-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
पचास के दशक का कश्मीर। गीत-संगीत में पुरुषों का वर्चस्व। औरतें गाती भी हैं तो पर्दे में, बंद कमरों में। ऐसे में ज़ेबा को मास्टर जी ने गाना सिखाया, प्रेरित किया, रेडियो तक पहुंचाया। ज़माने से छुपने को ज़ेबा ने नूर बेगम नाम रखा और चल पड़ी इस रास्ते पर। कई मुश्किलें आईं, कई अड़चनें, लेकिन वह थमी नहीं और कश्मीर की पहली मैलोडी क्वीन कहलाई। इससे भी बढ़ कर उसने कश्मीर की लड़कियों को गीत-संगीत के रास्ते पर चलने को प्रेरित किया।
यह फिल्म असल में राज बेगम नाम की कश्मीरी गायिका के जीवन से प्रेरित है जिन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड और पद्म श्री भी मिला। लेखक-निर्देशक दानिश रेंज़ू इससे पहले कश्मीर की अभागी औरतों पर ‘हॉफ विडो’ नाम से एक फिल्म बना चुके हैं। ‘सांग्स ऑफ पैराडाइज़’ में उन्होंने हालांकि ज़िक्र ‘कश्मीर की औरतों’ का किया है लेकिन दिखाया सिर्फ ‘कश्मीर की मुस्लिम औरतों’ को है। पचास के दशक में क्या कश्मीर में मुस्लिमों के अलावा बाकी लोग नहीं थे? फिल्म यह भी बताती है कि किसी समय ऋषि-मुनियों की और बाद में सूफी संगीत की धरती कहे जाने वाले कश्मीर में काफी पहले ही कट्टरपंथियों का ऐसा बोलबाला हो चुका था कि वे गाने-बजाने वाली किसी लड़की को अपने मुआशरे में सहन तक नहीं कर पा रहे थे। हालांकि लेखक-निर्देशक ने बहुत चतुराई से ऐसी बातें उभारे बिना सिर्फ नूर बेगम की ही कहानी पर ही अपना फोकस रखा है। लेकिन नूर की कहानी भी उन्होंने बहुत ‘सूखे’ तरीके से दिखाई है।
एक वास्तविक किरदार (राज बेगम) पर बनी इस फिल्म में एक छद्म नाम (नूर बेगम) इस्तेमाल किए जाने से इसका प्रभाव फीका हुआ है। फिर पहली नज़र में प्रेरक लगने वाली यह कहानी उतनी प्रेरक बन नहीं पाई है जितनी यह होनी चाहिए थी या हो सकती थी। नूर अपनी हिम्मत से ज़्यादा अपने आसपास वालों की मदद से आगे बढ़ती हुई दिखाई गई है। फिल्म की लिखाई इस किस्म की है कि यह कचोटने, चुभने या भावुक करने की बजाय सपाट तरीके से अपनी बात रखती है और यही कारण है कि इसे देखते हुए किसी किस्म का लगाव या नाता नहीं बन पाता है। फिल्म की एक बड़ी खासियत यह है कि सैंसर से हिन्दी भाषा का सर्टिफिकेट लेकर पास हुई इस फिल्म में आधे से ज़्यादा संवाद कश्मीरी में हैं। गाने बहुत सारे हैं और सारे के सारे कश्मीरी में हैं जो सुनने में प्यारे लगते हैं। लेकिन बेहतर होता कि यह फिल्म कश्मीरी भाषा में ही आती।
दानिश ने पचास के माहौल का कश्मीर खूबसूरती से दिखाया है। ज़ेबा बनी सबा आज़ाद ने अपने किरदार को जम कर जिया है। ज़ेन खान दुर्रानी, सोनी राज़दान, शीबा चड्ढा, लिलियत दुबे, शिशिर शर्मा, ललित पारिमू, चित्तरंजन त्रिपाठी आदि अन्य सभी कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है।
अमेज़न प्राइम पर आई यह फिल्म कुछ और अधिक रोचक अंदाज़ में बनाई जाती तो दिल छू सकती थी। देश के एक खित्ते की उम्दा गायिका को सबकी नज़रों में लाने की यह कोशिश और अधिक ज़ोरदार होनी चाहिए थी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-29 August, 2025 on Amazon Prime Video
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
आपका review पढ़ कर इच्छा हुई देखने की, देखने के बाद लिखूंगी। धन्यवाद,
जिस टॉपिक को. लेकर फ़िल्म बनाई है वो काबिले तारीफ़ है….
धन्यवाद