-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
बिहार का एक गांव। गोविंद जी का परिवार बहुत खुश हैं। इस बार छठ के अवसर पर 25 साल बाद उनके घर में पूरे परिवार का जुटान हो रहा है। तीन बहनें, जीजा, बच्चे और उनका सबसे प्यारा भतीजा मोहित व उसकी पत्नी जो अमेरिका से आ रहे हैं। सब मिलते हैं तो चुहलबाजियां होती हैं, हंसी-मज़ाक होता है, थोड़ी छींटाकशी भी होती है। लेकिन तभी आड़े आ जाती है एक ऐसी बात कि पूरे घर का माहौल बदल जाता है। एक छत के नीचे दो गुट बन जाते हैं। रिश्ते टूटने की नौबत आ जाती है। और फिर सामने आता है एक दबा हुआ सच। क्या सब सही हो पाता है या फिर…!
भोजपुरी सिनेमा पर अक्सर आरोप लगते हैं कि अब इसमें ओछापन बढ़ गया है और यह घर-परिवार से दूर हो चुका है। यह फिल्म इस दाग को धोने का काम करती है। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्मकार नितिन चंद्रा और उनकी अभिनेत्री बहन नीतू चंद्रा पिछले कई वर्षों से मैथिली और भोजपुरी में कई स्तरीय फिल्में दे चुके हैं। यह फिल्म भी उनकी यात्रा का एक सुनहरा पड़ाव है।
यह फिल्म कायदे से लिखी गई है। अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों के चलते बिहारियों के देश-विदेश में बिखर जाने और छठ जैसे किसी अवसर पर एकत्र होने के प्रसंग की पृष्ठभूमि में यह फिल्म जहां आपसी रिश्तों की गर्माहट को सहलाती है तो वहीं अहं के चलते इन रिश्तों में आ रही दरारों कों टटोलने का काम भी यह बखूबी करती है। नितिन चंद्रा और शत्रुघ्न कुमार ने स्क्रिप्ट के प्रवाह में सहजता रखी है जिससे यह कहीं भी भारी हुए बिना दर्शकों के दिलों में धीरे-धीरे अपनी पैठ बनाती चलती है। संवाद कई जगह बहुत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। हालांकि दो-एक सीन गैर-ज़रूरी लगते हैं। शहर से आई भानजी के सिगरेट के शौक वाले प्रसंग को भी कोई किनारा मिल जाता तो बात अधिक असरदार हो जाती। बावजूद इसके, यह फिल्म मिल-जुल कर रहने, परिवार को सबसे ऊपर मानने और बड़ों का सम्मान व छोटों का ख्याल करने की सीख जिस तरह से देती है, उससे इसका कद ऊंचा हुआ है।
नितिन चंद्रा के निर्देशन में परिपक्वता है। बहुतेरे सीन हैं जिनमें वह गहरा असर छोड़ पाने में कामयाब हुए हैं। यह उनके सधे हुए निर्देशन का परिणाम है कि भावनाओं का ज्वार न होने के बावजूद यह फिल्म भावुक करती है और काफी बार ऐसा होता है कि आंखों के कोर भीगने लगते हैं। जिस सिनेमा से दिल जुड़ जाए वह सिनेमा सार्थक हो उठता है।
लिखने वालों ने यदि सारे किरदार बेहद विश्वसनीय लिखे हैं तो उन किरदारों को निभाने वालों ने भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। सच तो यह है कि एक पल को भी ऐसा नहीं लगता कि आप किसी को ‘एक्टिंग’ करते हुए देख रहे हैं। रेनू सिंह, दीपक सिंह, मेघना पांचाल, सुषमा सिन्हा, निभा श्रीवास्तव, स्नेहा पल्लवी, सैल्फी रैना जैसे सभी कलाकारों ने अपने किरदारों को दम भर जिया है। लेकिन इन सबसे ऊपर और अत्यंत असरदार रहे गोविंद बने शशि वर्मा जिन्होंने अपने एक-एक सीन में जान डाली है। कोई अवार्ड मिलना चाहिए शशि वर्मा को।
अवार्ड तो इस फिल्म को भी मिलना चाहिए जिसमें सैट हो, कॉस्ट्यूम हो या कैमरा, सभी ने मिल कर इसे प्रभावी बनाया है। संपादन दो-एक जगह ढीला लगा। गीत-संगीत कहानी के साथ रल-मिल कर उसे अधिक असरदार बना गया। दूरदर्शन के ‘वेव्स’ ओ.टी.टी. पर मुफ्त में उपलब्ध इस भोजपुरी फिल्म में काफी सारी हिन्दी भी है और नीचे अंग्रेज़ी में सब-टाइटिल भी।
इस फिल्म का नाम भले ही ‘छठ’ हो लेकिन यह छठ के पर्व की महत्ता और धार्मिकता में नहीं जाती। यह परिवार की बात करती है, आपसी प्यार की बात करती है, संस्कार और दुलार की बात करती है। ऐसी फिल्में दरअसल होप देती हैं। होप यानी उम्मीदें-रिश्तों की गरिमा के प्रति, आस्था की गहराई के प्रति और इनसे भी बढ़ कर अच्छे सिनेमा के प्रति।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-24 October, 2025 on Waves OTT
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)

उत्तम