-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
तीन साल पहले कन्नड़ से हिन्दी में डब होकर आई थी ‘कांतारा’। एक लोक-कथा के मिश्रण में मूल निवासियों के जंगल पर अधिकार के संघर्ष, अमीर-गरीब और ऊंची-नीची जाति के भेदभाव और दैवीय न्याय को दिखाती वह फिल्म सीक्वेल की संभावना के साथ खत्म हुई थी। लेकिन जब इसके निर्देशक-अभिनेता ऋषभ शैट्टी ने ऐलान किया कि वह उसका सीक्वेल नहीं बल्कि प्रीक्वेल लाएंगे तो उत्सुकता और बढ़ गई थी। अब आई ‘कांतारा-चैप्टर 1’ उस बढ़ी हुई उत्सुकता को पूरी तरह से शांत करती है।
आगे बढ़ने से पहले ‘कांतारा’ का अर्थ जान लीजिए। इसका मतलब होता है ‘रहस्यमयी जंगल’। पिछली वाली ‘कांतारा’ में वर्ष 1847 से 1990 तक की कहानी दिखाई गई थी जिसमें रहस्य, रोमांच, हास्य, रोमांस और एक्शन के साथ-साथ आध्यात्मिकता का अद्भुत मेल था। उस फिल्म का रिव्यू पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
(रिव्यू-‘कांतारा’ के जंगल में है रहस्यमयी मनोरंजन)
अब इस वाली ‘कांतारा-चैप्टर 1’ में ऋषभ हमें कांतारा के जंगलों और उसकी सीमा पर स्थित बांगरा राज्य के बीच टकराव दिखाते हुए इतिहास के उस दौर में ले जाते हैं जब वहां कदंब साम्राज्य का शासन था। हालांकि फिल्म नहीं बताती लेकिन इतिहास बताता है कि कदंब साम्राज्य कर्नाटक में वर्ष 350 से 550 तक रहा है। जंगलों में पाई जाने वाली बहुमूल्य वन-संपदा पर शहरी लोगों की लालच भरी नज़र, मूल निवासियों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष, उनके भोलेपन का फायदा उठाने के बाद उनके प्रति विश्वासघात और अंत में अधर्म के खात्मे के लिए किसी महामानव के अवतरित होने की कथा को यह फिल्म कहीं हल्के-फुल्के तो कहीं भारी-भरकम ढंग से दर्शाते हुए एक बार फिर से दर्शकों को अचंभित करते हुए उनके दिलों में उतर पाने में कामयाब रही है।
बतौर लेखक ऋषभ इस बार भी शुरूआत में फिल्म को हल्के हास्य भरे फ्लेवर में रखते हैं। हालांकि इससे फिल्म मनोरंजक तो हुई साथ ही थोड़ी उथली भी हुई है। ऐसा ही पिछली वाली फिल्म में भी था। इंटरवल पर एक उम्दा ट्विस्ट देकर बाद में संजीदा पथ पर चलते हुए अंत में दिलों पर कब्जा करती इस फिल्म की कहानी ऊपर-ऊपर से बहुत साधारण दिखती है। अमीर देश की राजकुमारी, किसी कबीले का राजकुमार, दोनों की नज़दीकियां और उसमें बाकी लोगों की अड़चनें… वगैरह-वगैरह। लेकिन यह सिर्फ कहानी का आवरण है। अपने भीतर यह फिल्म धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, सुशासन-कुशासन, विश्वास-अविश्वास की बात करती है और अंत में अद्भुत किस्म की आध्यात्मिकता का अहसास कराते हुए सर्वे भवंतु सुखिनः की भी बात करती है। यहीं आकर यह अपना लक्ष्य भेदती है और हैरानी तब होती है जब पता चलता है कि पिछली वाली ‘कांतारा’ का यह प्रीक्वेल अभी अधूरा है। अभी तो ‘कांतारा-चैप्टर 2’ भी आनी है, या शायद इसके और भाग भी।
पिछली वाली फिल्म के मुकाबले इस फिल्म का बजट काफी ज़्यादा है और वह पर्दे पर झलकता भी है। लेकिन निर्देशक ऋषभ शैट्टी ने फिल्म को भव्यता में खोने नहीं दिया है। फिल्म का कलेवर इसे आसमान में ले जाता है तो इसके तेवर इसके पांव ज़मीन पर टिकाए रखते हैं। कुछ सीन लंबे और कुछ गैरज़रूरी भी लगे हैं। संवाद प्रभावी रहे हैं।
फिल्म की एक बड़ी खासियत इसका गीत-संगीत है। बहुत ही प्रभावी ढंग से इसके गीतों के शब्द इसकी कथा का हिस्सा बन कर असर छोड़ते हैं। एक गीत ‘कांतारा को जो भी छूने को चले है…’ के बोल और उसकी धुन ‘तुम्बाड’ के गीत ‘अरे आओ ना तुम्बाड भोगना है तुम्हें रे…’ की याद दिलाता हैं। वैसे बता दूं कि 2018 में आई ‘तुम्बाड’ के रिव्यू में मैंने लिखा था-‘‘यह फिल्म भारतीय सिनेमा के सफर में एक ऐसा मील का पत्थर है जहां से हमारे फिल्मकार चाहें तो एक नई राह पकड़ सकते हैं। एक ऐसी राह जिसमें कहानियों के खज़ाने हैं और थोड़ी सी सूझबूझ व मेहनत से उन खज़ानों से अपनी फिल्मों के लिए ढेरों अद्भुत कहानियां खोजी जा सकती हैं।’’ ‘कांतारा’ कहानियों के उसी खज़ाने से चुन कर निकाला गया एक अद्भुत मोती है।
(रिव्यू-सिनेमाई खज़ाने की चाबी है ‘तुम्बाड’)
पिछली वाली ‘कांतारा’ के रिव्यू में मैंने लिखा था-‘‘ऋषभ शैट्टी ने बतौर अभिनेता भी जम कर काम किया है। सच कहूं तो पुरस्कार के काबिल।’ उन्हें 70वें राष्ट्रीय पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला भी था। इस बार फिर ऋषभ अपने अभिनय से ऐसा गहरा असर छोड़ते हैं कि उन्हें देख कर कभी सिर गर्व से ऊंचा उठता है तो कभी उनके सामने नतमस्तक हुआ जाता है। गुलशन देवैया भी अय्याश राजा के अपने किरदार को जी भर कर जीते हैं। रुक्मिणी वसंत, जयराम, प्रमोद शैट्टी जैसे अन्य सभी कलाकार भी प्रभावी रहे हैं। कलाकारों की वेशभूषा, मेकअप आदि बेहद असरदार रहा है। अरविंद एस. कश्यप अपने कैमरे से हमें कांतारा की रहस्यमयी दुनिया में ले जाने में कामयाब रहे हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक जानदार है और दृश्यों के असर को बढ़ाता है।
बहुमूल्य वन-संपदा से भरे कांतारा के जंगल को इस फिल्म में ‘ईश्वर का मधुबन’ कहा गया है। यह फिल्म भी किसी रहस्यमयी मधुबन से कम नहीं है। एक बेहतरीन कहानी को बेहतरीन अंदाज़ में कहने के लिए इस फिल्म को देखा जाना चाहिए, याद रखा जाना चाहिए। लेकिन पहले पिछली वाली ‘कांतारा’ देख लीजिए, तभी इसका आनंद आएगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-2 October, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
बहुत बहुत धन्यवाद अब अवश्य देखूंगा ✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻✌🏻🥰🥰🥰🥰🥰🥰 शानदार समीक्षा दीपक जी 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻
आभार…