-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
सुलोचना बारहवीं फेल है। बैंक में काम करने वाली ‘कामयाब’ बहनों की इस छोटी बहन के पति की सीमित आमदनी है। लेकिन वह अपने घर-परिवार में खा-पीकर मस्त रहती है। साथ वाले फ्लैट में रहती एयरहोस्टेस लड़कियों को देख कर उसकी आंखों में भी चमकीले सपने तैरते हैं। उसे जीतना आता है। ‘मैं कर सकती है’ और ‘मुझे हर काम में मजा आता है’ जैसा उसका एटिट्यूड उसे चैन से नहीं बैठने देता। इसलिए कभी वह कॉलोनी की गायन-प्रतियोगिता में तो कभी नींबू-चम्मच रेस में तो कभी रेडियो पर पूछे जाने वाले सवाल का जवाब दे कर इनाम और इज्जत हासिल करती रहती है। ऐसे में सुलोचना को मिल जाता है रेडियो पर एक लेट-नाइट शो में काम करने का ऑफर, और वह बन जाती है लोगों की रातों को जगाने, उनके सपनों को सजाने वाली आर.जे. सुलु। पर क्या उसका परिवार उसके इस रूप को स्वीकार कर पाता है?
इस कहानी में कुछ भी फिल्मी-सा नहीं है। सुलोचना जैसी औरतें हमारे घर-परिवार-पड़ोस में अक्सर दिख जाती हैं जो जिंदगी में करना तो बहुत कुछ चाहती हैं लेकिन हालात उन्हें चूल्हे-चौके तक सीमित कर के रख देते हैं। पर कभी मौका मिले तो ये औरतें कुछ न कुछ हटके वाला काम कर ही जाती हैं। पड़ोस के किसी घर की-सी लगती इस कहानी में सब कुछ सामान्य है। अभावों में हंस-खेल कर जीता परिवार, घर, परिवार, नौकरी, बच्चे की पढ़ाई की चिकचिक, बाहर वालों से मिलती तारीफों के बीच अपनों के तानें… ऐसी स्क्रिप्ट लिखने के लिए लेखक को अपने लेखक वाले खोल से बाहर निकल कर आम इंसान होना होता है और सुरेश त्रिवेणी व विजय मौर्य ने यह बखूबी कर दिखाया है। फिर इस फिल्म में बोली गई जुबान चौंकाती है। मुंबइया परिवारों में लोग किस तरह से बात करते हैं, उसे करीब से परख कर इसमें परोसा गया है।
लेकिन फिल्म कमियों से भी परे नहीं है। शुरूआत में उठान भरती कहानी बाद के पलों में दोहराव और बिखराव का शिकार होने लगती है। कुछ चीजें अखरने लगती हैं और कहानी के बहाव में आ रही दिक्कत भी साफ महसूस होती है। दो घंटे बीस मिनट की इसकी लंबाई अच्छा-खासा एडिट मांगती है।
सुरेश त्रिवेणी बतौर निर्देशक अपनी इस पहली फिल्म से असर छोड़ते हैं। गीत-संगीत फिल्म के माहौल में फिट है। एक्टिंग के मामले में जहां विद्या बालन हर बार की तरह प्रभावित करती हैं वहीं नेहा धूपिया भी चौंकाती हैं। बल्कि अंत के एक सीन में तो वह विद्या पर भारी पड़ती हैं। मानव कौल ने जिस तरह से खुद को अंडरप्ले करते हुए विद्या के पति के किरदार को निभाया है, वह तारीफ के हकदार हैं। विजय मौर्य ने खुद को इतना हल्का रोल क्यों दिया? वह कमाल के एक्टर हैं और हम उन्हें और ज्यादा देखना चाहते हैं। विद्या की बड़ी बहनों के किरदार में आईं सीमा तनेजा और सिंधु शेखरन का काम जानदार है। तृप्ति खामकर खूब जंचीं।
सुलु आपकी रातों को भले न जगाए, आपके सपनों को भले न सजाए लेकिन वह आपको निराश नहीं करती है। फिल्म खत्म हो और आपका मन दो-चार ताली बजाना चाहे तो खुद को रोकिएगा नहीं। रियल सिनेमा को इससे ताकत ही मिलेगी।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
Release Date-17 November, 2017
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)