-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
पहले कहानी की बात हो जाए। एक फुकरे फिल्म निर्माता को किसी प्रॉपर्टी के बिकने से करोड़ों रुपए मिल जाते हैं और वह हीरोइन मलाई (वीना मलिक) को लेकर एक फिल्म बनाना चाहता है। लेकिन यह हीरोइन अपने ब्वॉयफ्रैंड के साथ मिल कर उसके पैसे हड़प लेना चाहती है और एक कार किराए पर लेकर निर्माता के साथ उससे मिलने चल देती है। इस कार का ड्राईवर भी अब यह पैसा पाना चाहता है। इनके मौहल्ले के चंद दादा, कुछ मवाली, गुंडे, जेल से भागा एक ‘भाई’ जैसे तमाम लोग भी इस पैसे को लूटना चाहते हैं। रास्ते में ये सब एक भूतिया बंगले में जा पहुंचते हैं जहां एक पुलिस अफसर भी अपने चेलों-चपाटों के साथ पहुंच जाता है।
फिल्म ‘दाल में कुछ काला है’ की यह कहानी पढ़ कर अगर आपको ऐसा लग रहा है कि यह बहुत ही ज़बर्दस्त फिल्म होगी जिसमें कॉमेडी, एक्शन और हॉरर के मसाले देखने को मिलेंगे, तो आपको बता दें कि ऐसा कुछ नहीं है। फिल्म इस कदर थकी हुई है कि पहले ही सीन में अपनी औकात बता देती है और आप उस पल को कोसते हैं जब आपने इसे देखने का फैसला किया था।
ऐसा लगता है जैसे इस फिल्म के निर्माता की ही कहानी पर्दे पर चल रही है जिसने रियल इस्टेट के धंधे से कमाया पैसा लगा कर एक अच्छी फिल्म बनानी चाही लेकिन इस फिल्म से जुड़ा हर शख्स बस उसे लूटने पर तुला है। फिल्म में कहानी, स्क्रिप्ट, डायलॉग, म्यूज़िक, एक्टिंग, एडिटिंग, कोरियोग्राफी वगैरह-वगैरह के नाम पर जो परोसा गया है उसे हजम करना तो दूर, चखना तक मुहाल है। कहानी तो जो है सो है, उस पर लिखी गई पटकथा सिरे से पैदल और अतार्किक है। गुंडों का समूह अपने साथ दो बच्चों को क्यों ले जाता है या ये लोग जिस भूतिया बंगले में पहुंचते हैं उसका कहानी से क्या लेना-देना है और वहां जो हो रहा है, वह क्यों हो रहा है जैसे इतने सारे सवाल उठते हैं इस फिल्म को देखते हुए, लेकिन जवाब के नाम पर आप अपने ही बाल नोचते नजर आएंगे।
कलाकारों की तो भीड़ है इस फिल्म में। विजय राज़, जैकी श्रॉफ, शक्ति कपूर के अलावा दो मशहूर पाकिस्तानी हास्य-कलाकारों की जोड़ी भी है लेकिन हर कोई जैसे नौटंकी में काम करता नज़र आता है। वीना मलिक का काम देख कर लगता है जैसे उन्होंने राखी सावंत एकेडमी से एक्टिंग सीखी है। जैकी, शक्ति जैसे वरिष्ठ अदाकार इतने ओवर एक्टिंग करते दिखे कि पर्दे पर पत्थर फेंकने को दिल करता है। अरे, वीना से कुछ एक्सपोज़ ही करवा लेते तो भी कुछ बात बनती। आनंद बलराज का डायरेक्शन जिस कदर बकवास है, उससे कहीं ज़्यादा उनकी एक्टिंग खराब है। फिल्म का म्यूज़िक भी लचर है। आइटम नंबर में मस्ती नहीं है और रोमांटिक गाने में से रोमांस लापता है। सच तो यह है कि इस किस्म की फिल्में सिनेमा के नाम पर काला धब्बा हैं जिन्हें बनाना संसाधनों का दुरुपयोग है और इन्हें देखने की सोचना भी गुनाह है।
अपनी रेटिंग-इस फिल्म को एक भी स्टार नहीं दिया जा सकता।
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-29 June, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)