारों के लिए संगीत बनाने का काम शुरू कर देना चाहिए। एडिटिंग कुछ ज्यादा ही कसी हुई है, झटके देती है। कैमरा वर्क तो भंसाली के यहां उम्दा होता ही है।
यह फिल्म दरअसल दर्शक से जुड़ नहीं पाती। कमाठीपुरा जैसे इलाके में होने वाले इलैक्शन में भला हमारी क्या दिलचस्पी हो सकती है? गंगू को हम समाजसेविका मानें या तस्कर? उसे वक्त की मारी समझें या अकड़ से भरी? उसे हमारी सहानुभूति चाहिए या दुत्कार? बाकी के किरदारों को हम किस नज़र से देखें, यह भी फिल्म स्पष्ट नहीं करती। फिल्म का अचानक से आया अंत हमें ठग लेता है। आखिर क्या संदेश, मनोरंजन, पीड़ा, संवेदना, हंसी, चुभन लेकर हम थिएटर से बाहर निकलें, भंसाली हमें बता नहीं पाते। उनके मन की यह कन्फ्यूज़न हमें भी कन्फ्यूज़ करती है। और जब ऐसा होता है तो वह फिल्म अलग-अलग लोगों की निजी पसंद-नापसंद का शिकार होकर किसी को बहुत अच्छी तो किसी को बहुत खराब लगती है। सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई इस फिल्म के साथ भी यही होने वाला है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-25 February, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Wah, Deepak ji kitna sunder likha hai. Shayad yeh kmaal aapki film patrkarita ki lambi paari ka nateeja hai. Review padne ke baad parde per chalchitron ke maadhyam se chalti kahani dekhne ki ichcha ho rahi hai.
आभार आपका…
Very well deepak sir u always script exactly
Bhut bdia sir
Ab to dekhni pdegi
धन्यवाद…
पा’ जी।
आपकी समीक्षा पढ़कर न जाने कितने समीक्षक फेसबुक पर पैदा हो गए 😜😜😜🤣
मजाक के लिए माँफी 🙏 आप इतने विस्तार से लिखते हैं कि मजा आ जाता है। आप यकीन नहीं करेंगे प्रोजेक्ट शुरू हुआ तभी मैंने अपने मित्रों से कहा था कि नायिका का चुनाव एकदम गलत है। पर भंसाली साहब को ग्लैमर ही चाहिए होता है क्या करें 😄
मैंने बरसों पहले एक जगह लिखा था कि भंसाली तो प्याज भी 300 रुपए किलो से कम पर नहीं खरीदते होंगे… जय हो…