-दीपक दुआ…
26 अगस्त, 1998। गणेश चतुर्थी का दिन। अपनी इस पहली मुंबई यात्रा के दौरान हम एलिफैंटा की गुफाएं देख कर मुंबई शहर में लौटे थे और अब हमारा अगला पड़ाव था अंधेरी स्थित होटल जाल।
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प्रख्यात पत्रकार और फिल्म समीक्षक विष्णु खरे की बेटी प्रीति (अनन्या) खरे छोटे पर्दे पर आज अपनी एक स्वतंत्र पहचान स्थापित कर चुकी हैं। प्रीति से मुलाकात के लिए जब हम मुंबई में अंधेरी स्थित होटल जाल में पहुंचे तो देखा कि उसके दरवाजे पर होटल शीला लिखा हुआ है। पता चला कि वहां सोनी टीवी पर आ रहे धारावाहिक ‘महायज्ञ’ की शूटिंग चल रही है। ‘यहां तो बात नहीं कर सकते, आईए बाहर बैठते हैं’ कह कर प्रीति शूटिंग की गहमागहमी से थोड़ा परे ले गईं।
अभिनय की तरफ आने के बारे में बताती हुई वह बोलीं, ‘अभिनय में मेरी रुचि तो शुरू से ही रही है और ऐसा एक संयोग-सा बन गया कि जैसे ही दिल्ली में मेरी पढ़ाई खत्म हुई तो मुझे यहां से ऑफर मिलने शुरू हो गए। वैसे मेरा पहला सीरियल तो था ‘निर्मला’ जो मैंने तब किया था जब मैं 11वीं क्लास में थी। उसके बाद मैंने इन्हीं अनिल जी (‘महायज्ञ’ के निर्देशक अनिल चौधरी) के साथ एक सीरियल किया था ‘फटीचर’ जिसमें पंकज कपूर, राजेश पुरी, अजित वच्छानी वगैरह थे। पर तब तक मैं मुंबई शिफ्ट नहीं हुई थी।’
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जर्मन भाषा और साहित्य में एमए कर चुकीं प्रीति बताती हैं कि मुंशी प्रेमचंद के लिखे ‘निर्मला’ के किरदार को समझने के लिए उन्होंने इस उपन्यास को कई बार पड़ा। फिर उन्होंने गुलज़ार का लिखा ‘बूंद बूंद’ और फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास पर आधारित ‘मैला आंचल’ भी किया। मुंबई पहुंच कर प्रीति ने आनंद महेंद्रू के हास्य धारावाहिक ‘देख भाई देख’, सतीश कौशिक के कॉमेडी सीरियल ‘यह शादी नहीं हो सकती’, दूरदर्शन का हास्य धारावाहिक ‘गोलमाल’ किया। इन दिनों भी वह मंजुल सिन्हा निर्देशित कॉमेडी सीरियल ‘जी साहब’में काम कर रही है जो ज़ी टीवी पर आ रहा है। कहां तो साहित्यिक कृतियों से निकले गंभीर किरदार और कहां ये हास्य भूमिकाएं। ‘तो क्या हुआ? मुझे लगता है कि हर अच्छे कलाकार में हर तरह का रोल करने की क्षमता होनी चाहिए और उसे उस रोल को करने में मज़ा भी आना चाहिए।’
एक नए रोल को लेने से पहले प्रीति किन बातों पर गौर करती हैं? पूछे जाने पर वह कहती हैं, ‘सबसे पहले तो मैं यह देखती हूं कि उस कैरेक्टर की कहानी में अहमियत क्या है और दूसरा मैं अपने-आप को उस कैरेक्टर के साथ कितना जुड़ा हुआ महसूस कर पाती हूं। फिर उस प्रोजेक्ट में जो लोग काम कर रहे हैं उन्हें देखती हूं कि उनके साथ काम करने में कितना सही रहेगा।’ अभिनय को अपना पेशा बनाने का इरादा करते समय प्रीति के परिवार वालों की क्या प्रतिक्रिया रही होगी? ‘एक्टिंग मेरा प्रोफेशन इरादे से नहीं बना। यह सब इत्तेफाकन होता चला गया। मुझे एक के बाद एक ऑफर्स मिलते गए और मैं यहां रुक गई। और मेरे परिवार वाले भी कोई पुराने विचारों के नहीं हैं। उन्हें जब लगा कि मुझे यहां अच्छा काम मिल रहा है और मैं कुछ गलत नहीं कर रही हूं… और हो सकता है उन्हें मुझ पर विश्वास भी था कि मैं जो करूंगी सोच-समझ कर ही करूंगी। इसलिए मुझे उन्होंने बढ़ावा ही दिया।’
