-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली की सड़कों पर एक शूट आउट होता है। दो लोग एक कार को टक्कर मार कर ड्रग्स का बैग लूट लेते हैं। ड्रग्स जिसकी है वह शख्स इनमें से एक का बेटा उठा लेता है। अब डैडी को बेटा वापस चाहिए तो बैग लौटाना पड़ेगा। लेकिन यह सब इतना आसान भी तो नहीं है न।
2011 में आई एक फ्रैंच फिल्म ‘नुई ब्लांश’ यानी ‘स्लीपलैस नाइट’ यानी ‘जागती रात’ का रीमेक है यह फिल्म। हालांकि अपने यहां इसका एक रीमेक 2015 में तमिल में कमल हासन को लेकर बन चुका है जिसका नाम ‘थूंगा वनम’ यानी ‘जागता जंगल’ था। इस किस्म के नाम शायद इसलिए क्योंकि इस फिल्म की अधिकांश कहानी सिर्फ एक रात की है, एक जागती रात जब कोई भी सो नहीं रहा है। अब यह अलग बात है कि जहां फ्रैंच फिल्म का नाम फ्रैंच में था और तमिल का तमिल में, वहीं हिन्दी वालों को अपनी फिल्म के लिए हिन्दी में कोई सटीक नाम नहीं सूझा। खैर…!
एक रात की कहानियां आमतौर पर भागती-दौड़ती हुई होती है। खासकर तब, जब वे एक्शन और थ्रिलर के जॉनर में हों। इनमें घटनाएं फटाफट घटती हैं, संवाद खटाखट बोले जाते हैं, एक्शन घटाघट होता है, म्यूज़िक पटापट बजता है और अगली सुबह एक उजाला लेकर आती है। यहां भी ऐसा ही हुआ है। ड्रग्स का बैग लौटाने के लिए हीरो एक आलीशान होटल में गया है। वहां पर और भी मेहमान हैं, होटल का स्टाफ है, एक शादी भी हो रही है। हीरो यहां है तो विलेन भी यहीं होगा और उसके गुर्गे भी। ऐसे में तेज़ गति से घटती घटनाएं आपको ज़्यादा सोचने का मौका दिए बगैर चलती चली जाती हैं और छोटी-मोटी इक्का-दुक्का चूकों पर आपका ध्यान ही नहीं जाता। इस फिल्म को लिखने-बनाने वालों ने भी बड़ी ही खूबी से आपका फोकस घटनाओं की रफ्तार और बार-बार आते एक्शन पर रखा है जिससे यह फिल्म देखने लायक हो उठती है। हां, यह भी है कि इसकी स्क्रिप्ट एक स्तर से ऊपर नहीं उठ पाती है, फिर भी इस किस्म की फिल्में पसंद करने वालों को यह भाएगी।
निर्देशक अली अब्बास ज़फर को सिनेमा के क्राफ्ट की ऊंच-नीच पता है। उन्होंने जिस तरह से इस फिल्म को फैला कर समेटा है, उससे उनकी काबलियत सामने आती है। फिल्म जिस मूड और जैसे किरदारों की है, इसमें गालियां और गोलियां होना स्वाभाविक है। इस किस्म के किरदारों में शाहिद कपूर जंचते आए हैं। यहां भी उन्होंने उम्दा काम किया है। उन्हें देख कर उन्हीं की ‘कबीर सिंह’ ‘कबीर सिंह’-थोथा चना बाजे घना, ‘फर्ज़ी’ ‘फर्ज़ी में मनमर्ज़ी करते हैं राज-डी.के. आदि की याद भी आ सकती है। राजीव खंडेलवाल, डायना पेंटी, रोनित रॉय, संजय कपूर, अंकुर भाटिया, विवेक भटेना आदि भी जमे हैं। कुछ पल को आए सोलंकी दिवाकर और मुकेश भट्ट का काम असरदार रहा। शाहिद के बेटे के रोल में सरताज कक्कड़ प्रभावी रहे। ज़ीशान कादरी ने सचमुच असरदार काम किया। उन्हें इस तरह के किरदार मिलते रहें तो वह अपनी पुख्ता जगह बना सकते हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक में शोर अधिक है। यह फिल्म बड़े पर्दे पर आती तो इसके एक्शन भरे सीन देखने में ज़्यादा मज़ा आता। फिलहाल तो यह जियो सिनेमा पर मुफ्त में इस लिंक पर क्लिक कर के देखी जा सकती है।
नशे का कारोबार गंदा है लेकिन इसमें इतना ज़्यादा पैसा है कि पूरी दुनिया में कहीं माफिया, कहीं आतंकवादी तो कहीं सरकारें तक इसे आसरा देती हैं। इस अंधे पैसे का लालच ही अक्सर उन लोगों को भी अपनी चपेट में ले लेता है जिन पर इस कारोबार को रोकने की ज़िम्मेदारी होती है। यह फिल्म इसी गंदे धंधे से उपजने वाले अंधे पैसे की दौड़ में भाग रहे कुछ गंदे डैडी लोगों की कहानी कहती है, खुल कर, खोल कर।
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Release Date-09 June, 2023 on Jio Cinema
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)