-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
2012 में दिवाली के मौके पर आई अजय देवगन वाली ‘सन ऑफ सरदार’ (Son of Sardaar) दक्षिण के मशहूर निर्देशक एस.एस. राजमौली की तेलुगू फिल्म ‘मर्यादा रामन्ना’ का रीमेक थी जिसे हिन्दी में अश्विनी धीर ने डायरेक्ट किया था। चूंकि रीमेक आमतौर पर ऐसी फिल्मों के ही बनते हैं जिनकी कहानी में दम हो, तो उस फिल्म में बाकायदा एक कहानी थी जो एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा रही थी। यह अलग बात है कि उस फिल्म में मूल तेलुगू फिल्म की गहरी और प्रभावी बातों को दरकिनार कर सिर्फ कॉमेडी और एक्शन पर ही सारा ज़ोर डाला गया था। फिर भी स्क्रिप्ट में गति थी और जो हो रहा था, फटाफट हो रहा था और उस फिल्म ने आपको बोर नहीं किया था।
(ओल्ड रिव्यू-न दमदार न बेकार ‘सन ऑफ सरदार’)
‘सन ऑफ सरदार 2’ (Son of Sardaar 2) उस फिल्म का सीक्वेल तो नहीं ही है, होती तो आने में 12 साल न लगाती। इस फिल्म में एक ऐसी कहानी जबरन गढ़ी गई है जिसके केंद्र में अजय देवगन का ‘सन ऑफ सरदार’ जैसा किरदार हो, उस फिल्म जैसा पंजाबियों का माहौल हो ताकि इसका नाम ‘सन ऑफ सरदार 2’ रख कर पिछली फिल्म की सफलता और लोकप्रियता को भुनाया जा सके। अपने यहां यह चलन अब ज़ोर पकड़ चुका है कि एक फिल्म के कंधे पर दूसरी फिल्म का बोझ रखना हो तो वैसी-सी कोई कहानी ले आओ, न मिले तो बना डालो। तो, यह वाली ‘सन ऑफ सरदार 2’ की कहानी ‘लाई’ नहीं ‘बनाई’ गई है और यह बात फिल्म शुरू होने के कुछ ही देर में तब समझ आ जाती है जब ज़्यादातर किरदार और बातें जबरन घुसेड़ी गई लगती हैं।
पिछली वाली ‘सन ऑफ सरदार’ में इंग्लैंड में रहने वाला जस्सी (अजय देवगन) पंजाब आया था। इस बार जस्सी पंजाब से इंग्लैंड गया है अपनी बीवी के बुलावे पर। वहां इसे मिल जाती है पाकिस्तानी राबिया (मृणाल ठाकुर) जिसकी बेटी की शादी के लिए इसे नकली कर्नल और नकली पिता बनना पड़ता है क्योंकि राजा (रवि किशन) को अपने बेटे के लिए पाकिस्तानी लड़की तो बिल्कुल नहीं चाहिए। ज़ाहिर है कि खेल में एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं और अंत में सबको सच स्वीकार करना ही पड़ता है।
किरदारों की उलझी हुई नकली पहचान वाली कहानियां हम लोगों ने बहुत देखी हैं। तो इस फिल्म (Son of Sardaar 2) में नया क्या है? जवाब है-कुछ नहीं। चलिए कोई बात नहीं, मनोरंजन तो दमदार होगा, कन्फ्यूज़न वाले हालात में हंसी तो खुल कर आएगी? जवाब है-नहीं। मनोरंजन है मगर दमदार नहीं, हंसी आती है मगर खुल कर नहीं और इसकी वजह है इसके किरदारों व घटनाओं का वह नकलीपन जो फिल्म देखते समय तो फिर भी थोड़ा हंसा देता है लेकिन जल्द ही अहसास होता है कि यह हंसी खोखली है जो लंबे समय तक ज़ेहन में टिक नहीं पाती। फिल्म की पहली कमी-इसमें से मोहब्बत की खुशबू गायब है। जिस लड़की की शादी के लिए सारा ड्रामा हो रहा है, उसका रोमांस बचकाना लगता है, जस्सी और उसकी पत्नी के बीच तो रोमांस है ही नहीं, राबिया और जस्सी भी अपने-अपने स्वार्थ के कारण एक-दूसरे के साथ हैं। राजा के पिता वाला ऐंगल अक्षय कुमार वाली ‘खिलाड़ी 786’ की याद दिलाता है। राजा की खुद की पत्नी वाला ऐंगल मुंह कड़वा करता है। जस्सी की पत्नी ने ब्वॉय फ्रैंड के नाम पर पुतला पाल रखा है। राबिया और उसके पति वाला ऐंगल तो बेहूदा है। फिल्म की दूसरी कमी-इसमें भावनाओं का उबाल नहीं है जो आपका दिल छुए। जस्सी की पत्नी 11 साल से विदेश में है और वह मरा जा रहा है कि उसे भी वीज़ा मिले ताकि वह अपनी बूढ़ी मां को गांव में अकेला, बेसहारा छोड़ कर खुद भी विदेश चला जाए, वाह पुत्त…! वहां पहुंच कर जिस लड़की की शादी करवाने के लिए वह जुट जाता है उसके साथ उसका कोई इमोशनल लगाव नहीं दिखाया गया है। इमोशनल लगाव तो इस फिल्म के किरदारों के बीच है ही नहीं। तीसरी कमी-इस फिल्म में से मिट्टी की खुशबू गायब है। विदेश में ढेरों भारतीय हैं, पंजाबी लोग, पंजाबी बोली है, हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद के नारे हैं लेकिन यह फिल्म आपको गर्व के वे पल दे पाने में नाकाम रही है जो आपको हिन्दुस्तानियत, पंजाबियत या इंसानियत से जोड़ पाएं। जब मकसद सिर्फ झाग बना कर लुभाना हो तो सॉलिड चीज़ कहां से बनेगी?
पंजाबी फिल्मों के सफल निर्देशक विजय कुमार अरोड़ा का निर्देशन बेहतर रहा है। सैट्स का नकलीपन आड़े आता रहा। ठूंसे गए किरदारों में लिए गए कलाकारों को जब खुल कर स्पेस नहीं मिला तो वे भी लाचार दिखे। जब संजय मिश्रा, नलनीश नील, शरत सक्सेना, डॉली आहलूवालिया, अश्विनी कलसेकर, नीरू बाजवा जैसे कलाकारों को खुल कर मौका न मिले, चंकी पांडेय और कुबरा सैत को देख कर झल्लाहट हो तो क्या किरदार गढ़े आपने? चंकी, कुबरा और अश्विनी कलसेकर को तो गैटअप भी बहुत भद्दा दिया गया। अजय देवगन सधे हुए कलाकार हैं, सो जंचते हैं। लेकिन हमारी फिल्में सरदारों को ‘भोला’ (लल्लू पढ़े) दिखाना कब बंद करेंगी? मृणाल ठाकुर भी सही रहीं। दीपक डोबरियाल ने जनाना गैटअप में अपने कमज़ोर किरदार को उठाए रखा। विंदू दारा सिंह और स्वर्गीय मुकुल देव भी अपने हल्के किरदारों के बावजूद खूब जंचे। सबसे ऊपर रहे रवि किशन, जब-जब दिखे, छा गए। गाने मस्त रहे-सुनने लायक, देखने लायक, थिरकाने लायक।
‘सन ऑफ सरदार 2’ (Son of Sardaar 2) असल में अपने ट्रेलर को फैला कर दिखाने वाली हल्की-फुल्की टाइमपास किस्म की फिल्म है। ऐसी फिल्म जिसे आमतौर पर दिमाग को साइड पर रख कर देखा जाता है। वैसे भी हिन्दी फिल्में बनाने वालों ने हमें दिमाग को साइड पर रखने की ऐसी लत लगा दी है कि अब इन लोगों से ज़्यादा बड़ी उम्मीदें लगाने का मन ही नहीं करता। वरना अजय देवगन जैसा निर्माता हो, बड़े स्टार हों तो क्या ये लोग मिल कर सिनेमा का स्तर उठा नहीं सकते? उठाना चाहें तब न…!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-1 August, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
Movie damdar nhi
Par apka review bhut damdar h
Bdi barik se likha h👏👏👏👏
धन्यवाद…
Excellent review 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
Thanks…
So funny movie