-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
अभी तक साउथ की तमिल व तेलुगू की फिल्मों को देखते-सराहते रहे हिन्दी के दर्शक अब मलयालम व कन्नड़ भाषाओं से आ रहे सिनेमा व कलाकारों में भी खासी रूचि दिखा रहे हैं। कन्नड़ की ‘के.जी.एफ.’ और ‘कांतारा’ की अपार कामयाबी के बाद अब निर्माता आनंद संकेश्वर और डायरेक्टर रिशिका शर्मा अपनी कन्नड़ फिल्म ‘विजयानंद’ को पांच भाषाओं-कन्नड़, तमिल, तेलुगू, मलयालम और हिन्दी में लेकर आए हैं।
यह फिल्म जिन विजय संकेश्वर की बायोपिक है वह भारत की सबसे बड़ी लॉजिस्टिक कंपनी ‘वी आर एल लॉजिस्टिक्स’ के संस्थापक हैं। वह कन्नड़ के सबसे बड़े अखबार के भी मालिक थे जिसे एक बड़े प्रकाशन समूह को बेचने के बाद उन्होंने एक और अखबार शुरू किया और आज वह अखबार भी कन्नड़ का सबसे बड़ा अखबार है। वह तीन बार लोकसभा के सांसद भी चुने गए। वर्ष 2020 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया था।
यह फिल्म दिखाती है कि कैसे विजय ने पहले अपने पिता की प्रिंटिंग प्रैस के काम को आगे बढ़ाया और फिर उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर सिर्फ एक पुराने ट्रक से शुरुआत की और ढेरों मुश्किलों के बावजूद हिम्मत न हारते हुए ‘विजयानंद रोडलाइन्स’ की नींव रखी जो कालांतर में ‘वी आर एल लॉजिस्टिक्स’ नाम की एक ऐसी विशाल कंपनी बन गई जिसके पास आज हजारों वाहन हैं। उनके इस सफर में आईं आर्थिक, भावनात्मक, सामाजिक दिक्कतों और उनसे जूझने की कहानी को इस फिल्म में दिखाया गया है।
एकदम ज़ीरो से शुरू करके आसमान छूने वाले समाज के नायकों की कहानियां दर्शकों को हमेशा लुभाती रही हैं। इस फिल्म को धीरूभाई अंबानी पर आधारित मणिरत्नम वाली ‘गुरु’ और दो साल पहले आई तमिल की उस ‘सूराराई पोट्टरू’ की कतार में खड़ा कर सकते हैं जो भारत में सस्ती एयरलाइंस शुरू करने वाले जी.आर. गोपीनाथ के जीवन पर आधारित थी। लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह फिल्म उन फिल्मों जैसी प्रेरक, भव्य, शानदार और जानदार बन पाई? जवाब है-नहीं।
कहानी बुरी नहीं है। बल्कि विजय संकेश्वर जैसे लोगों की कहानियां तो समाज के सामने आनी चाहिएं ताकि लोग उनसे कुछ सीख सकें। लेकिन इस कहानी को पटकथा में ढालने और उस पटकथा को फिल्म के रूप में पर्दे पर उतारने का जो ढंग अपनाया गया है वह उतना सशक्त नहीं है, जितना इसे होना चाहिए था। विजय के जीवन के ढेरों उतार-चढ़ाव इसमें हैं लेकिन उन्हें देखते हुए आप डूबते-उतराते नहीं हैं। विजय के संघर्ष से आप जुड़ते नहीं है, उसका दर्द आपको कचोटता नहीं है, उसकी कामयाबी आपको रोमांचित नहीं करती है तो इसका पहला कारण है इसकी स्क्रिप्ट का सपाट होना और दूसरा इसके निर्देशन का हल्का होना।
सिनेमा में बात सबसे पहले दृश्यों, फिर संवादों और अंत में कहीं ज़रूरी हो तो नैरेशन से की जानी चाहिए। जबकि इस फिल्म में जगह-जगह नैरेशन है, फिर संवाद हैं और उसके बाद दृश्यों का सहारा लिया गया है। इसके चलते यह फिल्म उतनी ताकतवर नहीं हो पाई, जितनी इसकी कहानी में दम था।
फिल्म के संवाद काफी अच्छे लिखे गए हैं। उन्हें मूल कन्नड़ से हिन्दी में बदलते समय की गई संवाद लेखक की मेहनत साफ महसूस होती है। हिन्दी की डबिंग भी अच्छी है और फिल्म देखते समय यह भी नहीं लगता कि आप कोई डब फिल्म देख रहे हैं।
अभिनय सभी कलाकारों का अच्छा है। निहाल राजपूत, भारत बोपन्ना, विनया प्रसाद, वी. रविचंद्रन, सीरी प्रह्लाद, प्रकाश बेलावाड़ी आदि सभी जंचे हैं। वरिष्ठ अभिनेता अनंत नाग अपनी एक-एक भंगिमा, एक-एक भाव से प्रभावित करते हैं। गीत-संगीत साधारण है। बैकग्राउंड म्यूज़िक कहीं-कहीं बहुत उम्दा है लेकिन बहुत जगह उसमें शोर है। संपादन कमज़ोर है। बहुत सारे सीन लंबे, खिंचे हुए और गैरज़रूरी लगते हैं। डायरेक्टर रिशिका शर्मा स्क्रिप्ट से लेकर दृश्यों तक को कस कर रख पातीं तो यह फिल्म बेहतरीन हो सकती थी। फिलहाल तो ऐसा हुआ है कि जिस फिल्म को विजय संकेश्वर की विजय गाथा होना था वह उनका प्रशस्ति गान बन कर रह गई है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-09 December, 2022 in theaters.
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)