-दीपक दुआ…
1962 का समय। हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे को ठोकर मारते हुए चीन ने भारत की पीठ में खंजर भोंका था। उसी युद्ध में 18 नवंबर, 1962 को लद्दाख के रेज़ांग ला में एक ऐसी अनोखी लड़ाई लड़ी गई थी जिसमें 120 वीर सिपाहियों की चार्ली कंपनी ने मेजर शैतान सिंह की अगुआई में तीन हज़ार चीनी सैनिकों से भिड़ते हुए उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। उस लड़ाई में मात्र 6 सैनिक जीवित बचे थे और मेजर शैतान सिंह समेत बाकी वीरों ने मौत को गले लगाया था। बाद में मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत परमवीर चक्र और उनके सिपाहियों में से आठ को वीर चक्र, एक को अति विशिष्ट सेवा मैडल, चार को सेना पदक व अन्य सम्मान दिए गए। अगर उस दिन ये लोग वहां डट कर नहीं रहते तो चीन भारत में काफी अंदर तक कब्ज़ा कर चुका होता। उन्हीं वीर अहीर सिपाहियों और राजपूत मेजर शैतान सिंह भाटी के अदम्य साहस को सलाम करती है निर्माता फरहान अख्तर की यह फिल्म ‘120 बहादुर’। फरहान अख्तर इसके लिए प्रशंसा के हकदार हैं।
वॉर-मूवीज़ की जो शैली जे.पी. दत्ता ने ‘बॉर्डर’ से लोकप्रिय की थी, उसके बाद आई ऐसी कोई भी फिल्म उसके असर से नहीं बच सकी। ‘120 बहादुर’ भी अपनी शुरुआत में उसी पटरी पर चलती है। ‘बॉर्डर’ के सनी देओल की तरह ही यहां सरहद पर मेजर शैतान सिंह की एंट्री होती है। उनके घर के सीन में भी ‘बॉर्डर’ वाली झलक दिखती है। लेकिन उसके बाद यह फिल्म अपनी एक अलग राह पकड़ लेती है जिसमें मोर्चे पर तैनात सिपाहियों की आपसी दोस्ती, तनातनी, नोक-झोंक और बहादुरी उभर कर दिखती है। लेखक राजीव जी. मैनन ने बहुत समझदारी से ‘बॉर्डर’ जैसी कहानी होने के बावजूद इस फिल्म को ‘बॉर्डर’ की छाया से बचाते हुए इसे एक अलग और पुख्ता पहचान दी है। राजीव जी. मैनन इसके लिए प्रशंसा के हकदार हैं।
‘120 बहादुर’ अपनी शुरुआत से दर्शकों को बांधने लगती है और धीरे-धीरे इसका यह फंदा कसता ही जाता है। अंत आते-आते आप कभी पहलू बदलते हुए, कभी बेचैन होते हुए, कभी मुट्ठियां भींचते हुए गीली आंखों से पर्दे पर चल रहे मंज़र को देखते हैं और अंत में सीट से उठना तक भूल जाते हैं। यह इस फिल्म के लेखन की सफलता है। लेखक राजीव जी. मैनन की सफलता है। इस काम में राजीव को फिल्म के संवाद लेखक सुमित अरोड़ा का भी ज़बर्दस्त सहयोग मिला है। हालांकि सुमित के लिखे संवादों में कुछ शब्द अखरे हैं लेकिन ज़्यादातर समय उन्होंने जब जहां जैसी ज़रूरत हुई, वैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अपने किरदारों के भावों को असरदार ढंग से उकेरा है। सुमित अरोड़ा इसके लिए प्रशंसा के हकदार हैं।