एक कलाकार की समाज के प्रति ज़िम्मेदारियों पर बात करते हुए प्रीति कहती हैं, ‘देखिए हर इंसान का कोई न कोई सामाजिक दायित्व तो होता है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। अगर आप उसको मानें तो अच्छा है और अगर नहीं मानें तो आप उस काम को सही नहीं ठहरा सकते। ऐसा मैं समझती हूं तभी मैंने कहा कि एक रोल को लेते समय मैं खुद को उसमें जोड़ कर देखती हूं। मैं कोई ऐसा काम नहीं करना चाहती कि कल को मुझे खुद का बचाव करना पड़े। इसलिए मुझे जो सही लगता है मैं वही करती हूं। इसे आप चाहे तो समाज के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी कह सकते हैं या मेरे पारिवारिक मूल्यों के प्रति।’
प्रीति को मुंबई में रहते हुए पांच साल हो चुके हैं फिर भी इस दौरान उन्होंने मात्र एक हिंदी फिल्म ‘ज़ालिम’ और एक राजस्थानी फिल्म ‘दूध रो कर्ज़’ की है जो बाद में हिन्दी में डब होकर ‘दूध का कर्ज़’ नाम से भी आई थी। इस दिशा में ज्यादा प्रयास न करने की बाबत वह कहती हैं, ‘दरअसल फिल्मों की पॉलिटिक्स थोड़ी अलग होती है। पहली बात तो यह कि फिल्मों के लिए आपको लोगों से मिलना-जुलना पड़ता है, अपने आसपास एक तरह का माहौल बनाना पड़ता है और उसमें मेरी कभी कोई ज़्यादा रुचि रही नहीं क्योंकि मुझे काम में ही ज़्यादा दिलचस्पी रहती है, इसमें नहीं कि वह काम फिल्मों में है या टीवी पर।’
आजकल के कंपीटिशन में अपनी जगह कहां पाती हैं प्रीति? ‘मैं खुद को इस कंपीटिशन में देखती ही नहीं। मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं है कि मैं इससे आगे निकल जाऊं या उससे आगे निकल जाऊं। मुझे जो पसंद आता है और जो मेरी शर्तों पर मुझे मिलता है, मैं वही करना चाहती हूं।’
अभिनय के क्षेत्र में कब तक रहने का इरादा है प्रीति का? ‘मैं इरादे नहीं रखती। इरादे बना कर मैं आई नहीं यहां और इरादे बना कर कोई यहां रह भी नहीं सकता। यहां जो होता है अपने आप होता है। मेरी कोशिश बस इतनी है कि मैं जो भी करूं उसे पूरी ईमानदारी से करूं।’
शादी के बारे में पूछे जाने पर वह कहती हैं, ‘मैंने बताया न कि मैं इरादे रखती नहीं हूं, जो होता चला जाता है उसे मैं होने देती हूं। इसलिए मैं यह नहीं कह सकती कि कब शादी होगी और शादी के बाद भी यह काम करती रहूंगी या छोड़ दूंगी। कल किसने देखा है?’ तभी अंदर से प्रीति को सीन करने के लिए बुलावा आ गया और वह हमसे विदा लेकर चली गईं।
(नोट-यह इंटरव्यू ‘चित्रलेखा’ पत्रिका के दिसंबर, 1998 अंक में प्रकाशित हुआ था।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)