‘धाकड़’ बना चुके निर्देशक रज़नीश रेज़ी घई ने बेहद प्रभावशाली और परिपक्व ढंग से ‘120 बहादुर’ की कहानी को पर्दे पर उतारा है। सैनिकों की निजी ज़िंदगी में ज़रूरत भर झांकने के अलावा उन्होंने अपना अधिकांश फोकस उनकी बहादुरी दिखाने पर ही रखा है। कहानी को फ्लैशबैक में कहने का जो तरीका उन्होंने चुना है उससे भी इसका असर बढ़ा है। फिल्म को यहां-वहां फालतू के मसालों में भटकाने या इसमें किसी किस्म का तड़का लगाने की बजाय रज़नीश ने इसे रेज़ांग ला की लड़ाई और उसे लड़ने वाले सिपाहियों की वीरता को दिखाने में ही खर्च किया है। इससे यह फिल्म किसी एक पक्ष या भाव की ओर झुकी हुई नहीं लगती। बेहद सधे हुए ढंग से यह अपनी बात दर्शकों तक पहुंचा पाने में सफल रहती है। रज़नीश रेज़ी घई इसके लिए प्रशंसा के हकदार हैं।
फिल्म को प्रभावी बनाने में कलाकारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। मेजर शैतान सिंह भाटी के किरदार को फरहान अख्तर ने अत्यंत असरदार ढंग से निभाया। कुछ पल को आईं राशि खन्ना ने एक फौजी अफसर की पत्नी के गर्व से भरे चरित्र को कायदे से दिखाया। बाकी के कलाकारों मसलन विवान भटेना, अंकित सिवाच, स्पर्श वालिया, अजिंक्य देव, ऐजाज़ खान, आशुतोष शुक्ला, बृजेश कर्णवाल, देवेंद्र अहिरवार आदि ने भी प्रभावशाली काम किया है। बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि पूरी फिल्म मे इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ कर आपको कहीं यह महसूस नहीं होगा कि आप किसी ‘फिल्म’ में किसी को ‘एक्टिंग’ करते हुए देख रहे हैं। ऐसा लगता है कि आपके सामने कोई खिड़की खुली है जिसके पार कुछ घटनाएं घट रहीं हैं और आप पहलू बदलते हुए उनके मूक गवाह बने हुए हैं। ये सभी कलाकार इसके लिए प्रशंसा के हकदार हैं।
‘120 बहादुर’ को तकनीकी पक्षों का भी भरपूर सहयोग मिला है। लोकेशन से लेकर नकली बर्फ का असली-सा दिखने वाला संसार बनाने से लेकर कमाल की कैमरागिरी, स्पेशल इफैक्ट्स और बेहतरीन एक्शन दृश्यों से इस फिल्म में रेज़ांग ला की उस लड़ाई को जीवंत किया गया है। इस फिल्म के गीत-संगीत में ज़ुबान पर चढ़ने का माद्दा भले ही न हो लेकिन गीतों के बोल फिल्म और इसके किरदारों की आत्मा को छूते हैं। संगीत सुहाता है और बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म के असर को गाढ़ा करता है। इस फिल्म को तकनीकी तौर पर उन्नत बनाने वाले तमाम लोग इसके लिए प्रशंसा के हकदार हैं।
‘120 बहादुर’ जैसी फिल्मों का आना ज़रूरी है। ऐसी फिल्में हमें उन कहानियों से रूबरू करवाती हैं जो वक्त की बर्फ तले दब कर ठठरी बन चुकी होती हैं। थिएटर में जब यह फिल्म खत्म होती है तो पर्दे पर उन वीर सिपाहियों के नाम आते हैं जिन्होंने रेज़ांग ला में सर्वोच्च बलिदान दिया था। यकीन मानिए, उस समय आपकी आंखें पानी से धुंधली हो चुकी होंगी और मुमकिन है कि आप वे नाम न पढ़ पाएं। फिर भी बैठे मत रहिएगा, उनके सम्मान में अपनी सीट से उठ जाइएगा। इस फिल्म को देखा जाना चाहिए, आने वाली नस्लों को दिखाया जाना चाहिए ताकि उन्हें पता चले कि हमारे कुछ पुरखे ऐसे भी थे जिन्होंने बर्फ के उस मैदान में ‘दादा किशन की जय’ बोलते हुए अपनी वीरता का सुदर्शन चक्र चलाया था। मैं होता तो यही करता।
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Release Date-21 November, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
